पुस्तक समीक्षा : ” मैं भी खाऊं, तू भी खा” प्रो. अजहर हाशमी का व्यंग्य संग्रह है नेता और नीतियों पर नकेल कसती “नेता बत्तीसी”
🔲 आशीष दशोत्तर
“अर्थशास्त्र में प्रसिद्ध विचारक ग्रेशम का मुद्रा नियम कहता है कि, बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। ठीक वैसे ही कच्चे नेता सच्चे नेता को चलन से बाहर कर देते हैं। बुरे नोट जैसे अच्छे नोट को चलन से बाहर करते हैं वैसे ही बुरे नेता, अच्छे नेता को बाहर कर देते हैं। “संत परंपरा के वाहक एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता, ओजस्वी वक्ता, प्रखर लेखक, साहित्यकार एवं प्रवचनकार प्रोफेसर अज़हर हाशमी की उक्त व्यंग्य पंक्तियों के कई निहितार्थ हैं।
हाशमी जी के सद्य: प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ” मैं भी खाऊं, तू भी खा” के व्यंग्य नेताओं के चेहरे और चरित्र को बेनकाब करते हैं। वे नीति नियंताओं और नेतृत्व की नीयत का पर्दाफाश करते हैं और आम आदमी के साथ हो रहे छल को सभी के सामने लाते हैं। वे व्यवस्था की विसंगतियों और विद्रूपताओं को मज़बूती के साथ अभिव्यक्त करते हैं और ज़िंदगी की आपाधापी में खो चुके आम इंसान को याद दिलाते हैं कि वह जिन्हें अपना नेता चुन रहा है उसका चरित्र क्या है ,उसकी नीति क्या है और उसकी नीयत क्या है?
‘नेता व ग्रेशम का मुद्रा नियम’ व्यंग्य से उद्धृत प्रारंभिक पंक्तियां हाशमी जी की सूक्ष्म व्यंग्य दृष्टि और पुख़्ता वैचारिक आधार को अभिव्यक्त करती है। हाशमी जी ने साहित्य की तमाम विधाओं में अपनी अभिव्यक्ति अलग अंदाज़ में की है। वे गीता के गूढ़ रहस्यों को अपनी वाणी से विचारवान बनाते हैं। ग़ज़लों के माध्यम से ग़ज़ल के रवायती रंग को जदीदियत से सराबोर करते हैं। गीतों में रामवाले हिन्दुस्तान की हक़ीक़त बयान करते हैं।
व्यंग्य हाशमी जी की प्रिय विधा रही है और देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वे पचास से अधिक वर्षों से अपने गहरे और तीखे व्यंग्य के लिए पहचाने जाते हैं। प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह में हाशमी जी ने नेताओं के चाल चलन और चरित्र को उजागर किया है ।यह व्यंग्य संग्रह दरअसल “नेता बत्तीसी” के रूप में पाठकों के सामने आता है। इसके 32 व्यंग्य नेताओं के अलग-अलग चरित्रों को पेश करते हैं। जैसे वे कहते हैं ” छल- कपट नेता का धंधा है, उगाही नेता का चंदा है, प्रतिशोध लेना नेता का फंदा है, नेता के बोल ऐसे कि भाषा ही शर्मिंदा है ।” (इस दौर के नेता, पृष्ठ 13)।
हाशमी जी व्यंग्य के माध्यम से नेताओं को ललकारते हैं तो व्यवस्था पर भी गहरा कटाक्ष करते हैं। वे कहते हैं, ” माफ कीजिए, मिस्टर शिलान्यास। आपके माथे पर माननीय का नाम लिखा हुआ होने की बात चल रही थी कि चमचे बीच में आ गए। बुरा मत मानिए। माननीय की बात चलेगी तो चमचे बीच में आएंगे ही । आपको चमचागिरी नहीं आती इसीलिए तो आप पत्थर हैं।” (शिलान्यास का पत्थर, पृष्ठ 75 )।
हाशमी जी के यहां विषयों की व्यापकता है । विचारों का तेज प्रवाह है। पेनी दृष्टि है और सादगी की चासनी में लपेट कर चपत लगाने वाली शैली भी। नेता को कोरोना काल में मास्क पहनने से होने वाले लाभ गिनाते हुए वे कहते हैं,.” पहला लाभ तो यह कि नेता मास्क पहनने से अंखियों के झरोखे से झांकने में विशेषज्ञ हो जाएगा, दूसरा लाभ यह कि मास्क पहनने से नेता के होठों की कुटिल या बनावटी मुस्कुराहट छुप जाएगी और नेता आंखों से मुस्कुराना सीख जाएगा। तीसरा लाभ यह कि नेता अगर सुरूर में है तो मास्क पहनने से उसकी महक बाहर नहीं जा पाएगी । चौथा लाभ यह कि मास्क पहनने से नेता की आंखों की चमक उस समय बढ़ जाएगी जब श्रोताओं या दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट नेता के कानों में जाएगी। पांचवा लाभ यह है कि इस लाभ को ‘हानि में भी लाभ’ कहा जाएगा।” (मास्क के चुनावी लाभ, पृष्ठ 73- 74)।
