ज़िम्मेदारी

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🔲 आशीष दशोत्तर

“मुसीबत से पार पाना किसी एक का काम नहीं। यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है। जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक दूसरों को नहीं समझा सकते, लेकिन भैया इसे सुनता कौन है ? सुन भी लेता है तो मानता कौन है ? और मान भी लेता है तो जब अपनी बारी आती है तो स्वीकारता कहां है”

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उन्होंने यह बात काफी ऊंची आवाज़ में कही थी, इसलिए मुझ तक भी पहुंची। प्रातः भ्रमण के दौरान कुछ दूरी पर आगे चल रहे है वे अपने मित्र से बतिया रहे थे। उनकी बातों से लग रहा था कि वे या तो इस अवस्था से नाखुश है या व्यवस्था से। मैं पीछे चलते-चलते उनकी सारी बात सुन रहा था। उनकी बात में आ रहे संदर्भों को समझने की कोशिश भी कर रहा था।

वे कह रहे थे, ज़िम्मेदारों को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास न जाने कब होगा। अभी कहीं अख़बार में पढ़ा की वे जिम्मेदार जिन्होंने इस वातावरण में लोगों से भीड़ में न जाने ,भीड़ न करने, भीड़ से दूर रहने की सलाह दी है , वही भीड़ में उपस्थित हो रहे हैं। वे किसी ने किसी आयोजन में उपस्थित हो रहे हैं। वे ही किसी आयोजन में अतिथि बन रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों?

उनके साथ चल रहा उनका साथी कह रहा था, यह सब तो चलता ही है। इसे कोई नहीं बदल सकता। ज़िम्मेदार अगर ज़िम्मेदारी से अपने काम को कर ले तो क्या मजाल कि दूसरे न करें। उन दोनों की बातों में जो संदर्भ उपस्थित हुए उसने कई सारे मुद्दों पर सोचने के लिए विवश कर दिया।
वे आम आदमी हैं और यदि आम आदमी ज़िम्मेदारों के प्रति ऐसा नज़रिया रखता है तो यकीन मानिए कि हर कोई लगभग इसी तरह का नज़रिया रखता होगा। नियम बनाने वाले नियम तोड़े। व्यवस्था चलाने वाले अव्यवस्थित रहें तो आम आदमी का निराश होना स्वभाविक है।

संक्रमण काल में व्यवस्था की अनदेखी से उपजी ऐसी निराशा कई लोगों में देखी जा रही है। हर कोई यह मान कर चल रहा है कि वह जो कुछ कर रहा है, सही है। जो उसे नहीं करना चाहिए, उसे भी कर रहा है और यह मान रहा है कि मेरे अकेले से करने से क्या होगा? मगर ऐसी सोच ठीक नहीं है, बात बहुत सामान्य है,मगर गंभीरता से विचार की मांग करती है। ऐसी सोच को वे ज़िम्मेदार ही बदल सकते हैं जो अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति गंभीर नहीं हैं।

🔲 आशीष दशोत्तर

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