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श्रीमद् भवगत गीता – अध्याय 4
ज्ञान-संन्यास योग

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हिन्दी पद्यानुवाद : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

अध्याय 4
( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )
श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥

भगवान बोले-
मैने पहले अमर योग यह विवस्वान को बतलाया
विवस्वान ने मनु को ,मनु ने इक्ष्वाकु को समझाया।।1।।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥1॥
1. I taught this imperishable Yoga to Vivasvan; he told it to Manu; Manu proclaimed it to
Ikshvaku.

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥

इस प्रकार से परंपरागत इसे राजर्षियों ने जाना
किंतु काल क्रम में विनष्ट हो,नही रह सका पहचाना।।2।।

भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया॥2॥

2. This, handed down thus in regular succession, the royal sages knew. This Yoga, by a long
lapse of time, has been lost here, O Parantapa (burner of foes)!

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥

वही पुराना योग आज है मैने तुझको बतलाया
क्योंकि तू मेरा परम मित्र है और ये मेरा मनभाया।।3।।

भावार्थ : तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है॥3॥

3. That same ancient Yoga has been today taught to thee by Me, for, thou art My devotee
and friend; it is the supreme secret

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥
अर्जुन ने कहा-
जन्म आपका अभी बाद का विवस्वान थे पहले के
तो फिर कैसे समझूँ बाते कही आपने ये उनसे।।4।।

भावार्थ : अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?॥4॥
4. Later on was Thy birth, and prior to it was the birth of Vivasvan (the Sun); how am I to
understand that Thou didst teach this Yoga in the beginning?

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
भगवान ने कहा-
मेरे तेरे जन्म अनेकों भूत काल में बीते हैं
मुझे याद हैं सारे,लेकिन तेरे ज्ञान में रीते हैं।।5।।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ॥5॥
5. Many births of Mine have passed, as well as of thine, O Arjuna! I know them all but thou
knowest not, O Parantapa!

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥

मैं अजन्म,अविनाशी आत्मा,सारे जग का ईश्वर हूँ
आत्म प्रकृति स्वाधीन शक्ति से ,अपना जन्म प्रकटता हूँ।।6।।

भावार्थ : मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ॥6॥

6. Though I am unborn and of imperishable nature, and though I am the Lord of all beings,
yet, ruling over My own Nature, I am born by My own Maya.

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥

जब जब धर्म हृास होता है तब तब खुद को सृजता हॅू
करने नाश अधर्म बढे का, जीवन लीला रचता हूँ।।7।।

भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥7॥
7. Whenever there is a decline of righteousness, O Arjuna, and rise of unrighteousness, then
I manifest Myself!

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

अच्छों की रक्षा करने को,दुष्टों को हटवाने को
समय समय पर रक्षा करने धर्म की, पाप मिटाने को।।8।।

भावार्थ : साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥

8. For the protection of the good, for the destruction of the wicked, and for the establishment
of righteousness, I am born in every age.

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

मेरे जन्म दिव्य कर्मो का, जो भी तत्व समझते हैं
अर्जुन ! देह त्याग वे मुझमें मिलते जन्म न धरते है।।9।।

भावार्थ : हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से (सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम
गति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्म को स्थापन करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। इसलिए परमेश्वर के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसार में बर्तता है, वही उनको तत्व से जानता है।) जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥9॥

9. He who thus knows in true light My divine birth and action, after having abandoned the
body is not born again; he comes to Me, O Arjuna

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥

राग-द्वेष भय क्रोध रहित वे,मुझमें ही मिल जाते हैं
बहुत ज्ञान तप से पवित्र हो,मुझे प्राप्त कर पाते हैं।।10।।

भावार्थ : पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं॥10॥

10. Freed from attachment, fear and anger, absorbed in Me, taking refuge in Me, purified by
the fire of knowledge, many have attained to My Being.

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ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

जो मुझ को जैसा भजते हैं उन्हें वही फल देता हूँ
मेरे पथ का पार्थ ! अनुगमन करे जो ,उनको सबंल देता हूँ।।11।।

भावार्थ : हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥11॥
11. In whatever way men approach Me, even so do I reward them; My path do men tread in
all ways, O Arjuna!