वे नेताओं के साथ तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी लपेटे में लेते हैं । वे कहते हैं,” बुद्धिजीवी अगर कुछ नया नहीं करें तो फिर बुद्धिजीवी कैसे कहलाए। इसलिए वह बुद्धि के प्रयोग से परिवर्तन के नए-नए फार्मूले खोजते हैं। श्मशान में मनोरंजन परिवर्तन का फार्मूला है। इसमें बुद्धि का भी सदुपयोग हो जाता है और समय का भी।” (मनोरंजन चाहिए श्रीमान, तो श्मशान घाट आइए, पृष्ठ 85)
हाशमी जी अपने व्यंग्य के माध्यम से अपने मुहावरे गढ़ते हैं। वे साधारण सी बात को भी उस व्यापकता के साथ प्रस्तुत करते हैं जो पढ़ने वाले को बरबस आनंदित भी करती है और सोचने पर मजबूर भी । वे कहते हैं, “ज़माने से नेताओं और अफसरों को अपने दांतो के गिरने की आशंका रहती है। अगर दांत ही गिर गए तो आपदा प्रबंधन के तहत आने वाले दूसरे अनेक फंड को चबाने के लिए दांत कहां से लाएंगे ।अगर नकली दांत लगवा भी लिए तो बार-बार मुंह से बाहर आएंगे। इसलिए फंड को निगलने से दांतों की सुरक्षा हो जाती है और फंड स्वालोइंग स्किल को दिशा मिल जाती है।”( मैं भी खाऊं, तू भी खा, पृष्ठ 38)।
वे नेताओं की विभिन्न कलाओं की व्याख्या करते हुए कहते हैं,” इन दिनों तो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर नेतागिरी का धंधा शुरू करने का नवाचार उफान पर है। नेतागिरी का धंधा विकसित करने के लिए छह कलाओं का ज्ञान बहुत ज़रूरी है।”( नेतागिरी का धंधा, पृष्ठ 15) इसी प्रकार भाषा के नाम पर नेताओं द्वारा किए जा रहे छल को बेनकाब करते हुए वे कहते हैं, ” अगर नेता जी अनार का ‘अ’ या ‘क’ कबूतर का सीखते रहे तो इस जन्म में तो नहीं सीख पाएंगे। रही बात अगले जन्म में सीखने की तो यह मामला पेचीदा है ।”(खामोश ,नेताजी हिंदी सीख रहे हैं , पृष्ठ 20 )।
नेताओं के प्रति उनकी सूक्ष्म दृष्टि और उतना ही रोचक वर्णन पाठकों को नेताओं की असलियत से रूबरू करवाता है ,वहीं यह सोचने पर भी मजबूर करता है कि जिस नेता को एक आम मतदाता बड़े अरमानों के साथ ज़िम्मेदारी सौंपता है उसके लिए कुर्सी के क्या मायने हैं। वे कहते हैं,” कुर्सी नेता का ध्यान है। कुर्सी नेता का ज्ञान है। कुर्सी नेता का बयान है। कुर्सी नेता का ईमान है। कुर्सी नेता का अनुष्ठान है। कुर्सी नेता का भगवान है।” (नेता एक शरीर है, कुर्सी उसकी आत्मा पृष्ठ 17)।
सृजन पर पथ पर निरंतर अग्रसर हाशमी जी अपनी बहुचर्चित कविताओं के लिए देशभर में पहचाने जाते हैं। उनके गीता ज्ञान की व्याख्या को लोग आप्तवाक्यों की तरह जीवन में उतारते हैं। वे देशभर के महत्वपूर्ण सम्मानों से अलंकृत हैं। उनका व्यक्तित्व विराट है मगर विनम्रता उनके व्यक्तित्व को और अधिक गरिमा प्रदान करती है।
पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ चिंतक डॉ. प्रेम भारती कहते हैं कि, व्यंग्यात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिए परसाई जी ने पौराणिक मिथक का सर्वाधिक और सार्थक प्रयोग किया है। ऐसे मिथकों के सफल प्रयोग की यह विशेषता है कि वे अपनी तीव्र संवेदना, सामाजिक सजगता तथा विलक्षणता के माध्यम से सामूहिक विसंगतियों तथा विकृतियों पर अचूक निशाना साधते हैं। प्रोफ़ेसर हाशमी ने इन मिथकों का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया है । प्रोफ़ेसर हाशमी की यह पुस्तक उस मौन को भेदती सी प्रतीत होती है। ये व्यंग्य समाज को शिक्षित करने के लिए हैं।’
निस्संदेह यह पुस्तक व्यंग्य के विद्यार्थियों के लिए एक पगडंडी है और व्यंग्य के क्षेत्र में सक्रिय लेखकों के लिए समझाइश की रहगुज़र भी। सीमित शब्दों में अपनी बात को अर्थपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करने की शैली इन व्यंग्य से सीखी जा सकती है। हाशमी जी ऐसे रचनाकार हैं जिनके व्यंग्य पर , गीत और ग़ज़ल पर कई विद्यार्थियों ने पीएचडी भी की है । यह एक रचनाकार कि सफलता और उनके जीवन पर्यंत प्रयासों का प्रतिफल है।
यद्यपि प्रो. अज़हर हाशमी जी के व्यंग्य पर कुछ कहने के लिए मैं स्वयं को बहुत अनुपयुक्त और अदना सा महसूस करता हूं, मगर पत्रकार साथी और हरमुद्दा वेब पोर्टल के संपादक भाई हेमंत भट्ट के आग्रह पर इस पुस्तक पर कुछ कहने का प्रयास किया है । विश्वास है इस टिप्पणी को एक अनगढ़ पाठक का प्रयास समझा जाएगा।
आशीष दशोत्तर
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