मजबूरी और कर्ज़

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🔲 आशीष दशोत्तर

इस कर्ज़ की उम्मीद उन्होंने कभी नहीं की थी। कभी यह सोचा ही नहीं था कि उन पर कभी ऐसा कर्ज़ भी चढ़ सकता है ,जिसको चुकाते- चुकाते वे हर बार यह सोचेंगे की यह क़र्ज़ आखिर चढ़ा कैसे ? अपनी ज़िंदगी में उन्होंने कुछ कर्ज़ लिए ज़रूर, लेकिन वे किसी आवश्यक काम से। जब कभी कर्ज़ चुकाया तो कभी ऐसा लगा ही नहीं कि यह कर्ज़ मैंने ग़लत लिया था। लेकिन संक्रमण काल में उन पर 45 हजार रुपए का कर्ज़ चढ़ गया और वह भी ऐसे काम के लिए जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। इस कर्ज़ के बारे में सोच कर भी वे सिहर जाते हैं।

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इस कर्ज़ की दास्तान सुनाते हुए उन्होंने बताया कि लाकडाउन के पहले चरण के बाद जब लोगों को अपने घर जाने की छूट मिलने लगी तब उन्होंने अपने परिवार के साथ अपना पैतृक गांव जाने के बारे में विचार किया। इसके लिए अनुमति और उसके बाद निजी साधनों से वहां तक पहुंचना काफी मुश्किल और महंगा भी था। लेकिन परिवार वालों ने भी सलाह दी कि ऐसे समय में अलग रहना ठीक नहीं है। घर ही आ जाओ। तो उन्होंने बड़ी हिम्मत कर अपने एक मित्र से घर जाने के लिए सहायता करने को कहा।

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मित्र की सहायता से उन्होंने घर जाने की अनुमति प्राप्त कर ली। जाने के लिए निजी वाहन की व्यवस्था की। बड़ी मुश्किल से वाहन चालक ले जाने के लिए तैयार हुआ। ज़ाहिर सी बात थी, ऐसे समय में जाने के लिए उन्हें अतिरिक्त राशि भी खर्च करना पड़ी और यह यात्रा पंद्रह हज़ार में तय हुई। अपनी पत्नी और बच्चे के साथ वे यहां से निकल गए। पूरे सफर में उनके साथ सड़कों पर पसरा सन्नाटा और भीतर बैठा भय था।

सफर में उन्हें बमुश्किल कहीं रुकना पड़ा। मगर कोई परेशानी नहीं हुई। जहां उन्हें पहुंचना था उस जिले से दो ज़िले पहले तक तो वे बढ़ते रहे मगर इसके बाद उन्हें रोक दिया गया। यह कहते हुए कि यहां से आगे किसी को प्रवेश नहीं दिया जा रहा है। उन्होंने अपने साथ लाए अनुमति पत्र बताए तो उन्हें कहा गया कि इस अनुमति को हम नहीं मानते । आप यहीं रुके रहें या वापस लौट जाए। तमाम कोशिशों के बाद जब कुछ नहीं हुआ तो वे लौट कर फिर यहीं आ गए। वाहन चालक को तय राशि देना थी, उन्होंने दी।

यह उनके लिए ‘लौट के बुद्धू घर को आए ‘ जैसी स्थिति थी। मगर घरवालों की ज़िद कायम थी। जहां उन्हें रोका गया था वहां के साथियों से तलाश की तो पता लगा लगा कि अब स्थिति ठीक होने लगी है, और यहां से आने-जाने पर अनुमति वालों को रोका नहीं जा रहा है। उन्होंने फिर हिम्मत कर वही प्रक्रिया अपनाई। फिर से वाहन किया। अनुमति प्राप्त की और निकले। इस बार उन्हें जिस जिले में पहुंचना था उसकी बॉर्डर पर ही रोक लिया गया। वहां से उन्हें घर पहुंचने की इजाज़त नहीं दी गई। कारण यह बताया गया कि अनुमति में यह कहीं नहीं लिखा है कि आप अपने पैतृक घर रहने के लिए जा रहे हैं। उन्होंने तमाम प्रयास किए। वहाँ रहने वाले उनके परिवार के लोगों ने भी प्रयास किए। मगर कोई बात नहीं बनी। लिहाजा उन्हें अपने जिले के मुहाने से लौटकर फिर यहीं आना पड़ा। इस बार फिर पंद्रह हज़ार का फटका लगा।

थक हार कर उन्होंने यह तय कर लिया कि अब घर जाने का कोई प्रयास नहीं करेंगे और यहीं रहेंगे। दूसरी बार जब लॉकडाउन की अवधि फिर से बढ़ी और यह संभावना लगने लगी कि स्थिति और ख़राब हो सकती है। कई तरह की ख़बरें आ रही थीं। घर वालों की ज़िद अपनी जगह कायम थी। उन्होंने फिर से अनुमति ली और वाहन किया। यहां से निकल कर इस बार वे अपने पैतृक गांव पहुंच गए।

इस इस पूरी प्रक्रिया में उनके पैंतालीस हज़ार रुपए खर्च हो गए। वे खर्च को लेकर इतने ज्यादा परेशान नहीं हैं, लेकिन परेशान इस बात को लेकर हैं कि यह राशि उन्होंने अपने मित्रों से उधार ली थी। उन पर बिना किसी कारण इतना बड़ा कर्ज चढ़ गया, जिसकी उन्हें कोई कल्पना ही नहीं थीं।

जब वह अपने साथ गुज़रा यह वाकया सुना रहे थे, तो यह भी कह रहे थे कि मैंने किसी से यह बात इसलिए नहीं कही कि लोग मुझ पर हसेंगे कि इतना खर्च कर यह बेवकूफी करने की क्या जरूरत थी। मगर वह वक्त ही ऐसा था, जिसमें मुझे मजबूर होकर यह करना पड़ा। उनकी दास्तान सुन मुझे लग रहा था, ऐसे कितने ही लोगों पर इस तरह के कर्ज़ चढ़ चुके होंगे, जिन्हें उतारते- उतारते उनकी ज़िंदगी के अर्थ ही बदल जाएंगे।

🔲 आशीष दशोत्तर

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