मुद्दे की बात : आदिवासियों के हक की हुंकार, जनप्रतिनिधि सहित प्रशासनिक अधिकारी लाचार
हेमंत भट्ट
आदिवासी समाज हक के लिए हुंकार भरने को तैयार हैं। संभावित तारीख तो 22 अगस्त सोमवार है। हालांकि इसके पूर्व से ही जनप्रतिनिधि और जिला प्रशासन के आला अधिकारी मान मनव्वल में जुटे हुए हैं। गांव गांव भ्रमण कर रहे हैं। करीब 15 सौ हेक्टेयर क्षेत्र में औद्योगिक विकास करने की मंशा है। इसलिए उनके सामने लाचार है। गिड़गिड़ा कर बता रहे हैं कि किसी को कोई दिक्कत नहीं होगी। हम निजी जमीन नहीं ले रहे हैं। सरकारी जमीन ही लेंगे। और तो और आप सभी लोगों को रोजगार भी मिलेगा। लेकिन यह बात आदिवासी बहुल समाज कितनी समझ पाया है यह तो कोई भी नहीं बता सकता, लेकिन यह बात तय है कि जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों का ही अधिकार है। वे अपनी जमीन को देने के पक्ष में कतई नजर नहीं आ रहे हैं।
22 साल पहले भी आदिवासी बहुल समाज राजस्थान में लामबंद हो गया था और जिम्मेदार लोग इतना मजमा देखकर हैरान परेशान हो गए थे कि आखिर यह एकता कैसे और क्यों हो गई? राजस्थान वाला दृश्य रतलाम में भी निर्मित हो सकता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।
वनों पर आश्रित है आदिवासी तबका
समस्याग्रस्त लोग वनों में रहने वाले आदिवासी हैं जिनकी आबादी का 95 प्रतिशत भाग वनों एवं पहाड़ी क्षेत्रों में रहता है तथा जो देश की कुल आबादी का 8 प्रतिशत है। 90 प्रतिशत से ज्यादा की आबादी गरीबी की रेखा के नीचे का जीवन जी रही है। अशिक्षा, बेरोजगारी, भूमिहीन तथा मुख्यधारा से कटा हुआ यह तबका केवल वनों पर आश्रित है तथा छोटी जोतों और वन उपज के सहारे अपना जीवन-यापन कर रहा है।
देखा जाए तो छीना जा रहा है अधिकार
देखा जाए तो जल, जमीन और जंगलों पर से आदिवासियों का अधिकार छीना जा रहा है। निजी कंपनियां इस पर तेजी से कब्जा कर रही हैं। आदिवासी जंगल अधिकार कानून 2006-एक हाथ दे और एक हाथ ले वाली कहावत को चरितार्थ करता है। इसके तहत आदिवासियों को अधिकार तो मिलेंगे, लेकिन इसका उपयोग करने से पूर्व ही अन्य नीतियों और कार्यक्रमों की वजह से जल, जंगल और जमीन पर दूसरे लोगों का कब्जा हो चुका होगा। इसी आशंका के चलते जिले की बाजना और सैलाना बहुल आदिवासी तहसील में रहने वाले आदिवासी समाज ने जागरूकता के साथ मैदान में डटने की ठान ली है। हालांकि जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया जा रहा है उन्हें यह भी बताया जा रहा है कि 10 से 25000 लोगों को रोजगार मिलेगा। क्षेत्र का विकास होगा। इस पर आदिवासियों का कहना है कि हमें तो केवल मजदूरी ही मिलेगी। मालिक तो वे रहेंगे। हम मालिक होकर भी मजदूर बन जाएंगे, यह हमें कुछ नागवार गुजर रहा है। धीरे-धीरे हमारी सांस्कृतिक विरासत में भी हस्तक्षेप करेंगे। हमारा रहन-सहन चाल चलन पहनावा और ना खान-पान सब कुछ प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। वैसे भी दोनों तहसील में जयस का बोलबाला है। इसका ट्रेलर जिला पंचायत चुनाव में देखने को मिला ही है। सरकार की अनदेखी से आदिवासी समाज के बीच एक हिंसात्मक गुट उभर रहा है। जो अपने स्वाभिमान और अधिकारों को पुन: स्थापित करना चाहता है। संघर्षशील आदिवासियों ने ने 22 अगस्त सोमवार को प्रदर्शन करने की हुंकार तो भरी है यह तो वक्त ही बताएगा कि क्या होता है?
अरबों रुपया खर्च होने के बावजूद जनजातियों का विकास नहीं
संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी आदिवासी समाज का कहना है कि
प्रकृति के नियमों को तोड़ा गया, तो तबाही होगी। मानवीय मूल्यों को ध्यान में रखकर विकास की योजनाएं बनाई जानी चाहिए। जल, जंगल और जमीन का संरक्षण जरूरी है। अरबों रुपया खर्च होने के बावजूद जनजातियों का विकास नहीं हो पाया है। इस पर ध्यान देना होगा। आदिवासियों का हक छीनने से उनका विकास नहीं होगा।
नहीं करेगी भावी पीढ़ी कभी माफ
इतिहास गवाह है कि इन क्षेत्र के आदिवासी जंगलों के मालिक थे, जब वे जंगलों के मालिक थे, उस समय इस क्षेत्र में सघन वन थे। आजादी से पूर्व की पीढ़ी के लोगों की जेहन में अभी भी सघन वनों की तस्वीर विद्यमान है। जैसे ही वन आदिवासियों के अधिकार से निकल कर वन विभाग के हाथ में आये हैं और इस क्षेत्र के वनों की जो दुर्गति हुई है, उसके लिये इतिहास तथा भावी पीढ़ियाँ कभी भी जिम्मेदार लोगों को माफ नहीं करेगी।
इतना सा भी नहीं रखा जा रहा है ध्यान
मुद्दे की बात यह भी है कि आदिवासी बहुल क्षेत्र बाजना क्षेत्र में मालवा और प्रदेश का प्रसिद्ध श्री गढ़ खंखाई माताजी का मंदिर है, शक्तिपीठ है लेकिन व्यवस्था के नाम पर जिम्मेदार अधिकारी कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। सुविधाओं के लिए मोहताज हैं। नवरात्रि में मेला लगता है लेकिन सुविधाओं का ख्याल नहीं रखा जाता। वर्तमान में भी यही दिक्कत आ रही है। अक्सर छुट्टी वाले दिन शहरी क्षेत्र से लोग माही नदी और मंदिर तक जाते हैं लेकिन उन्हें पार्किंग की कोई सुविधा नहीं मिलती। इसलिए वे अपनी गाड़ियों को सड़क पर इधर-उधर पार्क करके चले जाते हैं और परेशानी आदिवासी समाज को होती है। इस बात को सैलाना और बाजना एसडीएम भी जानते हैं लेकिन कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई। माताजी घाट कटिंग और चौड़ीकरण के बाद सड़क बनना है लेकिन काम काफी धीमी गति से चल रहा है। इस कारण बाजना का आवागमन काफी जटिल और खतरनाक बना हुआ है। इस मामले में भी जिम्मेदार ध्यान नहीं दे रहे हैं। जबकि आदिवासी क्षेत्र में कार्य करने वाले हजारों लोग रोज आवागमन करते हैं और खराब मार्ग के कारण दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। खासकर बारिश में तो जान हथेली पर लेकर ही यात्रा होती है।
राजापुरा गढ़ खनकाई माताजी में पार्किंग का एक नजारा
फोटो : सुरेश टांक