स्मृति शेष : असंभव के विरूद्ध खड़े रहे देवव्रत जी
‘जीवन के दुःख-दर्द हमारे बीच ही हैं और खुशियां भी हमारे करीब।ज़रूरत इन्हें देखने और महसूस करने की है। सड़क पर चलते हुए जब किसी आदिवासी के फटे पैर दिखते हैं तो भीतर का कवि जाग जाता है।
उस पीड़ा को वही समझ सकता है जो उस आदिवासी के प्रति संवेदना रखता हो।‘ इन संवेदनाओं को अपने सक्रिय जीवन में कई बार अभिव्यक्त करते रहे हिन्दी और मालवी के कवि, डाॅ. देवव्रत जोशी आम जनता की पीड़ा, दुःख-दर्द से, कलम और देह से उसी तरह जुड़े रहे जिस तरह कोई शाख पेड़ से जुड़ी रहती है।
पाॅच दशक तक निरंतर लिखते हुए देवव्रत जी ने साहित्य के कई उतार-चढ़ाव देखे।
वे छंदबद्ध रचना छंदमुक्त दौर के सर्जक/साक्षी रहे। उन्होंने गीत-नवगीत और नई कविताएॅं लिखी।
उनकी कलम जब भी चली नई परिपाटी को गढ़ती चली गई। ज़िन्दगी से लम्बी जद्दोजहद के बाद देवव्रत जी हमारे बीच से मीर ग़ालिब, कबीर, तुलसी के क़रीब पहुंच गए।
लिखना और सिर्फ लिखते रहना ही किसी रचनाकार की सफलता का मापदंड नहीं होता हैं।
अपितु वह लिखते हुए अपनीे रचनाओं और कर्म के माध्यम से पाठकों तक कब और कितना पहुंच सका, यह उसकी सार्थकता होती है।
देवव्रत जी इस मायने में सदैव सचेत रचनाकार रहे।
उनकी रचनाएं पचास के दशक से अब तक लगातार प्रकाशित होती रही ।
देश की शायद ही कोई साहित्यिक पत्रिका या समाचार पत्र रहा हो जिसमें देवव्रत जी को स्थान न दिया गया हो।
उनकी गद्य और पद्य की पुस्तकें साहित्य क्षेत्र में चर्चा और समीक्षा के दौर से गुज़री।
वे उत्तर आधुनिक दृष्टि सम्पन्न देहाती, लोक के चहेते कविरहे।कई पुस्तकों के लेखक देवव्रत जी की ‘गद्यशिल्पी दिनकर‘ गद्य साहित्य की महत्वपूर्ण कृति है तो ‘जूती रैदास की‘ और ‘छगन बा दमामि और अन्य कविताएं‘ उनका चर्चित काव्य संग्रह। देश और विदेश की कई भाषाओं में देवव्रत जी की रचनाओं का अनुवाद हुआ। प्रसार भारती ने उन पर एक वृत्तचित्र का निर्माण भी किया।
मगर यह सब न होता तो भी देवव्रत जी,देवव्रत जोशी ही रहते।
उनसे मिलने वाले उनके व्यक्तित्व का अहसास सदैव करते रहे।
एक रचनाकार होने के साथ वे संवदेनशील इंसान भी थे।
उनकी रचनाओं में उनका अपना गाॅंव रावटी और वहाॅं के आदिवासी अनायास ही आते ।
अपनी पोती, अपनी बहन से बतियाते हुए वे भावुक हो जाते ।
वे हिन्दी के पारिवारिक कवि रहे।
सूर के पदों में उन्हें संसार की तमाम सुंदरताएं नज़र आती , तो आबिदा परवीन के कंठ से कबीर के पद सुनते हुए ने धार-धार रोते दिखाई दिए। उनके लिए अफगानिस्तान की औरतों का दर्द सैलाना झाबुआ की किसी आदिवासी महिला से कम नहीं होताथा।
वे अपनी दृष्टि से अमेरिकी ज्यादतियों को उसी तरह खारिज करतेे रहे जिस तरह अपने आस-पास की विसंगतियों को। देवव्रत जी की मिलनसारिता भी अलग ही रही।मुझे याद नहीं वे कभी किसी से अपरिचित की तरह मिले होें।
कोई रिक्शा वाला हो या फल विक्रेता उनके लिए अपना ही होता । उससे कभी न कभी वे मिल चुके होते । गली में क्रिकेट खेलते बच्चों से वे आत्मीयता से बतियाते । शोर-शराबा करते बच्चों को एक अभिभावक की तरह अधिकारपूर्वक डाॅटते भी।
देवव्रत जी केे इन गुणों की चर्चा इसलिए ज़रूरी लगती है कि वे जो लिखते रहे, वैसा ही दिखते रहे और ठीक उसी तरह जीवन जीते रहे। एक लापरवाह फक्कड़ जीवन। रेदास,कबीर, सूर उनकी कविताओं में पूर्वजों की तरह आते रहे। एक सार्थक कविता लिखने की ज़िद और उसके बाद दुनिया से रूख्सत होने की बात कहना हर किसी के बूते में नहीं हैं।
कविता महज विचारों की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि वह मानवीय मूल्यों की रक्षा का एक उपक्रम भी है। कविता की रचना कवि समय के जीवन की आंतरिक मनोदशाओं, प्रवृत्तियों और चेष्टाओं के साथ सम्बन्धों से उत्पन्न संस्कृति और नई मूल्य व्यवस्था से होती है। यदि रचनाकार अपने पूरे जीवन को खंगाले, अपने अनुभवों के समंदर में गोते लगाए तभी वह मोती के समान रचनाओं को सामने ला सकता है। उसे अपने सामीप्य को पहचानने और चैकन्न रहकर अपने पास से गुजरते पलों को पकड़ने का श्रम करना पड़ता है। वरिष्ठ कवि देवव्रत जोशी की रचनाओं पढ़कर इन विचारों को दृढ़ता मिलती है। आम जीवन से लगभग अनुपस्थित होते जा रहे ‘लोक’ को देवव्रत जोशी ने न केवल स्थापित किया , बल्कि इसे बहुत हद तक साबित भी किया । उनकी स्मृतियों को नमन।
आशीष दशोत्तर