शख्सियत : तीसरे विश्वयुध्द की आहट के बीच कविता के लिए हालात मुश्किल

अत्यंत संवेदनशील और सशक्त कवयित्री दिव्या भट्ट का कहना

नरेंद्र गौड़

’आज हम तीसरे विश्वयुध्द की आशंका के बीच भयानक परिस्थितियों से गुजर रहे हैं। दूसरी तरफ हवा में जहर घुलता जा रहा है। यही सब चलता रहा तो एक दिन स्वांस तक लेना दूभर हो जाएगा। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा के बाद इंदौर, भोपाल और रतलाम जैसे अनेक शहर वायु प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं। वहीं महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, बलात्कार जैसी स्थितियां किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकती हैं। ऐसे में कविता सहित साहित्य की तमाम विधाओं के लिए यह समय चुनौतियों से भरा है। रचनाकार अपने समय से निरपेक्ष भला कैसे रह सकता हैं?’

संवेदनशील और सशक्त कवयित्री दिव्या भट्ट

यह बात अत्यंत संवेदनशील और सशक्त कवयित्री दिव्या भट्ट ने कही। इनका कहना था कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने युक्रेन को 300 किमी रेंज की मिसाइलों से रूस पर हमले की जो मंजूरी दी है, उससे विश्वयुध्द की आशंका बढ़ गई है। इसके चलते नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड ही नहीं दुनिया के अनेक देश प्रभावित होंगे। तेल के दाम बढ़ने से महंगाई और बढ़ेगी। यहां सवाल उठता है कि ऐसी परिस्थितियों से क्या कविता सहित साहित्य की अन्य विधाएं प्रभावित नहीं होंगी? कविता लिखने के लिए शांति पूर्ण माहौल होना बहुत जरूरी है। उथल- पुथल का वातावरण कविता की बेहतर जमीन नहीं कही जा सकती है।

हताशा के गहराते समय में तर्क का सहारा

एक सवाल के जवाब में दिव्या जी ने कहा कि मध्यकाल में मुगलों के समय भी कविता के लिये बेहतर परिस्थिति नहीं थी और भक्ति रचनाएं कवियों का एक तरह से रचनात्मक पलायन ही था। किसी ने सही कहा है कि जब भावना साथ छोड़ने लगे यानी हताशा गहराने लगे तो तर्क का सहारा लेना होता है और जब तर्क से भी काम नहीं चले तो भावनाओं को समझना होता है, रचनाकारों के समक्ष आज भी यह सूत्र बचा हुआ है।

मनुष्य का सर्वापरि गुण है कि वह हारता नहीं

दिव्या जी का कहना था कि मनुष्य का सर्वोपरि गुण यह है कि वह कभी हारता नहीं। कठिन से कठिन समय में मनुष्य की मेघा उसे रास्ता दिखाती है। मनुष्य की चेतना का अभी तक का विकास विपरित परिस्थिति के कारण हुआ है। वाल्मीकी के अंतर में उठे ज्वार भाटे ने रामायण को जन्म दिया। महाभारत के सबसे कठिन मोड़ पर जबर्दस्त किंकर्तव्यविमूढ़ता के क्षणों में गीता का जन्म हुआ। एक सवाल के जवाब में दिव्या जी ने कहा कि मुझे लगता है सदी के इसी दौर में एक नये दर्शन का जन्म होगा। विश्वभर की स्थितियां एक नये दर्शन की पृष्ठभूमि का आभास दे रहीं हैं। यह कोई आध्यात्मिक भविष्यवाणी या रहस्यात्मक पूर्वाभास नहीं बल्कि विश्व परिदृश्य के जटिल यथार्थ पर आधारित पूर्वानुमान है।

पिता स्वयंप्रकाश जी की यादें, धरोहर

रतलाम में स्व. श्री स्वयंप्रकाश भट्ट तथा श्रीमती मंजुला जी के यहां जन्मी दिव्या जी फाइनेंस और ह्यूमन रिसोर्स विषय में एमबीए करने के बाद इंदौर में सेवारत हैं। इनकी आरंभिक शिक्षा रतलाम हुई और अपने पिता की स्मृतियों को जीवंत बनाये रखने के लिए इन्होंने अपना उपनाम ’स्वय’ रखा है। ज्ञात रहे कि स्वयंप्रकाश जी अपने समय के सशक्त रचनाकार थे। उनका नाम आज भी रतलाम के साहित्य प्रेमी बड़े आदर तथा सम्मान के साथ लेते हैं। दिव्या जी की कविताएं अनेक साझा संकलनों प्रकाशित हो चुकी हैं, इनमें  नेटल्स पब्लिकेशन से प्रकाशित साझा संकलन ’जिंदगी के फसाने’ में कविता ’दीप जले’, साझा संकलन ’मधुर संगम’ में कविता ’तुम स्त्री जात हो’ आदि प्रमुख हैं। इनकी कहानियां भी नेटल्स पब्लिकेशन से प्रकाशित साझा संकलनों में छपी हैं जिनमें उल्लेखनीय है ’तजुर्बा जिंदगी का’ में कहानी ’ऋण’। फ्लोरेंट पब्लिकेशन से छपी ई-पत्रिका ’साहित्य दर्शिका में इनकी एक चर्चित कहानी ’डिजाइनर दीये’ देखी जा सकती है।

