तब ही हम सचमुच आत्मनिर्भर होकर स्वयं को प्रमाणित कर सकेंगे विश्वगुरू
🔲 पब्लिक सेक्टर को बचाना जरूरी
🔲 विवेक रंजन श्रीवास्तव
वर्तमान युग वैश्विक सोच व ग्लोबल बाजार का हो चला है। सारी दुनियां में विश्व बैंक तथा समानांतर वैश्विक वित्तीय संस्थाएं अधिकांश देशों की सरकारों पर अपनी सोच का दबाव बना रही हैं। स्पष्टतः इन अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के निर्देशानुसार सरकारें नियम बनाती दिखती हैं। पाकिस्तान जैसे छोटे मोटे देशों की आर्थिक बदहाली के कारणों में उनकी स्वयं की कोई वित्तीय सुढ़ृड़ता न होना व पूरी तरह उधार की इकानामी होना है, जिसके चलते वे इन वैश्विक संस्थानो के सम्मुख विवश हैं। किंतु भारत एक स्वनिर्मित सुढ़ृड़ आर्थिक व्यवस्था का मालिक रहा है।
2008 की वैश्विक मंदी या आज 2020 की कोविड मंदी के समय में भी यदि भारत की इकानामी नहीं टूटी तो इसका कारण यह है कि ” है अपना हिंदुस्तान कहां ? , वह बसा हमारे गांवों में ” .
हमारे गांव अपनी खेती व ग्रामोद्योग के कारण आत्मनिर्भर बने रहे हैं। नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ें तो शायद विकास की शहरी चकाचौंध न पहुंच पाने के चलते भी अप्रत्यक्षतः गांव अपनी गरीबी में भी आत्मनिर्भर रहे हैं। इस दृष्टि से किसानो को निजी हाथों में सौंपने से बचने की जरूरत है।
हमारे शहरों की इकानामी की आत्मनिर्भरता में बहुत बड़ा हाथ पब्लिक सेक्टर नवरत्न सरकारी कंपनियों का है। इसी तरह यदि शहरी इकानामी में नकारात्मकता में सकारात्मकता ढ़ूंढ़ी जाए तो शायद समानांतर ब्लैक मनी की कैश इकानामी भी शहरी आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारणो में एक हो सकती है।
हमारा संविधान देश को जन कल्याणकारी राज्य घोषित करता है। बिजली, रेल, हवाई यात्रा, पेट्रोलियम, गैस, कोयला, संचार, फर्टिलाइजर, सीमेंट, एल्युमिनियम, भंडारण, ट्रांस्पोरटेशन, इलेक्ट्रानिक्स, हैवी विद्युत उपकरण, हमारे जीवन के लगभग हर क्षेत्र में आजादी के बाद से पब्लिक सेक्टर ने हमारे देश में ही नहीं पड़ोसी देशों में भी एक महत्वपूर्ण संरचना कर दिखाई है। बिजली यदि पब्लिक सेक्टर में न होती तो गांव-गांव रोशनी पहुंचना नामुमकिन था। हर व्यक्ति के बैंक खाते की जो गर्वोक्ति देश दुनियां भर में करता है, यदि बैंक केवल निजी क्षेत्र में होते तो यह कार्य असंभव था।
विगत दशकों में सरकारें किसी भी पार्टी की हों, वे शनैः शनैः बरसों की मेहनत से रची गई इमारत को किसी न किसी बहाने मिटा देना चाहती हैं। जिस पब्लिक सेक्टर ने स्वयं के लाभ से जन सरोकारों को हमेशा ज्यादा महत्व दिया है, उसे मिटने से बचाना, देश के व्यापक हित में आम भारतीय के लिए जरूरी है। तकनीकी संस्थानों में आईएएस अधिकारियो के नेतृत्व पर प्रधानमंत्री जी ने तर्क संगत सवाल उठाया है। यह पब्लिक सेक्टर की कथित अवनति का एक कारण हो सकता है।
पब्लिक सेक्टर देश के नैसर्गिक संसाधनो पर जनता के अधिकार के संरक्षक रहे हैं। जबकि पब्लिक सेक्टर की जगह निजी क्षेत्र का प्रवेश देश के बने बनायें संसाधनो को, कौड़ियों में व्यक्तिगत संपत्ति में बदल देंगे। इससे संविधान की “जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा” आधारभूत भावना का हनन होगा।
लोकहितकारी भावना के विपरीत कदमों का यू टर्न
चुनी गई सरकारें पांच वर्षों के निश्चित कार्यकाल के लिए होती हैं, किन्तु निजीकरण के ये निर्णय पांच वर्षों से बहुत दूर तक देश के भविष्य को प्रभावित करने वाले हैं। कोई भी बाद की सरकार इस कदम की वापसी नहीं कर पाएगी। प्रिविपर्स बंद करना, बैंकों का सार्वजनिक करण, जैसे कदमों का यू टर्न स्पष्ट रूप से भारतीय संविधान की मूल लोकहितकारी भावना के विपरीत परिलक्षित होता है। हमें वैश्विक परिस्थितियों में अपनी अलग जनहितकारी साख बनाए रखनी चाहिए, तभी हम सचमुच आत्मनिर्भर होकर स्वयं को विश्वगुरू प्रमाणित कर सकेंगे।
क्या उपभोक्ता अधिकार निजी क्षेत्र में सुरक्षित रहेंगे ? पब्लिक सेक्टर की जगह लाया जा रहा निजी क्षेत्र महिला आरक्षण, विकलांग आरक्षण, अनुसूचित जन जातियों का वर्षों से बार-बार बढ़ाया जाता आरक्षण तुरंत बंद कर देगा। निजी क्षेत्र में कर्मचारी हितों, पेंशन का संरक्षण कौन करेगा ? ऐसे सवालों के उत्तर हर भारतीय को स्वयं ही सोचने हैं, क्योंकि सरकारें राजनैतिक हितों के चलते दूरदर्शिता से कुछ नहीं सोच रही हैं।
सरल भाषा में समझें कि यदि सरकार के तर्कों के अनुसार व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा ही सारे आदर्श मानक हैं और मां, बहन या पत्नी के हाथों के स्वाद , त्वरित उपलब्धता, आत्मीयता , का कोई महत्व नहीं है, हर कुछ का व्यवसायीकरण ही करना है, तब तो सब के घरों की रसोई बंद कर दी जानी चाहिए और हम सबको होटलों से टेंडर बुलवाने चाहिए।
सुढ़ृड़ीकरण की तरकीब ढ़ूंढ़ना जरूरी
स्पष्ट समझ आता है कि यह व्यापक हित में नहीं है।
अतः संविधान के पक्ष में, जनता और राष्ट्र के व्यापक हित में एवं विश्व में भारत की श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए आवश्यक है कि किसानों को निजी हाथों में सौंपने से बचा जाए व पब्लिक सेक्टर को तोड़ने के आत्मघाती कदमों को तुरंत रोका जाए। बजट में जन हितकारी धन आवंटन हो, न कि यह बताया जाए कि सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए उसका निजीकरण किया जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार और सुढ़ृड़ीकरण की तरकीब ढ़ूंढ़ना जरूरी है न कि उसका निजीकरण कर उसे समाप्त करना।