🔲 आशीष दशोत्तर

अपनी अवस्था में ‘आनंद‘ की अनुभूति और व्यवस्था में ‘विश्वास‘ बनाए रखने के लिए निरीक्षण आवश्यक होता है। यह संरक्षण और परीक्षण के बाद की क्रिया होती है। जब संरक्षण की सीमा खत्म हो जाए और परीक्षण की औपचारिकताएं थोथी साबित होने लगे तो निरीक्षण आवश्यक होता है। निरीक्षण भी कायदे का हो तो उसका फायदा होता है। वैसे निरीक्षण होता ही फायदे के लिए है मगर यह अंदर की बात है और इसे सिर्फ निरीक्षणकर्ता का अंदरूनी मन ही समझता है। हर निरीक्षण का अपना ‘कायदा‘ होेता है और उस कायदे के अनुरूप ही उसका ‘फायदा‘ निर्धारित होता है।

बहरहाल निरीक्षण एक होता है मगर उससे संभावनाएं अनेक जन्म लेती है। यदि किसी निरीक्षण से कोई नई संभावना जन्म न ले तो वह निरीक्षण बेकार होता है। निरीक्षण कई प्रकार के होते हैं। प्रचलित निरीक्षणों मंे सबसे पहले ‘औचक‘ निरीक्षण आता है। यह निरीक्षण अचानक होता है जिसकी सूचना पूर्व से दी जा चुकी होती है। निरीक्षण कैसे होना है,कब होना है और कितना होना है, यह निरीक्षणकर्ता अपने सूत्रों के हवाले से पहले ही स्पष्ट कर चुका होता है। निरीक्षण को औचक बताने के लिए निरीक्षणकर्ता उचक-उचक कर निरीक्षण करता है। किसी घटना के बाद होने वाले हो-हल्ले को दबाने के लिए अक्सर ऐसे निरीक्षण किए जाते हैं। ऐसे निरीक्षणों में व्यवस्था का कोई दोष नहीं पाया जाता है। सबकुछ ठीक मिलता है। जो ठीक नहीं मिलता है उसे ठीक करने का मौका इसी निरीक्षण में ढूंढा जाता है।

एक अन्य निरीक्षण ‘भौचक‘ निरीक्षण कहलाता है। जैसा कि नाम से ही इसमें भौं-भौं की ध्वनि आती है,वैसे ही इसमें भौं-भौं के अलावा कुछ नहीं होता है। निरीक्षणकर्ता पहले गरजता है, फिर बरसता है। हर कोने में ताक-झांक करता है। बात-बात पर उलाहने देता है। और कुछ नहीं मिलता है तो छत पर लटके जाले या टेबल पर जमी धूल की तरफ इशारा कर अपने गुस्से का इज़हार करता है। इससे निरीक्षण की नीति और निरीक्षणकर्ता की रीति का आभास होता है। इस तरह के निरीक्षण के एक बार हो जाने पर अगली बार निरीक्षणकर्ता के आने की सूचनाभर से खलबली मच जाया करती है। एक निरीक्षण कर लम्बे समय तक अपनी धाक जमाने वालों के लिए निरीक्षण की यह उपयुक्त शैली होती है। ‘एक तीर से कई निशाने‘ साधने और ‘एक पंथ दो काज‘ करने वाले इस शैली में सिद्ध होते हैं। इस निरीक्षण का उपसंहार प्रभावी उपहार के साथ होता है।

जब निरीक्षणकर्ता को यह मालूम न हो कि वह निरीक्षण क्यों कर रहा है तो इस प्रकार का निरीक्षण ‘रोचक‘ निरीक्षण की श्रेणी में आता है। जिसका निरीक्षण होता है वह भी अनजान ,निरीक्षण करने वाला भी अनजान। इस निरीक्षण में कुछ भी किया जा सकता है। अक्सर ‘ऊपर‘ से निरीक्षण के लिए आने वाले आदेशों में इसी प्रकार का निरीक्षण होता है। निरीक्षणकर्ता आते ही स्वल्पाहार और जाने से पहले पूर्णाहार ग्रहण करता है। यह इस निरीक्षण की एकमात्र एवं आवश्यक शर्त होती है। इससे निरीक्षण का ‘स्वाद‘ बना रहता है। जिसका निरीक्षण होता है वही निरीक्षण प्र्रतिवेदन तैयार कर देता है जिस पर निरीक्षणकर्ता अपनी ‘चिड़ियां‘ बिठाकर अपना टीए-डीए पक्का करता है। इस निरीक्षण में पूर्ण पारदर्शिता होती है। सबको मालूम होता है,इस निरीक्षण से कुछ होना नहीं है। सबको पता होता है इस निरीक्षण के प्रतिवेदन पर कोई एक्शन नहीं लिया जाना है। यानी सभी निश्चिंत होते हैं। इस निरीक्षण के समापन पर निरीक्षणकर्ता यह कहना नहीं भूलता कि ‘चलो इसी बहाने मिलना-मिलाना हो गया।‘

कभी निरीक्षण के नाम पर मुंह दिखाई भी करना होती है। ऐसे में निरीक्षण स्थल को छू कर आना ही पर्याप्त होता है। एक-दो फोटो इस निरीक्षण की गंभीरता की गवाही देने के लिए काफी होते हैं। अब तो वर्चुअल दौर है इसलिए आभासी निरीक्षण भी प्रचलन में हैं। इस निरीक्षण में कहीं आना-जाना नहीं होता है। बस वर्चुअली सबकुछ हो जाया करता है। उधर से जानकारी दे दी जाती है और इधर से निरीक्षण टीप लिख दी जाती है। यानी निरीक्षण का दायरा विस्तृत है। व्यवस्था से जुड़े हर व्यक्ति को जीवन में निरीक्षणों से गुज़रना तय है। अब उसके भाग्य में किस प्रकार का निरीक्षण लिखा है, यह तो समय ही बता सकता है मगर वह निरीक्षण के तरीकों पर गौर कर किसी भी प्रकार के निरीक्षण का रूप बदल सकता है।

🔲 आशीष दशोत्तर

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