 संजय भट्ट

वे समाज में ऊँचे आदमियों की गिनती में आते थे। उनके पिताजी का देहावसान हो गया। वैसे तो समाज में कई लोग रोज सदगति को प्राप्‍त होते थे, लेकिन उनका रूतबा ऊँचा होने के कारण समाज के हर वर्ग का व्‍यक्ति शामिल हुआ। सभी में एक होड़ थी, उनकी निगाहों में स्‍थान पाने की। ऐसा लग रहा था उनके पिताजी नहीं बल्कि नगर के ही पिताजी का स्‍वर्गवास हो गया हो। बिना कहे ही हर कोई आगे से आगे काम में लगा था। कोई लकड़ी की व्‍यवस्‍था में जुटा था तो कोई श्‍मशान में वीआईपी व्‍यवस्‍था दिलाने का प्रयास कर रहा था। कोई फूलों का इंतजाम कर रहा था तो कोई गुलाल लिए खड़ा था। नगर की परंपरा के मुताबिक कई बड़े बुजूर्ग अपने हाथों में साफा थामें खड़े थे। बस इंतजार था तो उनकी अर्थी के घर से बाहर निकलने का।

उनके तो पिताजी थे, इसलिए मुंह लटकाए बैठे थे घर के बाहर। सारा काम बिना कहे ही हो रहा है तो जबरन टांग अड़ाने का कोई मतलब भी नहीं निकलता था। बस यही सोच कर शांति से घर के बाहर बैठ कर अर्थी उठाए जाने का इंतजार उनको भी था। घर में समाज के कुछ एक्‍सपर्ट लोग उनके पिताजी को नहला रहे थे, नए कपड़े पहना रहे थे तथा अर्थी को फूलों से सजा रहे थे। सारा काम हो चुका था बस अर्थी अब निकलने ही वाली थी। घर के बाहर अर्थी को रखा गया, सभी ने अंतिम दर्शन करते हुए भगवान को चढ़ावा चढ़ाने की स्‍टाईल में हार फूल से श्रद्धासुमन अर्पित किए। कुछ ने साफा बांधा कुछ ने शॉल ओढ़ाई, कुछ ने फूलों व हार से ही अपनी श्रद्धा प्रकट कर दी। यहां भी सभी आंकलन कर रहे थे, उनके सामने अपने अंकों की गणित का। इसमें अभी असली अंक गणित का खेल बकाया था।

नगरभर में विभिन्‍न मार्गों से होकर उनकी अर्थी को घुमाया जा रहा था। सभी को तकलीफ थी, गर्मी के मौसम में चलने की पसीना शरीर से टपक रहा था। वे भी हाथ में कंडा लिए आगे आगे चल रहे थे। उनके आजू-बाजू दो लोग उनको थाम कर चल रहे थे। तकलीफ तो थी पर क्‍या करें, गर्मी में हालत खराब थी, पैरों में से चप्‍पल भी निकवा लिए थे और अर्थी को उन इलाकों में भी घूमाया जा रहा था, जहां न वे न उनके पिताजी ही कभी गए ही नहीं थे। उनके रसूख को दिखाने के लिए गली-गली में अर्थी को बारात की तरह घूमाया जा रहा था। आखिरकार घूम फिर कर अर्थी श्‍मशान घाट पहुंची तथा अंतिम विश्राम पर रोका गया। पंडितजी ने अपनी क्रिया की। पहनाए गए सभी साफों व शॉलों को हटाया गया।

अब लकड़ी को लगाया जा रहा था तथा उसके बीच-बीच में चंदन भी लगाया जा रहा था। कपूर, रॉल और कई सुगंधित वस्‍तुओं को लगाया जा रहा था। सभी को इंतजार था शोक सभा का। जैसे ही पार्थिव देह को अग्नि के समर्पित किया, लोग पिताजी की कम भैया की ज्‍यादा जय जयकार कर रहे थे। भीड़ ऐसी थी कि किसी को पता नहीं कौन क्‍या बोल रहा है। सभी श्‍मशान में बने एक हॉल में आ पाना संभव नहीं थे, लेकिन फिर भी सब ठॅूसाठूंस भरे थे। अब भैयाजी बैठे थे तथा उनके खास लोग आसपास बैठे थे। तभी उनके खास साहब ने एनाउंसमेन्‍ट किया। आदरणीय भैयाजी के पिताजी देवता पुरुष थे। उनके सम्‍मान में हम सभी अपनी आदरांजलि अर्पित करें। इसके लिए अब मैं फलॉं जी को आमंत्रित करता हूँ, ऐेसे क्रम चलता रहा। सभी ने अपने-अपने विचार में पिताजी को महान से महानतम बताने का प्रयास किया। इससे सभी उनकी निगाह में अपने अंक बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। इधर सभी उनके बारे में बोले जा रहे थे, उधर उनके पिताजी एकांत में धूँ-धूँ कर जल रहे थे। उस ओर किसी का ध्‍यान नहीं था। पिताजी तो रहे नहीं, लेकिन उनके सामने अंक बढ़ाने का गणित जारी था।
जलती चिता से कहीं से लकड़ी का एक टूकड़ा टूटा और बाहर गिर पड़ा, एक टूकड़ा गिरते ही पूरी चिता बिखर गई और लकड़ियां यूँ ही जलती रही। पिताजी का सिर चिता से गिर पड़ा, बाकी शव जलता रहा। जैसे ही अधजला सिर चिता से गिरा एक कुत्‍ता जो श्‍मशान घाट में पिताजी की अर्थी के साथ लाए गए कुछ अन्‍न को खाने के लिए घूम रहा था उसने तुरंत लपक लिया। इधर भैयाजी की नजर में सभी अपने अंक बढाने में लगे थे उधर पिताजी का सिर कुत्‍ते के लिए दावत बन गया। जैसे-जैसे अपना नंबर खतम हो रहा था सभी घरों की ओर जाने लगे, किसी ने भी उस ओर ध्‍यान नही दिया कि पिताजी की लाश जली या नहीं। अगले दिन अखबार में दो खबरे थी। एक में पिताजी की मौत पर लोगों द्वारा व्‍यक्‍त की गई श्रद्धांजलि की तथा दूसरे अज्ञात शव के सिर को नोंचते हुए कुत्‍तों की।

संजय भट्ट

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