🔲 नरेंद्र गौड़

आज हम अत्यंत संकटपूर्ण समय में जीने को मजबूर हैं, जहां सत्तापक्ष की कुटिल चालें, झूठ, फरेब और धर्म के नाम पर आदमी को आदमी से लड़ाने वाली ताकतें काम कर रही हैं। वहीं वैेश्विक शक्तियां हथियारों की होड़ और युध्द के उन्माद में गाफिल हैं। इधर संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था टूट रही हैं, लोग दूरियों के पड़ाव तय करते हुए अनंत यात्रा के लिए निकल पड़े हैं, ऐसे निर्मम समय में कविता, कहानी, नाटक, चित्रकला जैसी माववीय अभिव्यक्ति की तमाम विधाएं बहुत जरूरी हो चली हैं। एक इंच मुस्कान की भी कीमत समझ में आने लगी है और ऐसी ही मुस्कान और खुशी को तलाशने के लिए कानपुर निवासी पत्रकार एवं कवि अनिल चतुर्वेदी कविता की दुनिया में आए हैं।

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इनका कहना है कि युवा अवस्था में कविता आपको संघर्ष करने के लिए ऊर्जा देती है और अधेड़ तथा बुढ़ापे में टूटने, खरोंच लगने से बचाए रखती है। इनका मानना है कि ’मानवीयता के विरूध्द होते जा रहे समय में कविता की जरूरत आज जितनी है, उतनी पहले कभी नहीं रही।’ एक सवाल के जवाब में इनका कहना था कि ’भाषा आसमान से नहीं टपकती है’। किसानों के आंदोलन को लेकर पूछे गए सवाल के उत्तर में अनिलजी ने कहा कि सामाजिक सरोकारों से जुड़े देश के अधिकांश लेखक किसानों के साथ हैं। देश में जिस कार्पोरेट खेती की बात की जा रही है, उसका उद्देश्य चंद बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाना है। सरकार का खजाना खाली हो चुका है, ऐसे में वह किसानों के खेतों का सौदा करना चाहती है।

कविता और पत्रकारिता के बीच अटूट रिश्ता

अनिलजी का कहना है कि यह कितनी हास्यास्पद बात है कि पत्रकारिता के लिए इंटव्यू के समय अनेक बार वाहियात किस्म का सवाल पूछा जाता है कि आप कविता तो नहीं लिखते? यानि मान लिया जाता है कि कविता लिखने वाला व्यक्ति अच्छा पत्रकार नहीं बन सकता, जबकि माखनलाल चतुर्वेदी, पं.बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ कवि होने के साथ ही प्रखर पत्रकार भी थे। उनकी कलम की ताकत ने तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत की धज्जियां बिखेर दी थी। इनके संपादकीय आज भी मील के पत्थर साबित हुए हैं। अनेक कवियों ने साहित्यिक पत्रिकाओं का बरसों संपादन भी किया है। दरअसल कवि यदि पत्रकार है तो उसकी भाषा लयात्मक और गहराई लिए होती है। वह शुष्क के बजाए असरदार आलेख लिखने का धनी होता है। उसकी भाषा आलंकारिक होती है और रिपोर्टिंग के समय वह अन्याय अत्याचार और जुल्म का पक्षधर नहीं होता। उसका लिखा बार-बार पढ़ा जाता है, लेकिन आज हालत बदल चुके हैं, अब तो मीडिया में बैठा तथाकथित पत्रकार सत्तापक्ष का गुलाम हो चुका है। रवीश कुमार जैसे चंद पत्रकार इसके अपवाद हो सकते हैं।

पत्रकारिता के क्षेत्र में कीर्तिमान

उत्तरप्रदेश में जिला गोंडा के ग्राम मोकलपुर में जन्में अनिलजी ने बीएससी के बाद इतिहास में एमए किया। इसके बाद आपने पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। लगभग 25 वर्षो तक आप अमर उजाला, स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण, जनसंदेश, स्वतंत्र वार्ता जैसे स्तरीय अखबारों में उप संपादक, कार्यकारी संपादक, संवाददाता, समाचार संपादक जैसे पदों पर कार्यरत रहे। इसके बाद 2000-2004 तक भारत सरकार की परियोजना सर्वशिक्षा अभियान में मीडिया सलाहकार रहे। अनिलजी 90 के दशक से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। इस दौरान आपकी ’जिंदगी और जिंदगी का उद्देश्य’ नाम से पुस्तक प्रकाशित हुई जो कि पाठकों के बीच खासी चर्चित रही। आपकी रचनाएं अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।

