कुछ खरी खरी : शहर की सफाई में करोड़ों की सैलरी बाट दो, लाखों रुपए किराए की मशीन लगा दो, फिर भी सड़कों पर कचरे और गोबर से सजावट, क्योंकि महापौर ने दे दी मक्कारी की छूट

हेमंत भट्ट

शहर की सफाई व्यवस्था में प्रतिमाह नगर निगम के कर्मचारियों को करोड़ों रुपयों की सैलरी वितरित किए जा रही है फिर भी सफाई व्यवस्था लचर की लचर है। अब तो महापौर जी ने तो लाखों रुपए महीना किराए की मशीनें भी लगा दी ताकि सड़कें चकाचक रहे, लेकिन इसके बावजूद भी ऐसा संभव नहीं होगा क्योंकि स्वयं महापौर जी ने ही सफाई कर्मचारियों को काम करने में मक्कारी करने की छूट जो दे दी है। भले ही उन्होंने आटे में नमक बराबर मक्कारी करने की छूट दी है लेकिन यह छूट ही उन्हें फुल्ली मक्कारी का मार्तंड बनाने के लिए काफी है। अभी तो शहर की सड़कें सफाई से चकाचक नहीं अपितु गोबर और कुत्तों की गंदगी से सज रही है। गली शहर के मुख्य बाजार हो या गली मोहल्ले सब के सब गोबर और कुत्तों की गंदगी से सराबोर है। सफाई कर्मचारी भी इन्हें छोड़ कर कभी कबार झाड़ू निकाल कर चले जाते हैं।

लोकेंद्र भवन मार्ग की फोरलेन कचरे से सराबोर

… आखिर वे सभी निर्वाचित कहां है सक्रिय

नगर निगम परिषद के निर्वाचन हुए 2 महीने पूरे हो गए हैं। इसके बावजूद वार्ड के पार्षद अभी भी नदारद हैं जबकि शहर विधायक ने उनकी क्लास ले ली और नसीहत देते हुए काम करने की सीख भी दी है लेकिन उन्होंने तो एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया है, ऐसा ही लग रहा है क्योंकि शहर की विभिन्न वार्डों के पार्षद कहीं भी सक्रिय नजर नहीं आ रहे हैं। यदि आ रहे होंगे तो वह केवल उन कार्य को करवाने में ही लगे हुए हैं, जिनसे गांधी दर्शन हो सके।

वार्ड जनप्रतिनिधियों के भी बनने चाहिए रिपोर्ट कार्ड

यदि भविष्य में शहर विधायक को चुनाव जीतने की अभिलाषा है तो उन्हें महापौर और पार्षदों की रिपोर्ट कार्ड बनवाने चाहिए ताकि पता चले कि पार्षद क्या कर रहे हैं? महीने अथवा 15 दिन में उनकी कार्यप्रणाली का मूल्यांकन करना जरूरी है, तभी शहर में कुछ हो सकता है। वरना जो दशकों से चल रहा है, वहीं इस बार भी चलेगा। लाखों लोग परेशान होते रहेंगे और वार्ड की जनता की सेवा के नाम पर निर्वाचित हुए जनप्रतिनिधि केवल वार्ड पार्षद का तमगा लेकर ही घूमते रहेंगे और वार्ड के लोग दिक्कतों में जीने को मजबूर होते रहेंगे। जिसका खामियाजा कुछ भी हो सकता है।

… और बिना चलाएं खराब हो गए सिग्नल

यूं तो यातायात के लिए शहर में काफी चौराहे हैं, जहां पर सिग्नल लगना जरूरी है लेकिन कई सालों से केवल दो बत्ती पर ही यातायात सिग्नल नजर आ रहा था जो कि काम नहीं कर रहा था लेकिन उसकी देखरेख में लाखों रुपए खर्च जरूर हो रहे थे। बंद पड़े सिग्नल पर भी लाखों का खर्च अपने वालो को लाभ पहुंचाने का अच्छा कि नहीं बहुत अच्छा प्रयास जिम्मेदार करते रहते हैं सिग्नल चालू हो सकते थे लेकिन उसमें जिम्मेदारों को उतना नहीं मिलता, जितना कि नहीं सिग्नल को स्थापित करने में कुछ हासिल हो रहा है। इसीलिए पुराने सिग्नल के लिए मेंटेनेंस का खर्च करने के बावजूद भी उनको ठीक नहीं रख पा सके जिम्मेदार और नए सिग्नल के लिए लाखों रुपए मंजूर कर उन्हें स्थापित किया जा रहा है। भले ही इससे यातायात व्यवस्था सुधरे या न सुधरे मगर जिम्मेदारों की आर्थिक दशा जरूर सुधरेगी। इसमें जिम्मेदार चाहे जनप्रतिनिधि हो या सरकारी अमला उनको तो मिल रहा है बिना काम के हलवा। यातायात व्यवस्था को बदस्तूर जारी करने के लिए विभाग के पास अमला भी है लेकिन चौराहों पर नदारद ही रहता है। आखिर अमला क्या करता है, यह सब लोग जानते हैं। मगर जिस कार्य के लिए अमले को तैनात किया गया है। वह कार्य ही वे नहीं करते हैं।

सबको दिख रहा है लेकिन जिम्मेदार धृतराष्ट्रों को नहीं

शहर की यातायात व्यवस्था बद से बदतर हो रही है। सबको पता है कि शहर में पसरा अतिक्रमण ही बाधक बन रहा है लेकिन यह इतनी सी बात जिम्मेदार धृतराष्ट्रों को नजर नहीं आ रही है। दुकानदारों की मनमानी पर नियंत्रण रखने में जिला प्रशासन पंगु बना हुआ है। उनकी एक नहीं चल रही है। कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ा कर रखी है दुकानदारों ने। बावजूद इसके वे कार्रवाई करने में आखिर क्यों पीछे हट रहे हैं। इसे आज तक कोई नहीं समझ पाया है। चाहे दुकानदार अपने घर के आगे चार पहिया वाहन से अतिक्रमण कर यातायात व्यवस्था को प्रभावित करें या फिर अपने सामान से। और तो और फुटपाथ तो दुकानदारों ने अपने बाप की जागीर समझ ली है जबकि फुटपाथ आमजन के चलने के लिए है लेकिन आमजन को सड़क पर चलना पड़ रहा है। नतीजतन वाहन चालक और पैदल चलने वाले परेशान हैं। देखने वाले सभी हैरान हैं लेकिन जिम्मेदार फिर भी अनजान है। शहर के लोगों की यातायात समस्या से जिम्मेदारों को कोई लेना देना नहीं है वे केवल आदेश निकालते हैं। आदेश का पालन करवाने में उनकी कोई रुचि नहीं है। यातायात व्यवस्था को बिगाड़ने में अहम भूमिका का निर्वाह शहर में चलने वाले ऑटो रिक्शा और मैजिक है जो की सवारी की खोज में टहलते रहते हैं। उनको आम जनता की तकलीफ से कोई मतलब नहीं, जब जी चाहा, जहां जी चाहा खड़े हो गए। इनके कारण लोग परेशान होते हैं और कुछ लोग बोलते हैं तो यह रंगदारी दिखाने पर उतारू हो जाते हैं।

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