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥

कर्म सिद्धि अभिलाषा वाले देवों को जपते जग में
कर्मो से मानव जल्दी ही सिद्धि प्राप्त करते सब है।।12।।

भावार्थ : इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है॥12॥
12. Those who long for success in action in this world sacrifice to the gods, because success
is quickly attained by men through action.

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥

मैनें चार वर्ण गुण-कर्मो के अनुसार बनाये हैं
कर्ता हो भी पार्थ,अकर्ता के से गुण अपनाये हैं।।13।।

भावार्थ : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ
अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान॥13॥
13. The fourfold caste has been created by Me according to the differentiation of Guna and
Karma; though I am the author thereof, know Me as the non-doer and immutable.

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥

कर्म फलों की नहीं लालसा,इसमें लिप्ति न कर्मो में
जो यह बात समझता है,बह बंधता नहीं स्वकर्मो में।।14।।

भावार्थ : कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता॥14॥

14. Actions do not taint Me, nor have I a desire for the fruits of actions. He who knows Me
thus is not bound by actions.

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥

यही समझकर पूर्वकाल में मुनुज्ञओं ने कर्म किये
तू भी सब कर्म समझ यह निज जीवन उत्कर्ष लिये।।15।।

भावार्थ : पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर॥15॥

15. Having known this, the ancient seekers after freedom also performed actions; therefore,
do thou perform actions as did the ancients in days of yore.

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥

क्या है कर्म,अकर्म ओैर क्या, ज्ञानवान भी भ्रम में हैं
इससे तुझको समझाता हूँ क्या है शुभ औ” क्या कम है।।16।।

भावार्थ : कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू
अशुभ से अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा॥16॥
16. What is action? What is inaction? As to this even the wise are confused. Therefore, I
shall teach thee such action (the nature of action and inaction), by knowing which thou shalt be
liberated from the evil (of Samsara, the world of birth and death).

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥

समझ कर्म क्या क्या विकर्म है औ अकर्म क्या, क्या गति है
दैनिक व्यवहारों में,कर्मो की सच बड़ी गहन गति है।।17।।

भावार्थ : कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है॥17॥

17. For, verily the true nature of action (enjoined by the scriptures) should be known, also
(that) of forbidden (or unlawful) action, and of inaction; hard to understand is the nature (path) of
action.

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥

जो अकर्म में कर्म देखता ,कर्म में विकर्म का दृष्टा है
वह ही योगी है ,बुद्धिमान है,सही कर्म का सृष्टा है।।18।।

भावार्थ : जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है॥18॥

18. He who seeth inaction in action and action in inaction, he is wise among men; he is a
Yogi and performer of all actions.
( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा )

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥

समारंभ जिसके कर्मो का इच्छा ओै” संकल्प रहित
ज्ञानानल से भस्मित जिसके कर्म वही सच्चा पंडित।।19।।

भावार्थ : जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं॥19॥
19. He whose undertakings are all devoid of desires and (selfish) purposes, and whose
actions have been burnt by the fire of knowledge,-him the wise call a sage.

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥

फलासक्ति से दूर व्यक्ति जो निज कर्मो में तृप्त सदा
बिना किसी के आश्रय खुद जो करता कुछ वह नहि करता।।20।।

भावार्थ : जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता॥20॥
20. Having abandoned attachment to the fruit of the action, ever content, depending on
nothing, he does not do anything though engaged in activity.

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ॥

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जिसने फल की आशा त्यागी ,संयमित, भोग का त्याग किया
सब शारीरिक धर्म निभाया,जीवन को निष्कलुष जिया।।21।।

भावार्थ : जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता॥21॥
21. Without hope and with the mind and the self controlled, having abandoned all greed,
doing mere bodily action, he incurs no sin

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥

जो स्वप्राप्ति से तुष्ट द्वन्द से मुक्त ईर्ष्या रहित रहा
हार जीत में सम रह करते कर्म कभी न बद्ध हुआ।।22।।

भावार्थ : जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता॥22॥
22. Content with what comes to him without effort, free from the pairs of opposites and
envy, even-minded in success and failure, though acting, he is not bound.

