पर्व प्रसंग पर विशेष : एक दीप, एक बाती

 आशीष दशोत्तर

मैं दीप हूं और यह है मेरी सखा बाती । यकीन मानिए न तो मैं ऐसा चाहता था और नहीं मेरी सखा  बाती कि  हम आपसे इस तरह हम पेश आएं और खुशी के लम्हों में आपसे बतियाएं। । मगर कोई क्या करे जब परिस्तिथियाँ ऐसा करने पर विवश कर दे। हमें भी हालात ने मजबूर किया और अपने ऐतिहासिक वैभव ने  बार-बार कचोटा तो  बहुत दुखी मन से इसे स्वीकारना भी पड़ा और आपके सामने कहना भी पड़ा कि हम ‘‘थे‘‘ की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं।

आप जिस दीए को अब जलाते हैं वह रोशनी के लिए नहीं अपने प्रभाव के लिए, अपने रूतबे को दिखाने और अपने वैभव को प्रदर्शित करता है ।  यह दीया आपके पारम्परिक  संस्कारों,   गौरवशाली विचारों  और  विलक्षण व्यवहार को  परिलक्षित  नहीं करता । बल्कि यह  आपकी  सीमित सोच,  सिकुड़ते दायरे  और  स्वार्थ  की सीमाओं  को  प्रदर्शित करता है । इस दीए में जो बाती होती है वह आप के समर्पण की  नहीं ,  आपके दंभ की प्रतीक होती है । और जब ऐसा दीया जलता है तो न तो घर की मुंडेर रोशन होती है और न हीं उसका प्रकाश भीतर के अंधकार को चीर पाता है। आप उजाले में हो कर भी  अंधकार में होते हैं  , सब कुछ  पाकर भी  रिक्त रह जाते हैं । शायद इसीलिए दिनोंदिन अंधकार बढ़ रहा है और रोशनी कम हो रही है।

और फिर दीए भी कहां वे दीए हैं जो कुम्हार के हाथों से तराशे गए हों।न उनमें उस माटी की गंध का एहसास होता है, न उन हाथों का जो उनके लिए बहुत जरूरी है ।बिना कुम्हार की चाक पर ढले दीए का क्या मतलब? आप जिन दीयों से रोशनी का संचार करते हैं वे आज के दीए मशीनों से तैयार होते हैं और इन दीयों की माटी  अपने परिवेश की वह माटी नहीं होती जिससे हम पैदा होते हैं और जिस में जिन्दगी की नई इबारत लिखने की कोशिश में खत्म हो जाते हैं।अब जो दीए आपके पास हैं उनमें सब कुछ कृत्रिम है, प्राकृतिक कुछ भी नहीं।

दीए ही क्या , अब आपके घरों में दीयों को रखने के लिए कोई आलिया या ताक भी नहीं है।  कभी घरों के बाहर हम जैसे को रखने के लिए ताक जरूर बनवाई जाती थी । घर के दरवाजे के दोनों तरफ दो ताक हुआ करती थी ,जिसमें हमें शान से रखा जाता था और हम उस ताक में रहकर उस पूरे घर को , उस पूरी बस्ती को और उस पूरे वातावरण को रोशन किया करते थे । अब वह ताक नहीं है ।  ताक घर की शोभा में अशोभनीय करार दी गई और हटा दी गई। घर की देहरी पर दीप जलाने की परंपरा भी खत्म सी हो गई । वरना एक वक्त वह भी था जब दिवाली ही क्या हर शाम घर की देहरी पर दीप जला करते थे और इसकी रोशनी में हर शाम उजालों से भर जाया करती थी।

यह मनुष्यता के पतन की दरकार है या फिर गर्त में जाने की शुरुआत । मुझे बड़े दुखी मन से यह कहना पड़ता है कि मैं आपके जीवन में रोशनी फैलाने के लिए जन्म लेता हूं लेकिन मेरे नाम पर आजकल आप जिसे अपने घर की मुंडेर पर जलाते हैं उससे रोशनी नहीं फैलती। नाम मेरा बदनाम होता है । सिर्फ आप ही के कारण मैं दीया हूं और मेरी साथी छोटी सी बाती , जिसने कभी अपने लिए रोशनी की उम्मीद नहीं की । जिसने कभी अपने लिए उजाला नहीं चाहा बल्कि मेरे साए तले तो हमेशा अंधेरा ही रहा । खुद जलकर मैं सब को रोशनी देता हूं । अब मुझे जिस रूप में पेश किया जा रहा है वह न तो मेरा सही स्वरूप है और नहीं मेरी आकांक्षाओं से मेल खाता है ।मैं दीया हूं और वह दीया जो हमेशा प्रज्वलित होकर दुनिया को अंधेरे में रास्ता ढूंढने का गुर सिखाता हूं। मुझे अच्छी तरह याद है कि हर दिवाली से पहले मोहल्ले की पिंजारन अपने हाथों से रुई कातकर लाया करती थी और उसी रुई से दिवाली के दीयों में बाती रखी जाती थी । आज आप अआपने हालात ऐसे कर दिए हैं कि यहां ऐसी बातें ही व्यर्थ लगती है।

हालात ने हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है और फिर भी आप खुश हैं कि चारों तरफ उजाला फैल रहा है ? कृत्रिम रोशनी से चंद लम्हों के लिए भले ही उजाला फैल जाए मगर उसके पीछे जो अंधेरा छुपा है उसकी आहट आप नहीं सुन पा रहे हैं। गम इस बात का नहीं कि मेरे अस्तित्व को आपने खत्म कर दिया ,गम इस बात का भी नहीं कि आपने मेरी सखा बाती को विस्मृत कर दिया । गम तो इस बात का है कि आपने अपनी इस परंपरा को ही भुला दिया । त्योहार सिर्फ नए कपड़े पहनने , मिठाई खाने या पटाखे जलाने से पूरा नहीं होता । दिवाली का त्यौहार पूरा होता है मुझे जलाने से । जब तक मैं न जलूं तब तक दिवाली का कोई अर्थ नहीं। मगर आपने अब मुझे जलाने के बजाय बाकी सारे कामों पर जोर देना आरंभ कर दिया है और यह एक अंधेरे में जाने की शुरुआत है । मुझे अपने अस्तित्व के खो जाने का गम नहीं और न ही मैं अपने महत्व को रेखांकित करना चाहता। अपनी सखा बाती की जरूरत को प्रस्तुत कर यह जताने की कोशिश कतई नहीं करना चाहता कि मैं था तो ही रोशनी थी।

किसी के रहने न रहने से कभी रस्में खत्म नहीं होतीं, सिलसिले खत्म नहीं होते और हमारी रवायतें खत्म नहीं हुआ करती । आप मुझे जलाएं ,चाहे न जलाएं मगर कम से कम अपनी माटी से उपजे मुझ से दिए को कभी अपने घर के भीतर तो लाएं। कभी उस में किसी पिंजारन के हाथों काती हुई रूई की एक बाती तो रखें । कभी उस में अपने ईमान से कमाए  धन से खरीदा हुआ तेल तो डालें । कभी उसे अपने संघर्षों से जलने वाली दियासलाई से प्रज्जवलित तो करें । यदि आप ऐसा कर सके हैं तो देखिएगा कि आपके जीवन में ऐसी रोशनी फैलेगी जो आपके बाहर के ही नहीं भीतर के अंधकार को मिटा देगी।

 12/2, कोमल नगर, बरवड़ रोड,
रतलाम- 457001
मो.9827084966

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *