हमारे परिवेश, संस्कृति, तहज़ीब और हमारी तरबियत की बात करते हैं कवि युसूफ जावेदी

🔲 आशीष दशोत्तर

कविता के लिए किसी बड़े कैनवास की आवश्यकता नहीं होती बल्कि एक छोटे से विचार को किसी बड़े फलक पर खुली दृष्टि के साथ देखना ही कविता है। यह कविता जब आकार लेती है तो इसमें वे सारे अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं जो एक विचार को कविता बनाते हैं। कवि युसूफ जावेदी भी बहुत सूक्ष्म विचार को एक बड़े कैनवास पर फैलाना जानते हैं।

चार दशक से अधिक समय से रंगकर्म और कविता के क्षेत्र में सक्रिय श्री जावेदी मुक्त छंद और छंद बद्ध कविताओं के जरिए आज के हालात, बिखरते रिश्ते और जज्बातों की बातें करते हैं । वे हमारे परिवेश, हमारी संस्कृति, हमारी तहज़ीब और हमारी तरबियत की बात करते हैं । वे जानते हैं कि हमारी रग-रग में में दौड़ते लहू का रंग एक है , इसे कभी जुदा नहीं किया जा सकता । नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत की बात करते हैं। वे बदरंग बनते सपनों को उजला बनाने की बात करते हैं। वे उन लोगों पर उंगली भी उठाते हैं जो हमारी सामाजिकता और सामूहिकता पर प्रहार कर रहे हैं। वे एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए ज्ञान के रास्ते पर चलने की सीख भी देते हैं। वे जानते हैं कि शब्दों से होकर ही हम जीवन से जुड़ सकते हैं।

अपने बाहुपाश में समेटता

मुसलसल फैलता ही जा रहा है एक भयानक स्याह जंगल ।

आरती, अजान, प्रार्थनाएं सबकी सब

बेअसर हुई जा रहीं हैं दिनोंदिन

सियार और जंगली सुअरों की ज़ात बढ़ी चली आ रही है

गाँव – गलियों की ओर ।

दूर से चुप्पी साधे धुंधले या बंद रास्ते पर

अकेले खड़े रहकर कोई नहीं रोक सकता इसे

न तुम , न मैं , न कोई और ।

इसी रास्ते आओ एक साथ

यहाँ किताबें हैं, ज्ञान है, विज्ञान है और

इतिहास से सीखते हुए भविष्य को सँवारने की कला है ।

यही एक रास्ता है जिस पर चलते-चलते

आदमी जुगनू हो जाता है

और बहुत सारे जुगनुओं के आगे

स्याह जंगल कोढ़ी हो जाता है । (इसी रास्ते आओ)

युसूफ जावेदी के यहां अपनी बात को कहने का बहुत स्पष्ट लहजा है। जैसे वे फूल की बात करते हैं, खुशबू की बात करते हैं, तितलियों की बात करते हैं, रंगों की बात करते हैं तो इनके पीछे उस पूरे मंजर को भी बयां करते हैं जो इन सब पर आंख गड़ाए बैठा है। वह स्याह पक्ष भी उजागर करते हैं जो दिखावटी चकाचौंध के पीछे छिपा दिया गया है।

एक सवाल बार-बार झकझोरता है

क्या यह मुनाफख़ोर दुनिया

हमसे हमारी छाँव भी छीन लेगी ?

सही जवाब अपने इतिहास, ज्ञान – विज्ञान

के सामूहिक चिंतन में है ।

बस कुछ संघर्ष करने की कला

कोंपलों से सीखना भर है । (कोंपल नाज़ुक है )

युसूफ जावेदी की कविता एक दृश्य लेकर चलती है। रंगकर्म उनके कवित्व में भी समाविष्ट रहता है। जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ती है वैसे-वैसे वैसे दृश्य परिवर्तन होता रहता है और अंत में जाकर एक सवाल वे छोड़ते हैं जो हमें बेचैन कर देता है । वे अपने नज़रिए के माध्यम से, अपने बिम्बों के जरिए एक सवाल को हमारे बीच पहुंचाने के लिए बहुत खूबसूरती के साथ अपनी बात कहते हैं।

सुना है के पुराने ज़माने में

हुनरमंद गायक जब गाते थे दीपक राग

धने अँधेरों में भी दीपक जल उठते थे ।

तो क्यों न हम तुम मिलके गाएँ दीपक राग

क्या कहा हममें कहाँ हैं हुनरमंदी ?

गाएंगे तो ही हुनरमंद बनेंगे न

देखना तुम हुनरमंद होने की ललक ही

तालीम की ललक भी बनेगी । (मिलके गाएँ दीपक राग )

यह समय दूरियों को बढ़ाने वाला है। हालात तो इन दूरियों को बढ़ाने के लिए दोषी है ही मगर हमारे अपने स्वार्थ और समाज में पैदा किए जा रहे हैं वैमनस्य ने इन दूरियों को और अधिक बढ़ा दिया है। युसूफ जी की कविता इन दूरियों को पाटने का काम करती है। वे जानते हैं कि लोगों के मन एक है। लोगों की भावनाएं एक हैं। लोगों की सोच है एक है । इस सोच को चंद लोग अपनी नफ़रतों से जुदा नहीं कर सकते। वे लोगों को एक साथ चलने और उन्हें एक बेहतर राह पर बढ़ने की बात पूरे विश्वास के साथ कहते हैं।

हमें तो तुम्हारी यादें तितलियों की शक्ल में आती हैं

जब भी आती हैं हम रंग – बिरंगे होकर

गुलशन में तब्दील हो जाते हैं

और सारा सारा दिन महकते रहते हैं ।

बुज़ुर्ग फरमाते हैं ख़तो – किताबत किया करो

रिश्तों की हिफाज़त होती है ।

अच्छा, ख़ैरियत से आगाह करते रहना ।

सलामती हो सब पर , ख़ुदा हाफिज़ । (एक ख़त अधूरा सा )