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥

जो आसक्ति रहित ज्ञानी पर उपकारी जीवन जीता है
वही शांत चित्त ,सदाचार युत,आंनद अमृत पीता है।।23।।

भावार्थ : जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं॥23॥
23. To one who is devoid of attachment, who is liberated, whose mind is established in
knowledge, who works for the sake of sacrifice (for the sake of God), the whole action is dissolved.

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

यज्ञार्पण विधि ब्रम्ह,ब्रम्ह है हवन अग्नि भी ईश्वर है
इसी दृष्टि सब कर्म ब्रम्ह हैं,सुलभ उसे ब्रम्ह अक्षर है।।24।।

भावार्थ : जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं॥24॥
24. Brahman is the oblation; Brahman is the melted butter (ghee); by Brahman is the
oblation poured into the fire of Brahman; Brahman verily shall be reached by him who always sees
Brahman in action.

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥

कर्म योगी कई देवताओं के नाम यज्ञ कई करते हैं
ब्रम्ह अग्नि में कई यज्ञ का यजन निरंतर करते हैं।।25।।

भावार्थ : दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं। (परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।)॥25॥
25. Some Yogis perform sacrifice to the gods alone, while others (who have realised the
Self) offer the Self as sacrifice by the Self in the fire of Brahman alone.

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥

कोई श्रोत्रादि इंद्रियों को संयमाग्नि में करते यज्ञ
काई शब्दादि विषय हविष्य से इंद्रियाग्नि में करते यज्ञ।।26।।

भावार्थ : अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं॥26॥
26. Some again offer hearing and other senses as sacrifice in the fire of restraint; others offer
sound and various objects of the senses as sacrifice in the fire of the senses.

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥

कोई ज्ञान से जला आत्म संयम की अग्नि में इंद्रिय का
औ” प्राणों को कर्मों का करते है हवन सकल भय का ।।27।।

भावार्थ : दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं (सच्चिदानंदघन परमात्मा के
सिवाय अन्य किसी का भी न चिन्तन करना ही उन सबका हवन करना है।)॥27॥
27. Others again sacrifice all the functions of the senses and those of the breath (vital energy
or Prana) in the fire of the Yoga of self-restraint kindled by knowledge.

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥

कोई कठिन व्रत से या द्रव्य से , तप से यज्ञ करते संपन्न
कोई योगकर स्वाध्याय से ,ज्ञान से यति रखते संबंध।।28।।

भावार्थ : कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं॥28॥

28. Some again offer wealth, austerity and Yoga as sacrifice, while the ascetics of
self-restraint and rigid vows offer study of scriptures and knowledge as sacrifice

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥

कोई अपान में प्राणों का कोई औ” अपान का प्राणों में
कोई गति अपान,प्राणों की धरकर के प्राणायामों मे।।29।।

कुछ नियमित आहार से,प्राणों का प्राणों में करते यज्ञ
सभा जानने बाले यज्ञ के,पाप दूर करते है विज्ञ।।30।।

भावार्थ : दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार (गीता अध्याय 6 श्लोक 17 में देखना चाहिए।) करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥29-30॥
29. Others offer as sacrifice the outgoing breath in the incoming, and the incoming in the
outgoing, restraining the courses of the outgoing and the incoming breaths, solely absorbed in the
restraint of the breath.
30. Others who regulate their diet offer life-breaths in life-breaths; all these are knowers of
sacrifice, whose sins are all destroyed by sacrifice.

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यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥

यज्ञा शिष्ट अमृत भोजन पा , पाते हैं वे ईश्वर को
यज्ञ न करने वाले को जग नही स्वर्ग कहां तो नश्वर को।।31।।

भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?॥31॥
31. Those who eat the remnants of the sacrifice, which are like nectar, go to the eternal
Brahman. This world is not for the man who does not perform sacrifice; how then can he have the
other, O Arjuna?

