रोम का जलना व नीरों की बांसूरी का आनंद
संजय भट्ट
रोम को जलते हुए देख कर नीरों का बांसूरी बजाना एक निराली अनुभूति है। इसका आनंद सिर्फ नीरों ही ले सकता है, आम आदमी के बस की बात नहीं। मुश्किल हालातों में भी सुखद अनुभव करना सिर्फ नीरों से ही सीखा जा सकता है। रोम में आग की लपटों का उॅचाई तथा गर्मी की झुलसन भी नीरों को उसके बांसूरी बजाने के आनंद को नहीं डिगा पाया। उसे इसी में खुशी मिल रही थी और रोम का रोम-रोम जल रहा था। हर आदमी दुखी था, द्रवित था उसके मन में दुश्वारियों के बादल घुमड़-घुमड़ का बारिश कर रहे थे। आग का मंज़र देख कर हर किसी को तकलीफ हो रही थी, लेकिन वह नीरों ही था जो सब कुछ जलते हुए देख कर भी आंतरिक मन में किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं कर रहा था। रोम जल रहा है तो नया बस जाएगा, क्या रोम के जल जाने मात्र से सृष्टि तो खतम नहीं हो जाएगी। जब तक सृष्टि का विनाश नहीं हो जाता रोम के जलने से नीरों को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था।
उसके महल के बाहर हाहाकार मचा था, लेकिन नीरों को पुरा विश्वास था कि वह बांसूरी के आनंद में खोया रह सकता है। उस हाहाकार, भीषण आग, उस आग की लपटों तथा गर्मी के एहसास से कहीं दूर वह अपनी उस सुखद अनुभूति को खोना नहीं चाहता था। वह तबाही के आलम को मेहसुस ही करना नहीं चाहता था, उसे दुख के सागर में भी सुख के सीपों का भरोसा था। नीरों का पता था कि रोम जलकर खाक भी हो गया तो उसके आनंद में कोई खलल नहीं होगा। वह अपनी बांसूरी धून में इतना खो गया कि उसके महल के आसपास की लपटों पर भी उसका ध्यान नहीं गया तथा जनता के हाहाकार से उसके मन पर कोई असर होना नहीं था। सबसे परे वह उस सुखद अनुभूति में खोया था, जो हो सकता है उसे उस समय के बाद मिले या न मिले। रोम जल जाए लेकिन नीरों की बांसूरी के सूर के बंद नहीं होना चाहिए।
नीरों देश का वह राजा था जो अपने आनंद के इतर कुछ भी सुनना पसंद नहीं करता था। उसे सिर्फ अपने मन की बात कहने का अधिकार था, उसे किसी की बात सुनने के कर्तव्य का अनुभव नहीं था। आखिर जलते हुए रोम की लपटें उसके महल को चारों ओर से घेर रही थी। उसकी बांसूरी में भी अब आग की सांस आने लगी थी। उसके आसपास के चाटूकार अब भी उसकी बांसूरी की धून की ही प्रशंसा कर रहे थे। नीरों की तरह उन्हें भी इस बात से कोई लेना देना नहीं था कि रोम ही जल जाएगा तो वे किसकी सत्ता की चाटूकारिता करेंगे। जब आग की लपटों से महल के जलने का एहसास हो चला तो चाटूकारों ने सारा मामला रोम के अधिकारियों की लापरवाही पर डालना शुरू कर दिया था, उनके गलत प्रबंधन के कारण ही रोम में आग लगी है। सब जानते थे कि आज जो रोम जल रहा है वह नीरों के उस सिगार का परिणाम है जो उसने अपने आनंद के लिए पी थी तथा उसका जलता टुकड़ा घांस के उस ढेर में फेंक दिया था जहां से यह आग लगी है।
नीरों को पुरा अंदाजा था कि चाहे रोम पुरा जल जाए लेकिन उसके महल तक आने वाली आग को रोक लिया जाएगा। उसकी जान उन सभी रोम वासियों से ज्यादा कीमती है, जो इस आग में अपनी आहूति दे चुके हैं। नीरों अब भी बांसूरी बजा रहा था, क्योंकि वह जानता था उसके आसपास बना मंत्रियों और अधिकारियों का तानाबाना उस तक आंच तो ठीक आग का तिनका भी नही आने देंगे। लेकिन नीरों के चाटूकारों, अधिकारियों तथा मंत्रियों का हुजूम नीरों को बचाने के स्थान पर रोम को बचाने का प्रयास करते तो आज नीरों की बांसूरी के सूर का आनंद नीरों के साथ रोमवासी भी ले सकते थे।