वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे धर्म संस्कृति अध्यात्म : श्रीमद् भगवत गीता संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी में : अध्याय -10 : विभूति योग -

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श्रीमद् भगवत गीता : अध्याय -10 : विभूति योग

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हिन्दी पद्यानुवादक : साहित्यकार प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥

श्री भगवान ने कहा –
महाबाहु सुन फिर मेरा अनुपम आप्त विचार
जो मैं तेरे भले को बतलाता सुखसार।।1।।

भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा॥1॥
1. Again, O mighty-armed Arjuna, listen to My supreme word which I shall declare to thee
who art beloved, for thy welfare!

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥

जान न पाये आज तक कोई ऋषि या देव
कारण मैं उत्पत्ति का उनका प्रमुख सदैव।।2।।

भावार्थ : मेरी उत्पत्ति को अर्थात्‌ लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ॥2॥
2. Neither the hosts of the gods nor the great sages know My origin; for, in every way I am
the source of all the gods and the great sages.

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

अजर अमर परमात्मा हॅू जिसे मैं देता ज्ञान
वह ज्ञानी संसार में है निष्पाप महान।।3।।

भावार्थ : जो मुझको अजन्मा अर्थात्‌ वास्तव में जन्मरहित, अनादि (अनादि उसको कहते हैं जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान्‌ ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान्‌ पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है॥3॥
3. He who knows Me as unborn and beginningless, as the great Lord of the worlds, he,
among mortals, is undeluded; he is liberated from all sins.

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥

बुद्धि ज्ञान शम दम क्षमा सत्य मोह व्यामोह
सुख दुख भावाभाव भय अभय काम ओै” क्रोध।।4।।
तुष्टि तपस्या दान यश अयश अहिंसा साम्य
होते मन में भाव ये मुझसे काम्य अकाम।।5।।

भावार्थ : निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष तप (स्वधर्म के आचरण से इंद्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है), दान, कीर्ति और अपकीर्ति- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं॥4-5॥
4. Intellect, wisdom, non-delusion, forgiveness, truth, self-restraint, calmness, happiness,
pain, birth or existence, death or non-existence, fear and also fearlessness,

5. Non-injury, equanimity, contentment, austerity, fame, beneficence, ill-fame-(these)
different kinds of qualities of beings arise from Me alone.

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥

पुरा सप्त ऋषि चार मनु उपजे मम संकल्प
जिनसे इस संसार में वर्णित सृष्टि अकल्प।।6।।

भावार्थ : सात महर्षिजन, चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है॥6॥
6. The seven great sages, the ancient four and also the Manus, possessed of powers like Me
(on account of their minds being fixed on Me), were born of (My) mind; from them are these
creatures born in this world.

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥

मम इस योग विभूति को जो भी लेता जान
वह निश्चित ही योग से जुडता शुभ पहचान।।7।।

भावार्थ : जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है (जो कुछ दृश्यमात्र संसार है वह सब भगवान की माया है और एक वासुदेव भगवान ही सर्वत्र परिपूर्ण है, यह जानना ही तत्व से जानना है), वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥7॥
7. He who in truth knows these manifold manifestations of My Being and (this)
Yoga-power of Mine, becomes established in the unshakeable Yoga; there is no doubt about it.

( फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का कथन )

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥

मैं ही कारण जगत का मुझसे सब गतिमान
ज्ञानी ऐसा समझ नित ,भावित श्रद्धावान।।8।।

भावार्थ : मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत्‌ की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत्‌ चेष्टा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान्‌ भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं॥8॥
8. I am the source of all; from Me everything evolves; understanding thus, the wise,
endowed with meditation, worship Me.

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌ ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥

मुझको अर्पित प्राण मन आपस में विद्धान
करते हैं चर्चा मेरी करके कई अनुमान।।9।।

भावार्थ : निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले (मुझ वासुदेव के लिए ही जिन्होंने अपना जीवन अर्पण कर दिया है उनका नाम मद्गतप्राणाः है।) भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं॥9॥
9. With their minds and lives entirely absorbed in Me, enlightening each other and always
speaking of Me, they are satisfied and delighted.

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तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

उन विभोर हो भक्तिरत भक्त जो आते पास
को मैं देता बुद्धि गति भक्ति और विश्वास।।10।।

भावार्थ : उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥10॥

10. To them who are ever steadfast, worshipping Me with love, I give the Yoga of
discrimination by which they come to Me.