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥

इस प्रकार कई यज्ञों का वर्णन मिलता है वेदों में
तू यह समझ कि तर जायेगा,सब होते इन कर्मो से।।32।।

भावार्थ : इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा॥32॥
32. Thus, various kinds of sacrifices are spread out before Brahman (literally at the mouth or
face of Brahman). Know them all as born of action, and knowing thus, thou shalt be liberated.

( ज्ञान की महिमा )

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥

द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ है अधिक सदा मंगलकारी
क्योंकि पार्थ! सब कर्मो का है अंत ज्ञान सब सुखकारी।।33।।

भावार्थ : हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥33॥

33. Superior is wisdom-sacrifice to sacrifice with objects, O Parantapa! All actions in their
entirety, O Arjuna, culminate in knowledge!

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥

नम्र भाव से प्रश्न अगर सेवा कर पूँछे जायेंगे
तत्व ज्ञान दर्शी गुरू,अर्जुन ज्ञान तुझे समझायेंगे।।34।।

भावार्थ : उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥34॥
34. Know that by long prostration, by question and by service, the wise who have realised
the Truth will instruct thee in (that) knowledge

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥

जिसे समझ फिर नासमझी का मोह न हेागा तुझे कभी
ब्रम्ह और निज रूप में देखेगा जग सकल को तू तब ही।।35।।

भावार्थ : जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा। (गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में देखना चाहिए।)॥35॥
35. Knowing that, thou shalt not, O Arjuna, again become deluded like this; and by that thou
shalt see all beings in thy Self and also in Me!

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥

सभी पापियों से भी ज्यादा पाप सदा जो करता है
वह भी पाप से बचने ज्ञान नौका से भव वह तरता है।।36।।

भावार्थ : यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा॥36॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
36. Even if thou art the most sinful of all sinners, yet thou shalt verily cross all sins by the
raft of knowledge.

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥

अर्जुन ! जैसे अग्नि ज्वाला में लकड़ी सब जल जाती है
वैसे ही ज्ञानाग्नि सभी कर्मो को भस्म बनाती है।।37।।

भावार्थ : क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है॥37॥
37. As the blazing fire reduces fuel to ashes, O Arjuna, so does the fire of knowledge reduce
all actions to ashes!

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥

इस दुनियाँ में ज्ञान सरीखी कोई दूसरी वस्तु नहीं
उसी ज्ञान को आत्म योग से अपने अंदर खोल सही।।38।।

भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥
38. Verily there is no purifier in this world like knowledge. He who is perfected in Yoga
finds it in the Self in time.

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥

श्रद्धावान संयमी तत्पर कर लेता है पार उसे
परम शांति वह पाता मन में शीघ्र मिल गया ज्ञान जिसे।।39।।

भावार्थ : जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है॥39॥
39. The man who is full of faith, who is devoted to it, and who has subdued all the senses,
obtains (this) knowledge; and, having obtained the knowledge, he goes at once to the supreme
peace.

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥

ज्ञान रहित,श्रद्धाविहीन,संशयी नष्ट हो जाता है
इस जग में,न अन्य लोक में शांति और सुख पाता है।।40।।

भावार्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥40॥

40. The ignorant, the faithless, the doubting self proceeds to destruction; there is neither this
world nor the other nor happiness for the doubting.

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥

योग लाभ से,कर्मों से संयास यहां हो पाता है
ज्ञान और बल से शंसय तज,बंधु मुक्त हो जाता है।।41।।

भावार्थ : हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते॥41॥
41. He who has renounced actions by Yoga, whose doubts are rent asunder by knowledge,
and who is self-possessed,-actions do not bind him, O Arjuna!

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥

अतःपार्थ!अपने संशय को ज्ञान शस्त्र से छिन्न करो
कर्म योग का करो आचरण उठकर आगे युद्ध करो।।42।।

भावार्थ : इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥42॥
42. Therefore, with the sword of knowledge (of the Self) cut asunder the doubt of the self
born of ignorance, residing in thy heart, and take refuge in Yoga; arise, O Arjuna!

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥

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