रविवारीय रचना में त्रिभुवनेश भारद्वाज की रचना “और सच है साहब पत्थर इंसान नहीं होते”
🔲 त्रिभुवनेश भारद्वाज
अनुभव की बात है साहब
नमी की कमी है
तो देह तो क्या
सोच, विचार, संवेदना
सब सूख जाते हैं
सूख जाते हैं
विश्वास के निर्झर
समादर की हरीतिमा
सूख जाती है
आंखें
और सूख जाती है
नेह तलैया
नमी की कमी
उजाड़ देती है
दिल बाग
और सूखापन
शख्सियत को पत्थर बना देता है
और सच है साहब
पत्थर इंसान नहीं होते
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प्रेम से रिक्त है उसे कृष्ण कहाँ मिलते हैं
वो कौन से पल हैं श्याम
जिन्हें तुम सा महायोगी
आँख बंद करके संजोता हैं
उन्हें उत्सव की तरह
भीतर ही जी लेता हैं
फिर जब दृष्टि खोलता हैं
तो
एक अलौकिक चमक मुख पर
दिखाई देती है
सम्मोहन नजरो में
और दिखाई देती हैं
नयन किनारों पर पड़ी
खारे पानी की नीली झील
क्या है वासु ये क्या है
वसु अपलक
शून्य में लीन हो
बोले
ये वो है
जो मुझसे महावक्ता के लिए भी
अवर्णनीय हैं
किन्तु इसका प्राप्त होना
मुझसे केशव के लिए भी
सौभाग्य की बरखा का मस्तकाभिषेक हैं
संसार में इससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं
कहते हुए श्रीकृष्ण दिव्य हो गए
उनके ओंठों से
बहुत ही मंद मंद
दो आखर चल रहे थे
राधा ……..राधा राधा
प्रेम जीवन शक्ति
प्रेम जीवन प्रवाह
प्रेम जीवन की उष्मा
प्रेम में जीवन का अथाह
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🔲 त्रिभुवनेश भारद्वाज, रतलाम