दलदल

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🔲 आशीष दशोत्तर

” अब तो तुम्हारी ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर आने लगी होगी। महीने भर में तो सब रोटेशन में आ ही जाता है।” मेरा यह बात सुनकर उसने मुझे इस तरह देखा जैसे मैंने उसे कोई अपशब्द कह दिया हो। वह अजीब सा मुंह बनाते हुए कहने लगा, उड़ा लो आप भी मज़ाक। क्या करें, अब तो हर कोई इसी तरह बात करता है।

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उसकी बात सुन मुझे अपराधबोध होने लगा। उसे यह कहने के पीछे मेरी ऐसी कोई मंशा बिल्कुल नहीं थी और सहज रूप से ही मैंने उससे पूछ लिया था , मगर उसका जवाब सुनकर ऐसा लगा कि वह बहुत परेशान हैं। हालात के आगे मजबूर भी।

एक छोटी सी पंचर की दुकान खोल कर बैठा वह युवक मुझे इस वक्त उन तमाम लोगों की तरह लगा जो मुश्किल के इस वक्त में घिर कर अपना संयम खो रहे हैं। बात संभालते हुए मैंने कहा, मेरा इरादा ऐसा बिल्कुल नहीं था। मैं तो यह जानना चाह रहा था कि तालाबंदी खुलने के बाद एक माह में बाज़ार के क्या हाल है ? वो कहने लगा, इस एक माह में हमने जितने दर्द सहे और अब भी सह रहे हैं, उतने दर्द एक साथ पहले कभी नहीं सहे।

वह अपनी दास्तान सुनाने लगा, तालाबंदी खुलने के बाद जब मैंने अपनी दुकान शुरू की तो अगले ही दिन दुकान मालकिन का फरमान आ गए दो महीने का किराया जमा करो। उन से विनती की कि अभी सब किराया माफ कर रहे हैं। आप भी किराया माफ़ कर कृपा करें। वे नहीं मानी। फिर निवेदन किया कि इसमें कुछ रियायत तो दें क्योंकि दो महीने से कुछ कमाया नहीं है। वह इस पर भी राजी हुई नहीं हुई। फिर आग्रह किया कि धीरे-धीरे इन दो महीनों का किराया चुका दूंगा, मगर उन्हें यह भी मंजूर नहीं था।

इन बातों में एक सप्ताह तो निकल गया। फिर एक दिन मकान मालकिन अपने हाथ में ताला लिए आ गई और कहने लगी कि आज अगर किराया नहीं दिया तो दुकान खाली कर देना। यह ताला लगाऊंगी। उनकी यह बात सुन मेरे तो पैरों तले ज़मीन खिसक गई। घर चलाने का यह एक ही तो सहारा है। घर में पांच लोगों का पेट इसी से पलता है। यह भी चली जाएगी तो क्या करूंगा। सब दूर हाथ-पैर मारे। सभी ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि इस वक्त सहायता करने की स्थिति में नहीं हैं। मजबूर होकर बाज़ार से ब्याज पर पैसे लेने पड़े। ब्याज भी दस फ़ीसदी। राशि लाकर मकान मालकिन के हाथों में रखी तब उन्हें संतोष हुआ। तब कहीं जाकर इस दुकान में मैं आज आपको दिख रहा हूँ।

अब यह कर्ज़ा कब उतरेगा मुझे नहीं पता और जब उतरेगा तब तक ब्याज कितना बढ़ जाएगा यह भी कौन जाने? इसके बाद बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई। वे कॉपी किताब लाने की ज़िद कर रहे हैं। अब उसके लिए व्यवस्था करनी है। थोड़े दिन में बच्चों के स्कूल वाले भी फीस मांगेंगे। उसका भी इंतज़ाम करना है। इसके लिए फिर मुझे कर्ज़ लेना पड़ेगा। कर्ज़ के बाद कर्ज़ के दलदल में मैं तो धंसता ही जा रहा हूं।

उसने जब अपना हाल बताया तो लगा कि उसके जैसे कितने ही मेहनतकश लोगों की ज़िंदगी आज कर्ज़ के दलदल में फंसती जा रही है। कर्ज़ में घिरे लोगों द्वारा आत्महत्या किए जाने की ख़बरें सचेत भी कर रही है और चिंतित भी। कर्ज़ के दलदल में फंसते जा रहे ये लोग न जाने अब जीवन की तालाबंदी से कब मुक्त हो पाएंगे?

🔲 आशीष दशोत्तर

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