रस छंद अलंकार केंद्रित रचनाएं

दिव्या जी का कहना है कि इन्होंने आधुनिक के बजाये पुराने कवियों को अधिक पढ़ा और समझा है। यही कारण है कि इनकी कविताओं पर उनका गहरा प्रभाव भी पड़ा और कई रचनाएं छंदबध्द हैं।  गीत रचना के समय उपनाम ’स्वयं’ देना इन्हें पसंद है। अपनी रूचियों के बारे में बताया कि रंगोली बनाना, मेंहदी रचाना, क्रोशिया के रंग बिरंगे धागों से उलझना अच्छा लगता है। इनका मानना है कि लेखन इनके जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है और लिखते वक्त इन्हें ऐसा लगता है जैसे अपनी भावनाओं के बजाये स्वयं को ही व्यक्त कर रही हैं-
बहुत कुछ देखा
क्या-क्या बताएं?
जीवन यात्रा कहे
अनंत कथाएं।

दिव्या भट्ट की चुनिंदा कविताएं


मधुमास

पर्वत पठार चलती बयार
पुष्प की कतार, लगी हर द्वार
करे है श्रृंगार धरती अपार
गया है शिशिर, हो वायु रुचिर
महक मदिर , आए घिर- घिर
रश्मि धरा गिर भगाए तिमिर
देख मधुमास, बढ़े है उल्लास
सूर्य का प्रभास बढ़ाए उजास
बुझे सब प्यास, खिले सब आस
कोयल की कूक, कच्ची – सी ये धूप
लगे है अनूप प्रकृति का रूप
धरे है स्वरूप् जन अनुरूप
मधु हर छोर खिले पोर- पोर
नाचे मन मोर पंछी करे शोर
बसंत की डोर, खींचे ’स्वयं’ ओर।

आ गई है भोर

रश्मिरथ आरूढ़ होकर
आ गई है भोर
फिर बिखेरे है उजाला
भूमि पर चहुँ ओर
पूर्व से उठता दिवाकर
कर रहा हुँकार
रात्रि के तम को चुराए
भोर की ललकार
भोर की बेला सुहानी
खिल उठे हैं फूल
गंध से वातावरण को
कर रहे अनुकूल
रात्रि को सोई कली अब
जागती बन फूल
ओस पुष्पों को पखार
छू न पाए धूल
मंद किरणें दौड़ आईं
अब धरा के द्वार
जाग कर स्वागत करे है
भूमि का परिवार
शांति का अनुभव अनोखा
दे रहा आराम
नित्य उजली सी किरण का
काम ये निष्काम
गूँजने लगता गगन में
नभचरों का नाद
खोल अपने पंख उड़ते
नित्य नभ से वाद
खग विहग कलरव करे है
ज्यों उठे है हूक
भोर में लगती मधुर सी
कोयलों की कूक
मंदिरों से गंध आए
भोग, बत्ती, धूप
प्रार्थना सब भक्त करते
ईश भक्ति अनूप।

हिंदी के मीठे बोल

मीठी वाणी बोलिए, मुख में मिसरी घोल
मीठे शब्दों से भरे, हिंदी के हर बोल
आंग्ल कठिन भाषा बने, सब इससे अनभिज्ञ
इसमें गच्चा खा रहे, भले मनुज हो विज्ञ
सरल सुगम भाषा कहो, अपने दिल को खोल
मीठे शब्दों से भरे, हिंदी के हर बोल
निर्मल हिंदी बोल हैं, कर इसमें संवाद
शब्द विदेशी ठूँस कर, नहीं करो बर्बाद
हिंदी भाषा शुद्ध हो, करो न इसमें झोल
मीठे शब्दों से भरे, हिंदी के हर बोल
हिंदी में हर भावना, पहुँचे मन के पार
बातचीत से खोल दे, बंद सभी मनद्वार
अपना हिंदी को सदा, बोली ये अनमोल
मीठे शब्दों से भरे, हिंदी के हर बोल।

आशाएँ क्या कहती हैं?

उठ जाग, देख इस प्रभात में
किरणें जग में बल भरती हैं
कानों में चुपके से आकर
सुन, आशाएँ क्या कहती हैं?
इक टूटे से सपने को तू
अब तक क्यों पाले बैठा है?
भूली बिसरी यादों से तू
इतना ज्यादा क्यों ऐंठा है?
भीगी आँखें खोल देख ले
आशा की नदियाँ बहती हैं
कानों में चुपके से आक,
सुन, आशाएँ क्या कहती हैं?
सीमित, संकुचित मस्तिष्क के
विचार का विस्तार बढ़ा दे
डूबे, खोए अपने मन को
उगते सूर्य जैसा चढ़ा दे
ऊँचाइयों पर जैसे ये
नन्हीं आशाएँ उभरती हैं
कानों में चुपके से आकर
सुन, आशाएँ क्या कहती हैं?
टेढ़ी – मेढ़ी सड़कों पर भी
आगे बढ़ने की आस रहे
गंतव्य तक पहुँचने की गर
तुझ में इक सच्ची प्यास रहे
अपनी सब हिम्मत साथ रखें
तभी आशाएँ निखरती हैं
कानों में चुपके से आकर,
सुन, आशाएँ क्या कहती हैं?

पिता की पंचम पुण्यतिथि पर

पिता का साथ छूटे
हार का ज्यों हीर टूटे
याद घिरकर यूँ सताए
नैन अब आँसू बहाए
हैं चरम पर वेदनाएँ
क्षुब्ध होती भावनाएँ
कौन फिर मन में समाए?
पुष्प जैसे याद आए
घर बदल देता सजावट
पर न भूले मुस्कुराहट
आज भी घर है सुगंधित
ज्यों निकट अब भी उपस्थित।

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