बेख़बर

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🔲 आशीष दशोत्तर

‘देखिए यह अख़बार क्या कह रहा है।’ उन्होंने मेरे सामने अख़बार पटकते हुए कहा। मैंने अख़बार देखा और उससे पूछा कि आप किस ख़बर की बात कर रहे हैं?
वे कहने लगे, यही जो कह रही है कि लोगों में भय बढ़ रहा है , अवसाद उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है। एक डर लेकर वे जी रहे हैं। मैंने कहा, इसमें आश्चर्य करने वाली क्या बात है। यह तो आप भी देख रहे हैं।

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वे कहने लगे आश्चर्य की नहीं, यह चिंता की बात है। हम एक और कह रहे हैं कि संक्रमण से हम मुक्त होते जा रहे हैं। सारी ज़िम्मेदारी आम लोगों पर छोड़ दी गई है। आम आदमी इस संक्रमण से बेख़बर नज़र आ रहा है। किसी तरह की एहतियात नहीं बरत रहा है। हर दिन संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में आखिर कब तक गुज़ारा होगा।

मैंने उन्हें दिलासा देते हुए कहा, यह सब अब हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है इसलिए इसमें अधिक गंभीर होने की आवश्यकता नहीं है। ज़रूरत सिर्फ सावधानी बरतने और सुरक्षित रहने की है। वे कहने लगे, यही तो चिंता की बात है। लोग बाज़ार में जिस तरह से घूम रहे हैं ,जिस प्रकार उत्सव मना रहे हैं, उसे देखते हुए तो नहीं लगता कि यह डर हमारे बीच से विदा लेगा। दूसरी तरफ अवसाद में , कर्ज़ के कारण और परेशान होकर लोग आत्महत्या तक करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में क्या आपको बेचैनी नहीं होती।

मैंने कहा बेचैनी क्यों नहीं होती? आख़िर हर कोई आपकी ही तरह इंसान है। सभी की बेचैनी अपनी जगह है लेकिन हालात अपनी जगह। इसलिए आप अधिक तनाव डालें और इसे अपने जीवन का हिस्सा मान लें। वे इस बात से भी संतुष्ट नहीं हुए। कहने लगे, कहने को संक्रमण काल खत्म हो रहा है मगर आम आदमी इसमें घिरते जा रहे हैं। दिन-प्रतिदिन उसकी चिंता बढ़ रही है। आंकड़ों में कोरोना से संक्रमित व्यक्ति निरंतर स्वस्थ हो रहे हैं लेकिन एक डर जो लोगों के दिलों में बैठ रहा है, इस पर किसी का ध्यान नहीं है।

इतना ही नहीं कोरोना को लेकर कई तरह की भ्रांतियां लोगों में फैली हुई है जैसे कि कोरोना हवा के साथ फैलता है या कि हर आने वाले व्यक्ति कोरोना अपने साथ ला रहा है। इस तरह की ग्रंथियों से आम आदमी का जीवन बहुत मुश्किल हो गया है। हाल हो गए हैं कि लोगों को अपने ही घर के लोगों पर विश्वास नहीं रहा है।अविश्वास का वातावरण निर्मित हो गया है। लोगों के बीच एक दीवार बन गई है। हर कोई दूसरे को डर और अनजानी नज़रों से देख रहा है। इन परिस्थितियों में घिरे हम किस कल की उम्मीद में जी रहे हैं।

उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ साफ पढ़ी जा सकती थी। एक अकेले वे ही नहीं, हर तरफ कई चेहरे इस वक्त आपको ऐसे दिख जाएंगे जिनके माथे पर इस तरह की चिंता की लकीरें देखने को मिलेगी। अपनी लापरवाही को ओढ़े हकीक़त से बेख़बर लोग क्या ऐसे लोगों के चेहरे पर चिंता की लकीरों को कभी पढ़ने की कोशिश करेंगे।

🔲 आशीष दशोत्तर

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