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥

उन पर करके कृपा मैं उनके मन का वास
सब अज्ञान ज तमस हर करता ज्ञान प्रकाश।।11।।

भावार्थ : हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ॥11॥
11. Out of mere compassion for them, I, dwelling within their Self, destroy the darkness
born of ignorance by the luminous lamp of knowledge.

( अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना )

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌ ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌ ॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥

अर्जुन ने कहा –
परब्रम्ह अतिपावन परमधाम गुणवान
आप निरंतर दिव्य हैं आदिदेव भगवान।।12।।
सब ऋषियों ने आपका नारद देवल व्यास
कहा यही है असित ने और स्वतः भी आप।।13।।

भावार्थ : अर्जुन बोले- आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन, दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं और आप भी मेरे प्रति कहते हैं॥12-13॥
12. Thou art the Supreme Brahman, the supreme abode (or the supreme light), the supreme
purifier, the eternal, divine Person, the primeval God, unborn and omnipresent.
13. All the sages have thus declared Thee, as also the divine sage Narada; so also Asita,
Devala and Vyasa; and now Thou Thyself sayest so to me.

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥

देव दानवों को भी नहिं है प्रभु का सच्चा ज्ञान
जो कुछ मुझसे आपने कहा सत्य भगवान।।14।।

भावार्थ : हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्‌! आपके लीलामय (गीता अध्याय 4 श्लोक 6 में इसका विस्तार देखना चाहिए) स्वरूप को न तो दानव जानते हैं और न देवता ही॥14॥
14. I believe all this that Thou sayest to me as true, O Krishna! Verily, O blessed Lord,
neither the gods nor the demons know Thy manifestation (origin)!

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥

नहीं कोई कुछ जानता सब करते अनुमान
जगत्पति पुरूषोत्तम आपको ही सच ज्ञान।।15।।

भावार्थ : हे भूतों को उत्पन्न करने वाले! हे भूतों के ईश्वर! हे देवों के देव! हे जगत्‌ के स्वामी! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं॥15॥
15. Verily, Thou Thyself knowest Thyself by Thyself, O Supreme Person, O source and
Lord of beings, O God of gods, O ruler of the world!

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥

जिन विभूति से विश्व में व्याप्त आप आभास
उन सबका भी दें मुझे कृपया सब आभास।।16।।

भावार्थ : इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं॥16॥
16. Thou shouldst indeed tell, without reserve, of Thy divine glories by which Thou
existeth, pervading all these worlds. (None else can do so.)

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्‌ ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥

कैसे जानूँ प्रभु तुम्हें करते चिंतन नित्य
किन किन भावों से करूँ ध्यान तुम्हारा सत्य।।17।।

भावार्थ : हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन्‌! आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं?॥17॥
17. How shall I, ever meditating, know Thee, O Yogin? In what aspects or things, O blessed
Lord, art Thou to be thought of by me?

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌ ॥

कहें जनार्दन योग औ” निज विभूति तो आप
बिना सुने विस्तार से मन को चैन अप्राप्त।।18।।

भावार्थ : हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात्‌ सुनने की उत्कंठा बनी ही रहती है॥18॥

18. Tell me again in detail, O Krishna, of Thy Yogic power and glory; for I am not satisfied
with what I have heard of Thy life-giving and nectar-like speech!

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥

भगवान बोले –
अच्छा मुख्य विभूतियाँ बतलाउँगा तात
क्योंकि अखिल अनंत है अद्धुत सब की बात।।19।।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है॥19॥
19. Very well, now I will declare to thee My divine glories in their prominence, O Arjuna!
There is no end to their detailed description.

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥

अर्जुन! हूँ मैं आत्मा सब देहों में व्याप्त
मैं ही सबका आदि हूँ मघ्य भी और समाप्ति।।20।।

भावार्थ : हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥20॥
20. I am the Self, O Gudakesha, seated in the hearts of all beings! I am the beginning, the
middle and also the end of all beings.

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्‌ ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥

आदित्यों में विषय हूँ दीप्तिवान में सूर्य
मरूतों मारिचि हूँ नक्षत्रों में शशि रूप।।21।।

भावार्थ : मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ॥21॥

21. Among the (twelve) Adityas, I am Vishnu; among the luminaries, the radiant sun; I am
Marichi among the (seven or forty-nine) Maruts; among stars the moon am I.

