डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला
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दुर्गा कहो मुझे या चण्डी ,
अबला कहो या सती सावित्री ,
सब तुम्हारी इच्छा ।

याद करो वे दिन
जब मैं कुलाँचे भरती थी
ऊँची पहाड़ियों पर ,
सिंहिनी की तरह
सोती थी अकेली गुहा में
और तुम सिर झुका कर
खड़े रहते थे मुँहाने पर ।

तुम्हारे बच्चों को
सिंह का मुँह फाड़ कर दाँत गिनना
सिखाया मैंने ,
मौत के मुँह से खींच कर
लाई हूँ तुम्हें कितनी बार ,
मै सावित्री यूँ ही नहीं ।

जब मैं निकलती थी धनुष तान कर ,
तब आगे – पीछे कुछ नहीं सोचती थी ।
कितने महिषासुर मारे मैंने ,
कितने शुम्भ – निशुम्भ ,
कितने मधु – कैटभ ,
कहीं कोई हिसाब नहीं ।

काली कहो मुझे या रुद्राणी ,
या कहते फिरो नरक का दरवाजा ,
सब तुम्हारी इच्छा ।

रावण को राम ने नहीं मारा ,
मैंने मारा था ।
याद कर लो ,
शक्तिपूजा की वह कालरात्रि ।

सदियों से तुम भ्रम में पड़े हो
कि तुम मेरे परमेश्वर , मेरे स्वामी ,
मैं दबेलदार तुम्हारी ।
जब भी जाल समेटा है मैंने ,
कितने फीके , असहाय ,
लाचार लगते रहे हो ।
मुझे अपना भोग समझ कर
पाप के गहरे गर्त में डूब चुके हो ।

दानवों से लड़ने के लिये
उतरी हूँ कई बार अंधेरे में ,
बाहर आई हूँ
तो सूरज को हथेली पर रख कर ।

रुदाली कहो मुझे या कुलच्छिनी ,
या जो जी में आये ,
सब तुम्हारी इच्छा ।

मैं तुम्हारी वस्तु नहीं ,
तुम्हारे पैरों कुचली हुई दूर्वा नहीं ।
माता हूँ , दुहिता हूँ , भगिनी हूँ ,
तुम्हारे हृदय की साम्राज्ञी हूँ ,
प्रेम की पूँजी हूँ ,
नियति की अकेली कुञ्जी हूँ ।

मेरे हाथ में जब तक
युग की दीपशिखा है ,
तब तक तुम्हारे मुख पर उजास ।
यूँ तो तुम विवर्ण हो ,
और तुम्हारे होने का
अकेले कुछ भी अर्थ नहीं ।

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