🔲 नरेंद्र गौड़

’वक्त का एक ऐसा भी दौर था जब अनेकानेक वर्जनाओं के चलते गिनी- चुनी महिला लेखिकाएं ही कविता, कहानी, आलेख की दुनिया में कदम रख पाती थीं, लेकिन आजादी के बाद और अब फेसबुक के अस्तित्व में आने के बाद लेखिकाओं को रचाव का उन्मुक्त आकाश मिला है। प्रकाशन प्रसारण की सुविधाएं भी बढ़ हैं, लेकिन नामवरसिंह जैसा आलोचनात्मक कर्म नहीं होने के कारण -’अहो रूपम् अहो ध्वनि’ का बोलबाला अधिक है और ऐसे में बहुत-सा कचरा साहित्य भी फैला पड़ा है। इसकी छटाई बिनाई होना चाहिए।’ लखनऊ में जन्मी, लेकिन इन दिनों नोएडा निवासी स्वतंत्र लेखन को समर्पित कथाकार एवं कवयित्री डाॅ. कृष्णलता सिंह का यह कहना था।

 

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चर्चा के दौरान इन्होंने कहा कि आज कोई भी लेखक सुबह अपनी कविता, कहानी या छोटी-मोटी टिप्पणी भी फेसबुक के हवाले करता है तो दोपहर तक वाहवाही का मजमा-सा लग जाता है। यदि वह कोई सुंदर-सी महिला हुई तो फिर कहने क्या? उसकी रचना को बिना पढे़ और समझे तारीफ के पुल बांध दिए जाते हैं, ऐसी झूठी तारीफ महिला लेखिकाओं की आत्ममुग्धता का कारण बनती हैं और वह ऐसी प्रशंसा के भुलावे में उस वाहवाही को अपनी रचना की श्रेष्ठता का मापदंड मान बैठती हैं।

इधर पैसा लेकर कविता कहानी छापने वाले प्रकाशकों की भी बाढ़-सी आई हुई है। इतनी ही नहीं घुड़दौड़ की तर्ज पर लेखकों के बीच मैराथन प्रतियोगिताएं भी कराई जाने लगी हैं। विजेताओं को रंगबिरंगे प्रमाण- पत्र भी फेसबुक के जरिए बांटे जा रहे हैं और इन दो कोड़ी के तमगों को शान के साथ अपनी फेसबुक पर डालकर लेखिकाएं फूले नहीं समा रही हैं। यह कोई नहीं पूछता कि उन्हें प्रमाण- पत्रों को रेवड़ी की तरह बांटने वाले कथित सरलजी, विकलजी, निर्मलजी, अविकलजी, विद्रोहीजी जैसे उप नामधारियों की साहित्य जगत में औकात क्या है। अपनी रचनाओं के मूलस्वर के बारे में पूछे जाने पर कृष्णलताजी का कहना था कि इनके पति वर्षो तक भारतीय सेना में आफिसर रहे हैं और इस नाते सैनिकों की दिनचर्या को इन्होंने करीब से देखा है, यही कारण है कि सैेनिकों के जीवन के अनेक चित्र इनकी कविताओं का अटूट हिस्सा है। इसके अलावा कहानियों में सामाजिक यथार्थ और विसंगति के अनेक पक्ष उजागर हुए हैं। यहां उल्लेखनीय है कि कृष्णलता जी का हाल ही में एक उपन्यास ’गुनाह एक किश्तें हजार’ भी छपकर आया है। डायरी तथा आत्मकथा शैली में लिखे गए इस उपन्यास की सुधि पाठकों तथा समीक्षकों में काफी हो रही है। इसमें नारी मन की विभिन्न भाव भगिमाओं, चिंताओं और दुर्बलताओं का बखूबी चित्रण किया गया है।

डाॅ. शिवमंगलसिंह ’सुमन’ ने किया लिखने को प्रेरित

अपने स्वयं के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में डाॅ. कृष्णलताजी ने बताया कि उनका जन्म सुसंस्कृत सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ और जीवन में सुख-सुविधा, अभाव, संघर्ष तथा लक्ष्मण रेखाओं का अद्भुत संमिश्रण रहा है। अभावों ने तोड़ा नहीं वरन् एक दूसरे के साथ कसकर बांधे रखा। बचपन से साहित्यिक अभिरूचि के कारण जीवन का अधिकांश समय किताबों की दुनिया बीता। ’हंस’ और ’सरस्वती’ जैसी पत्रिकाओं को पढ़कर कल्पना तथा यथार्थ में विचरण करने का दुर्लभ अवसर मिला। उन दिनों प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, शरत चंद्र, विमल मित्र, ताराशंकर बंधोपाध्याय, गोर्की जैसे अनेक लेखकों की रचनाएं पढ़ी। छात्र जीवन में तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार डाॅ. शिवमंगलसिंह ’सुमन’ जी के हाथों ग्रहण करने का मौका मिला। उन्होंने अपने प्रसिध्द ’दारा शिकोह’ उपन्यास की एक प्रति मुझे देते हुए कहा- ’इतना सुंदर बोलती हो, तो कुछ लिखा भी करो’। बस वहीं से मुझे लिखने की प्रेरणा मिली और वही रचाव की ऊर्जा आज भी मेरा मार्ग दर्शन कर रही है।

विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित

कृष्णलताजी ने लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए, पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। काॅलेज एवं विश्वविद्यालयीन स्तर की विभिन्न स्पर्धाओं में इन्हें अनेक बार पुरस्कृत किया जा चुका है। ‘दीपदान’ नामक कहानी को सुधि पाठकों की व्यापक सराहना मिली और इसी कहानी की वजह से इन्हें सम्मान भी मिला है। इनका शोध प्रबंध चैखंबा ओरियन्टालिया वाराणसी से प्रकाशित हुआ। इसके अलावा आपकी अनेक रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपती रही हैं। वर्ष 2015 में इनका पहला कहानी संकलन ‘मेरे हिस्से का आसमान’ आधारशिला प्रकाशन, हल्व्दानी, नैनीताल से छपा। जिसमें इनकी ग्यारह कहानियां संकलित हैं। संकलन की अधिकांश कहानियों में मध्यवित्तीय जीवन के कई बहुआयामी रंग देखे जा सकते हैं। परिवारिक, सामाजिक परिवेश के सुख-दुख और यथार्थ से रूबरू होते हुए संघर्ष की व्यथाकथा के कई चित्रों के कारण संकलन की कहानियां पाठक को बांध लेने की दुर्लभ क्षमता रखती हैं। वर्ष 2019 में इनका दूसरा कथा संकलन ‘लछमनिया’ लखनऊ के रश्मि प्रकाशन संस्थान से छपा। वर्ष 2019 में आधार प्रकाशन से ही बच्चों के लिए लिखी कहानियों का एक संकलन ‘इंद्रधनुष’ भी जल्दी प्रकाशित होने जा रहा है। आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र से भी इनकी कहानियों तथा कविताओं का प्रसारण होता रहा है। इनका विवाह ऐसे सैन्य अधिकारी से हुआ है जिन्होंने 1971 युध्द में भाग लेकर शौर्य प्रदर्शन किया। पति की नौकरी के कारण इन्हें अनेक शहरों में रहने और वहां के जीवन को निकट से देखने भोगने के कई मौके मिले, लेकिन इससे लेखन अवश्य अव्यवस्थित रहा।

चुनिंदा कविताएं

नदी के व्दीप

हमारे कथक परिश्रम से
ढोए गए बालुका कणों में
सेंध मारकर
धीरे-धीरे उग आते हो
हमारी छाती पर
तुम! बलात और
नदी के व्दीप की पहचान में
अकृतज्ञ इतराते हो
अहंकार में

विस्तार का लोभ
इतना बढ़ा कि
बांट देते हो धारा ही को
सह लेती हूं
तुम्हारी इस धृष्टता को
समेट लेती हू
अपनी छिन्न-भिन्न धाराओं को
सदानीरा बन
उसी जीवंतता के साथ
चल पड़ती हूं
अपने गंतव्य की ओर
पर मानवीय संवेदना
और स्पर्श से वंचित
जूझते रहते हो तुम
एकाकीपन से

सह अस्तित्व की मर्यादा
भूलकर आतंकी विस्तार की
लिप्सा से खड़े हो जाते हो
तुम सीना तान के
मेरा संपूर्ण
अस्तित्व मिटाने
तब तुम्हारे घोषित
साम्राज्य के आगे
असंभव जाता है
घुटने टेकना

अंदर ही अंदर
सुलगता मौन
आक्रोश प्रलय का
कहर बनकर टूट
पड़ता है ढ़ह जाता है
तुम्हारा अस्तित्व
तिनका-तिनका
खंड-खंड होकर
बिखर जाता है
तुम्हारा गौरव

नदी के दीप थे
नदी में ही समा जाते हो।
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सिर्फ

चंद लम्हों का
तुम्हारा साथ
मकान को घर बना देता है
तब बेजुबान
छत की दीवारें
मिल बैठकर
खूब बतियाती हैं

धूप का उजास
न जाने कहां से घर के
कौन-कौने में
रोशनदान के झरोखों से
झरझर झरने लगता है

तुम्हारे जाते ही न जाने क्यों
चिरागों की रोशनी
खुद ब खुद
खामोश हो जाती है
घुप्प अंधेरे में
खुद का वजूद तलाशना
बेमानी हो जाता है

दीवार पर टंगे
तेलचित्र की तरह
गूंगी बहरी हो जाती हूं
घर फिर ईंट गारे से बना
सिर्फ और सिर्फ
मकान रह जाता है
तब छत और दीवारें
आपस में सन्नाटा
बुनने लगती हैं।

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सरहद पर

सरहद पर दिन
ढल गया
सूर्य बैरकों
पेड़ों की फुनगियों
पहाड़ों और आकाश से
विदा ले चुका है

रेंगता हुआ अंधेरा
घनीभूत होकर
डरा रहा है-

छिपा शत्रु घात में है
पर डर नहीं
ईश्वर साथ है
तभी तो तिलस्मी
जवाहरातों से आकाश
जगमगाने लगा है

दूर-दूर तक आकाश में
सन- सना रहे हैं शब्द
एक दिन सब ठीक होगा

शांति के साथ
विश्राम होगा
इसी विश्वास के साथ
बढ़ते रहते हैं-
थके-थके कदम

अचानक तभी-
धांय-धांय की गूंज के साथ
गिरते पड़ते
शरीरों की छटपटाहट
जमीं पर गर्म खून के
फव्वारे धीरे-धीरे
सपनों की आंख मिचैली
कुछ स्पर्शो की गरमाहट

कुछ उलाहनों
मनुहारों के अहसास
कुछ आधे अधूरे काम
कुछ जिम्मेदारियां
सभी एक साथ कैद हो गईं

पथराई दृष्टि में
जमने लगा नसों में
दौड़ता खून
टूटने लगी
सांसों की डोर
जाना निश्चित हो गया
मुस्करा पड़े अशक्त ओंठ
जाएंगे जरूर जीवन से दूर
लेकिन गर्व के साथ
तिरंगे के साथ
प्रशंसा और
धन्यवाद के साथ

सब जाएंगे
सूर्य के नीचे
तारों के नीचे से
सभी का जाना तय है
लेकिन उनका जाना
विशेष है क्योंकि
वह सरहदों के पहरेदार हैं।

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