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥

देवों में हूँ इन्द्र मैं वेदों में सामवेद
इंद्रियों में हदय मन ,जीवों में संचेत।।22।।

भावार्थ : मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात्‌ जीवन-शक्ति हूँ॥22॥
22. Among the Vedas Iamthe Sama Veda; I am Vasava among the gods; among the senses I
am the mind; and I am intelligence among living beings.

रुद्राणां शङ्‍करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्‌ ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्‌ ॥

रूद्रों में शंकर हूँ मैं औ” यक्षों में कुबेर
वसुओं में पावक हूँ मैं शिखरों में हूँ मेरू।।23।।

भावार्थ : मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ॥23॥
23. And, among the Rudras I am Shankara; among the Yakshas and Rakshasas, the Lord of
wealth (Kubera); among the Vasus I am Pavaka (fire); and among the (seven) mountains I am the
Meru.

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्‌ ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥

पुरोहितों में मुख्य मैं वृहस्पति सम्मान्य
सेनानियों में स्कंद मैं जलाशयों में सिंधु।।24।।

भावार्थ : पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कंद और जलाशयों में समुद्र हूँ॥24॥

24. And, among the household priests (of kings), O Arjuna, know Me to be the chief,
Brihaspati; among the army generals I am Skanda; among lakes I am the ocean!
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌ ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥

महर्षियों में भृगु ऋषि ,भाषा में ओंकार
यज्ञों में जप यज्ञ मैं अचलों में गिरिराज।।25।।

भावार्थ : मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्थात्‌‌ ओंकार हूँ। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ॥25॥

25. Among the great sages I am Bhrigu; among words I am the monosyllable Om; among
sacrifices I am the sacrifice of silent repetition; among immovable things the Himalayas I am.

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥

देवर्षियो में नारद,वृक्षों में अश्वत्थ
सिद्धों में मैं कपिल मुनि,चित्ररथ हूँ गंधर्व।।26।।

भावार्थ : मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ॥26॥

26. Among the trees (I am) the peepul ; among the divine sages I am Narada; among
Gandharvas I am Chitraratha; among the perfected the sage Kapila.

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम्‌ ।
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्‌ ॥

अश्वों में उच्चैश्रवा,मंथन से उद्भूत
ऐरावत गजराज मैं पुरूषों में हूँ भूप।।27।।

भावार्थ : घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा मुझको जान॥27॥
27. Know Me as Ucchaisravas, born of nectar among horses; among lordly elephants (I am)
the Airavata; and among men, the king

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्‌ ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥

शस्त्रों में मैं वज्र हॅू कामधेनू हूँ गाय
प्रजनन में मैं काम हूँ वासुकि सर्प निकाय।।28।।

भावार्थ : मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ॥28॥

28. Among weapons I am the thunderbolt; among cows I am the wish-fulfilling cow called
Surabhi; I am the progenitor, the god of love; among serpents I am Vasuki.

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्‌ ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्‌ ॥

जलचर बीच में वरूण हूँ नागों बीच अनंत
पितरों में हूँ अर्थमा,नियमन कर्ता यम।।29।।

भावार्थ : मैं नागों में (नाग और सर्प ये दो प्रकार की सर्पों की ही जाति है।) शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ॥29॥
29. I am Ananta among the Nagas; I am Varuna among water-Deities; Aryaman among the
manes I am; I am Yama among the governors.

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प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्‌ ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्‌ ॥

सब पक्षियों में हूँ गरूड पशुओं मध्य मृगेन्द्र
दैत्यों में प्रहलाद हूँ गणकों में कालेन्द्र।।30।।

भावार्थ : मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का समय (क्षण, घड़ी, दिन, पक्ष, मास आदि में जो समय है वह मैं हूँ) हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ॥30॥
30. And, I am Prahlad among the demons; among the reckoners I am time; among beasts I
am their king, the lion; and Garuda among birds.

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्‌ ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥

पावन कर्ता पवन हूँ धनुर्वीर श्रीराम
नदियों में गंगा नदी,मत्स्य मगर उद्दाम।।31।।

भावार्थ : मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ॥31॥
31. Among the purifiers (or the speeders) I am the wind; Rama among the warriors am I;
among the fishes I am the shark; among the streams I am the Ganga.

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌ ॥

आदि,मध्य औ” अंत हूँ सकल सृष्टि का पार्थ!
विद्या में अध्यात्म हूँ वाचालों में वाद।।32।।

भावार्थ : हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अंत तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात्‌ ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूँ॥32॥

32. Among creations I am the beginning, the middle and also the end, O Arjuna! Among the
sciences I am the science of the Self; and I am logic among controversialists.

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥

हूँ अकार अक्षरों में द्वंद समास समास
मैं ही अक्षर काल हूँ धाता सविश्वास।।33।।

भावार्थ : मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल अर्थात्‌ काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ॥33॥
33. Among the letters of the alphabet, the letter A I am, and the dual among the
compounds. I am verily the inexhaustible or everlasting time; I am the dispenser (of the fruits of
actions), having faces in all directions.

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌ ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥

सर्वाहारी मृत्यु हूँ हूँ उद्भव की चाह
नारी में वाणी क्षमा कीर्ति स्मृति परवाह।।34।।

भावार्थ : मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति (कीर्ति आदि ये सात देवताओं की स्त्रियाँ और स्त्रीवाचक नाम वाले गुण भी प्रसिद्ध हैं, इसलिए दोनों प्रकार से ही भगवान की विभूतियाँ हैं), श्री, वाक्‌, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ॥34॥
34. And I am all-devouring death, and prosperity of those who are to be prosperous; among
feminine qualities (I am) fame, prosperity, speech, memory, intelligence, firmness and forgiveness.

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्‌ ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥

सामो में हूँ वृहत मैं छंद गायत्री छंद
मार्ग शीर्ष हूँ मास में ,ऋतु में सरस बसंत।।35।।

भावार्थ : तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं हूँ॥35॥
35. Among the hymns also I am the Brihatsaman; among metres Gayatri am I; among the
months I am Margasirsa; among seasons (I am) the flowery season.

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌ ॥

छलियों में मैं द्यूत हॅू तेजस्वी में तेज
जय हूँ शिव संकल्प मैं सत्व हूँ सत्य परहेज।।36।।

भावार्थ : मैं छल करने वालों में जूआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों का विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ॥36॥

36. I am the gambling of the fraudulent; I am the splendour of the splendid; I am victory; I
am determination (of those who are determined); I am the goodness of the good.

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥

वृष्णियों में वासुदेव ,पांडवों में हूँ पार्थ!
कवियों में उशना कवि,मुनियों में हूँ व्यास।।37।।

भावार्थ : वृष्णिवंशियों में (यादवों के अंतर्गत एक वृष्णि वंश भी था) वासुदेव अर्थात्‌ मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात्‌ तू, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ॥37॥

37. Among Vrishnis I am Vasudeva; among the Pandavas I am Arjuna; among sages I am
Vyasa; among poets I am Usana, the poet.

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌ ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌ ॥

शासक का मैं दण्ड हूँ, विजयेच्छु की नीति
गोपनीय का मौन हूँ ज्ञानी की हूँ प्रतीति।।38।।

भावार्थ : मैं दमन करने वालों का दंड अर्थात्‌ दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ॥38॥
38. Among the punishers I am the sceptre; among those who seek victory I am
statesmanship; and also among secrets I am silence; knowledge among knowers I am.

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥

सकल सृष्टि का बीज जो वह मैं ही हूँ पार्थ!
जिसके बिन चर अचर से रहित होये संसार।।39।।

भावार्थ : और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो॥39॥
39. And whatever is the seed of all beings, that also am I, O Arjuna! There is no being,
whether moving or unmoving, that can exist without Me.

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥

मेरी दिव्य विभूति का कहीं न कोई अंत
यह विस्तार किया कि कुछ जिससे समझे सन्त।।40।।

भावार्थ : हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए एकदेश से अर्थात्‌ संक्षेप से कहा है॥40॥
40. There is no end to My divine glories, O Arjuna, but this is a brief statement by Me of the
particulars of My divine glories!

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌ ॥

जो विभूति मय प्रभामय औ” प्रभाव मय वस्तु
जान उसे मम अंश ही किम् बहुना इति अस्तु।।41।।

भावार्थ : जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात्‌ ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान॥41॥
41. Whatever being there is that is glorious, prosperous or powerful, that know thou to be a
manifestation of a part of My splendour.

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥

अर्जुन ! बस इतना समझ क्या बढाव का काम
सारे जग में व्याप्त है मेरा अंश तमाम।।42।।

भावार्थ : अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रायोजन है। मैं इस संपूर्ण जगत्‌ को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ॥42॥
42. But of what avail to thee is the knowledge of all these details, O Arjuna? I exist,
supporting this whole world by one part of Myself.

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥10।

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