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पुस्तक चर्चा : रोशनी फैला रहे हैं ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’

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 आशीष दशोत्तर

नवगीत को जन-जन तक पहुंचाने और जन-जन की बात को नवगीत के ज़रिए आवाज़ देने की कोशिश हिंदी में जो नवगीतकार कर रहे हैं उनमें मनोज जैन का नाम प्रमुख है । वे नवगीत को लेकर बहुत गंभीर भी हैं और संवेदनशील भी। काफी सारे प्रयास नवनीतकारों को लेकर वे निरंतर कर रहे हैं। अपने वरेण्य नवगीतकारों को जन -जन तक पहुंचाने का कार्य भी कर रहे हैं और साथ ही अपनी अभिव्यक्ति में भी निखार ला रहे हैं । हाल ही में प्रकाशित उनका नवगीत संग्रह ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ काफी पसंद किया जा रहा है।

मनोज जैन की सकारात्मक दिशा और कहन शैली उन्हें बेहतरी की ओर अग्रसर करती है। वे अपने परिवेश और प्रकृति से जुड़े रचनाकार हैं। सृजन की ताक़त उन्हें यहीं से मिलती है । वे कहते हैं ” इस अलौकिक मुग्धता पर/ रीझते हैं चांद तारे /याद में आए उतर जल बिंब में/ तिरते शिकारे/ फागुनी संदेश देती/ पुष्पदल से लदी डाली।”

संग्रह का प्रत्येक नवगीत एक नई ताज़गी लिए हुए है । मनोज जैन की रचनात्मक पहुंच बहुत भीतर तक छुपी हुई चीज़ों को निकाल लाती है । यही एक रचनाकार का दृष्टिकोण होता है कि वह ज्ञात में से कुछ ऐसा अज्ञात ढूंढ लाए जो पूरे परिवेश को चित्रित कर दे। मनोज जैन इस कला में बहुत आगे जाते नज़र आते हैं।

हाथ पर सरसों जमाना
तूल देना छोड़ देना ,
हम न अब तक सीख पाए
व्यर्थ में मन तोड़ देना
साक्षी स्वर को बनाएं
और अपने मन टटोलें।

मनोज जी के नवगीतों में मानवीय संवेदनाएं हैं, करुणा है ,श्रंगार है ,प्रकृति चित्रण है, हमारे दरकते रिश्तों की दरकार है।  साथ ही अपनी साहित्यिक धरोहर को बचाने की जिजीविषा भी है। उनके नवगीत सीधे-सीधे बात करते हैं और कई सारे सवाल भी उठाते हैं। मनुष्य के होते पतन और साथ ही नैतिक अभाव का भी ज़िक्र वे अपने नव गीतों में करते हैं । राजनीति की विद्रूपताएं मनुष्य को किस तरह प्रभावित कर रही हैं, हमारे जीवन से मूल्य किस तरह तिरोहित हो रहे हैं, इन सब कु चिंता मनोज जी के नवगीतों में दिखाई देती है।

पांव को बाधा दिखाई ,हाथ को डंडे,
दे दिए बैनर किसी ने दे दिए झंडे ।
हो सके कब विश्व के हम, या कि कब घर-द्वार के
हम बहुत कायल हुए हैं, आपके व्यवहार के।

अमूमन हम जो कुछ भी कह रहे हैं वह पहले कहा जा चुका है। सिर्फ कहने का अंदाज़ और सलीका ही हमारी रचनाशीलता को एक नई पहचान प्रदान करता है । मनोज जी उन नवगीतकारों में शामिल हैं जो अपनी आवाज़ को बहुत सलीके से पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। वे अपनी शैली, सलीके और अपनी प्रस्तुति से एक ऐसी रचना की कामना करते हैं जिसमें कुछ नवीनता हो , कुछ नया सलीका हो,कुछ नया आभास हो, कुछ नया एहसास हो।

करना होगा सृजन बंधुवर हमें लीक से हटके
दिखा आइना जो सत्ता का पारा नीचे कर दे
जो जन-गण के पावन मन को समरसता से भर दे,
शोषक शोषण का विरोध जो करे निरंतर डट के।

समय के साथ मनुष्य की प्रवृत्ति में आ रहे बदलाव को इन नवगीतों में आवाज़ मिली है। मनोज जी मनुष्य में आ रहे बदलावों को तो निरूपित करते ही हैं साथ ही एक चेहरे पर लगे कई चेहरों को भी उजागर करते हैं।
दरअसल एक रचनाकार समाज में व्याप्त ऐसी विषमताओं को सामने लाने की कोशिश अपनी रचनाओं में कथता है । उसकी रचना की सार्थकता तभी होती है जब उसके ज़रिए समाज की विषमताएं सामने आ सकें। मनोज जी इस ध्येय में सफल होते नज़र आते हैं । उनके नवगीत सीधे बात करते हैं और बहुत सहज और सरल शब्दों में अपने संदेश को बहुत दूर तक पहुंचाते हैं।

सोया है जो तन के अंदर उसे जगाओ जी
अब चेहरे पर नया मुखौटा नहीं लगाओ जी ।
तिल का ताड़ बनाया तुमने कभी फूल को डाली, खुद को छलते रहे बजाकर एक हाथ से ताली, कागज़ के फूलों से जीवन मत सरसाओ जी।

मनोज जी अपने 80 गीतों में अलग-अलग रंगों में नज़र आते हैं। उन्होंने अपने रिश्तों को छुआ है। अपनी प्रकृति के पास गए हैं ।अपनी गलियों की गुमसुम होती आवाज़ को सुनने की कोशिश की है। अपनी पगडंडियों को पहचानने का प्रयास किया है, और सबसे ख़ास एक ऐसी भाषा को आवाज़ देने की कोशिश की है, जो धीरे-धीरे मौन में तब्दील होती जा रही है। वे अपने गीतों के ज़रिए आपसी संवाद और रिश्तों के महत्व को कायम रखने के पक्षधर दिखाई देते हैं।

क्या सही, क्या है ग़लत इस बात को छोड़ो ,
मौन को तोड़ो ।
रचें मिलकर एक भाषा
राग की अनुराग की ,
जो कभी बुझती नहीं
उस प्रीत वाली आग की ।
कामना के पंथ में तुम प्रेम-रथ मोड़ो।

मनोज जी के नवगीतों पर पंकज परिमल, प्रो. रामेश्वर मिश्र, राजेंद्र गौतम,  कैलाश चंद्र पंत एवं श्री कुमार रविंद्र की महत्वपूर्ण टिप्पणियां उनके नवगीतों को प्रमाणित करती हैं। ब्लर्ब में महेश्वर तिवारी ने बहुत ही खूब कहा है कि, ‘मनोज जैन ऐसे गीत कवि हैं जो गीत मात्र लिखते ही नहीं गीतात्मक क्षणों को जीते भी हैं ।इसलिए अपनी दैनंदिन सहज जीवन यात्रा में जिन राजपथों, पगडंडियों, गलियों, चौराहों से होकर गुज़रते हैं वहां से अपनी अनुभूतियों में कथ्य संजो लेते हैं।’ स्वयं मनोज जैन ने अपने आत्मकथ्य में इस बात को रेखांकित किया है कि समय के साथ चलते हुए रचे नवगीत की ताक़त ही उनकी थाती है। मनोज जी की यह सृजनशील अभिव्यक्ति निरंतर बनी रहे और इसमें अभिवृद्धि हो यही कामना है।

 12/2, कोमल नगर
बरवड रोड, रतलाम-457001
मो. 9827084966

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