नामवरजी से अविस्मरणीय मुलाकात

इनका कहना है कि कोई भी भाषा आसमान से नहीं टपकती है। पहले वह स्थानीय बोली के रूप में आकार ग्रहण करती है और और बाद में उसी को मानकीयकृत कर भाषा के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। जाहिर है दुनिया की सभी भाषाएं बोली का ही विकसित रूप हैं। भाषा का जन्म मनुष्य की रोजमर्रा की जरूरतों, एक दूसरे की सामाजिक एवं व्यावहारिक संदर्भो में भावनाओं, विचारों के आदान प्रदान के लिए हुआ था। गूढ़ विचारों संवेदनाओं को एक दूसरे तक संप्रेषित करने में मनुष्य को हमेशा ही दिक्कतों से गुजरना पड़ा। गूढ़ भावों तथा विचारों को व्यक्त करना कठिन काम था, इसीलिए कला के विभिन्न माध्यम वजूद में आए। कविता ऐसा ही कला माध्यम है। अनिलजी का कहना है कि 90 के दशक में जब वह इलाहबाद विवि से स्नातक कर रहे थे, तभी से कविता लिखने की शुरूआत हुई। अपने आप को अभिव्यक्त करने से एक प्रकार का सुकून मिलता है। उसी दौरान देश के जानेमाने आलोचक स्व. नामवरसिंह से मुलाकात हुई। जब अपनी कविताएं दिखाई तो उन्हें बहुत पसंद आई। वह बोले कि इनका छपना बहुत जरूरी है। बस तभी से रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजना शुरू कर दिया।

चुनिंदा कविताएं

किसान

मिट्टी उसकी दवा है
मिट्टी उसकी दुआ है
‘वो’ समझ रहे कि वो गधा है
जो मिट्टी से बंधा है
सच तो यह है कि
धरती का बोझ उसी पे लदा है
बोझ से वह दबा है
फिरभी उसे फेंकता नहीं
विद्रोह के लिए
रेकता नहीं
यह एक सवाल है
कोई मुद्दा नहीं है
मूल्यों से भी इसका कोई वास्ता नहीं है
शायद इसीलिए हमारी राजनीति में
इन सवालों से गुजर कर जाने का कोई रास्ता नहीं है
हम उम्मीद करते हैं कि वह विद्रोह करे
मगर वह ऐसा करता नहीं है
वह तो हमारा (अन्न)दाता है
हुकूमत की तरफ वह देखता नहीं है ।
शासक हितैषी है चंद पूंजीपतियों का
बेचारा किसान यह समझता नहीं है ।

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धीरे-धीरे

धीरे-धीरे सूखता है जख्म
धीरे-धीरे सृजन
धीरे-धीरे फूटती हैं कोपलें
आकार लेता है एक वृक्ष
धरती पर प्रस्फुटित होता है जीवन
बच्चा बनता है पिता
धीरे-धीरे गुजर जाता है बचपन
धीरे-धीरे उतरती है शाम
रीत जाता है दिन
धीरे-धीरे लोहे में लगती है जंग
धीरे-धीरे वेदना की आंच में पकती है रूह
धीरे-धीरे अंकुरित होता है प्रेम
धीरे-धीरे घिसटता है मजदूर का जीवन
और
अंत तक नहीं जुटा पाता अपना कफन
धीरे-धीरे सुलगती है चिता की अग्नि
धीरे-धीरे व्यतीत हो जाता है जीवन।

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अहंकार

उसने कटोरा आगे बढ़ा दिया
फिर क्षण भर मौन देखता रहा
धीरे से कुछ बड़बडाया भी
शायद वह याचना कर रहा था
उसने कटोरे में पड़े सिक्के भी खनकाए
पर
सामने वाले का ध्यान कहीं और था
उसने भिखारी की तरफ नहीं देखा
भिखारी का अहंकार सातवें आसमान पर
वह कुछ बुदबुदाया
फिर आगे बढ़ गया।

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शर्माती हुई स्त्री

एक शर्माती हुई स्त्री
इस कायनात की सबसे अप्रतिम
परिघटना है
वह शर्माती है
और क्षण-भर के लिए
यह पृथ्वी ठहर जाती है
सूर्य अपनी राह भटक जाता है
उसका शर्माना
सौंदर्य का अंतिम पैमाना है
बिना बादल के बारिश का होना
समंदर की लहरों का चांद से टकराना
इस सृष्टि की सबसे नायाब घटना है
एक स्त्री का शर्माना
बस इतना ही है
एक सृष्टि का होना
और उसका लय हो जाना।

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शाम का एक बिंब

लाल हो गया है आसमान
चू पड़ेगा अभी बादलों से रक्त
नहीं यूं ही
ऐसा होता है
ऐसा होगा
जरूर होगा
किसी सूरज की हत्या किए जाने के वक्त

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रात्रि

गहन अंधकार
सृष्टि है निस्तब्ध
मरसिया पढ़ रहे चांद औ सितारे
किसी सूरज की हत्या हो गई ।

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