हम जिस सुंदर समाज के कल्पना करते हैं, जिस सांस्कृतिक विरासत के बात करते हैं, उसे छिन्नभिन्न किया जा रहा है। एक ऐसा संघर्ष हमारे बीच पैदा करने की कोशिश की जा रही है जिसने हम सभी को विचलित किया हुआ है। यूसुफ जावेदी की कविता इस बेचैनी को व्यक्त करती है। वे समाज में फैलती विषमताओं की बदबू को समरसता की खुशबू में तब्दील करने की ख़्वाहिश रखते हैं।

बदबू से कब हारी खुशबू ,फिर जीतेगी प्यारी खुशबू ।

क्या कहते हो आग नहीं हैं,फूँको तो चिन्गारी खुशबू ।

मीठे – मीठे बहते दरिया लहर लहर बलिहारी खुशबू ।

जिनमें ज़्यादा ज़र्फ नहीं है, उनकी है दुशवारी खुशबू । (सब पहरों पर भारी खुशबू )

किसी भी कवि की यह खूबी ही है कि वह अपनी रचना को इस तरह रचे की वह अपने वक्त की ही नहीं बल्कि आने वाले वक्त की भी अक्कासी करे। इस मायने में यूसुफ़ जावेदी की हर रचना अपने समय से आगे की बात करती प्रतीत होती है। वे अपने दौर के लोगों को आने वाले समय से सचेत कर देना चाहते हैं। उनकी हर रचना में ऐसा आभास भी होता है। नब्बे के दशक में उनसे कई बार सुना गीत आज के हाल पर कितना सटीक बैठता है

कवि कबीरा लाशें गिनता

मारा-मारा फिरता है।

ये कौन देश है जिसके सिर पर

मौत का साया घिरता है।

आज के परिदृश्य में ये पंक्तियां बार-बार याद आती है। यही किसी कविता की सफलता है कि उसकी रचना किसी समय में क़ैद न होकर हर वक्त के साथ कदमताल करे और हर दौर में प्रासंगिक लगे। युसूफ जावेदी बेमतलब की बातें लिखकर अपना समय व्यर्थ गंवाने वालों पर तंज़ करते हैं । वे उन्हें नसीहत भी देते हैं। बिना किसी विचारधारा, बिना किसी सोच, बिना किसी चिंतन के इधर-उधर से शब्द चुरा कर लिखना एक कवि का कर्म नहीं है। कवि अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए समाज के कमजोर और दबे हुए आदमी की आवाज़ को बुलंद करें तभी उसकी कविता सार्थक हो सकती है।

शब्द कोष से शब्द चुराना फिर छितराना कागज़ पर ,

अंतर मन की चाह नहीं है ,यूं मर जाना कागज़ पर ।

मन की मौजें जो स्वीकारें ,वह ही जन की भाषा है

उल्टी सीधी भाषा लिखकर ,क्यों शरमाना कागज़ पर । (अंतर मन की चाह नही है )

हमारे पास हमारे पुरखों का कितना अनमोल ख़जाना मौजूद है इसका आभास श्री जावेदी की कई कविताओं में होता है। वे अपने पुरखों की उस संपदा की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं जो उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर हमें सौंपी थी । हम उनकी उस दौलत की रक्षा नहीं कर सके। हम आज जिस सुख चैन को पाने के लिए तरह-तरह के जतन करते हैं वे सुखचैन हमारे पुरखों की बातों में, उनकी नसीहतों में और उनकी समझाइश में मौजूद थे, जिन्हें हमने आज भी विस्मृत कर दिया है।

न किताब, न कॉपी, न कलम कुछ भी तो नहीं था पास

मगर बालों में उँगलियाँ नचाते हुए

दादी ने लिख दिया था कुछ अमिट सा

बचपन के उन दिनों में …….

अब भी बचपन का वह लिखा

अमिट है ।

अमूमन अच्छे लोग रोशनी में नहाये हुए

ही दिखाई पड़ते हैं आज तक । (अच्छे लोग)

श्री जावेदी अपने हमकदम लोगों और खासकर नई पीढ़ी को एक चमकते हुए सूरज की तरह देखना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हमारी नई पीढ़ी अपने भीतर की ऊर्जा को पहचाने। दिशाहीन होने की बजाय अपनी दिशा का निर्धारण खुद करे। दर-दर भटकने की बचाए अपने रास्ते खुद बनाए और एक ऐसे समाज को आकार दे, जहां बेहतरी हो ,जहां अच्छाइयां हों, जहां समन्वय और सौहार्द्र हो।

सूरज की तरह अब दहक उठो

हरना है अँधेरा चहक उठो ।

ख़ुशबुओं के दरिया बहते हैं

बस छूभर लो और महक उठो । (चुपके से उड़ो या चहक उठो)

श्री जावेदी की कविताएं हमारे आज के दौर के ज्वलंत सवालों को भी उठाती है, जिनसे हम परेशान हैं। ये कविताएं हमारा आह्वान करती है तो हमें आश्वस्त भी करती है । ये हमें सोचने पर विवश करती है तो यह हमें सांत्वना भी देती है। ये हमें भीतर से झकझोरती है तो हमारी अकुलाहट को दूर भी करती है । श्री जावेदी जी निरंतर सृजनरत हैं यह काव्य लोक के लिए सुखद है।

🔲 आशीष दशोत्तर

12/2, कोमल नगर, बरबड़ रोड
रतलाम-457001(म.प्र.)
मो. 9827084966

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