पुस्तक समीक्षा : फैशन डिजाइनर की किताब में कविताओं के  रंग

⚫ नरेंद्र गौड़

साहित्यिक दुनिया में इन दिनों प्रगतिशील और जनवादी विचारधारा का बोलबाला है। रसछंद अलंकार से मुक्त होकर कविता जनता के बीच आवाजाही करती, उसके दुख दर्द को समझती खुले आसमान के नीचे धड़क रही है।  आधुनिक कविता का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों विचारधाराओं में बंटा हुआ है, लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, मीरा मेघमाला का कवि घोषित रूप से न तो प्रगतिशील और न जनवादी है, इसके बावजूद इनकी कविताएं सत्ता के राजमहल की तरफ से बह रही बेहद गरम और दमघोटू हवा के खिलाफ ही नहीं उसका सामना भी कर रही हैं।

यह कविताएं साबित करती हैं कि जनता के पक्ष में लिखने के लिए मानवीय संवेदनशीलता ही पर्याप्त है। उसके लिए न कम्युनिस्ट पार्टी का मेनिफेस्टो पढ़ना जरूरी हैं और न किसी वामपंथी लेखक संघ का सदस्य होना! कविता की तासीर ही मानवीय होती है जो श्रम से निकले पसीने की वजह से महकती है। मीराजी की रचनाशीलता और लेखकीय क्षमता से कोंकणी और कन्नड़ भाषा जानने-समझने वाले लोग भलीभांति परिचित हैं। कन्नड़ भाषा में इनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित और चर्चित हो चुके हैं। इसके अलावा कई सारे वेब पार्टल्स, पत्रिकाओं में कॉलम, लेख, अनुवाद, कहानियां कविताएं छप चुकी हैं, लेकिन ‘एक मुजरिम का बयान’ हिंदी में इनका पहला कविता संकलन है।

उसे न्याय की प्रतीक्षा लम्बे समय से

फैशन डिजाइनर होने की वजह से इन्होंने एक मुजरिम के कपड़े कुछ इस तरह डिजाइन किए हैं कि उसमें उसका भोगा हुआ सच और उसके जीवन के विविध रंग, सुख- दुख सभी कुछ टटोले जा सकते हैं। इनकी कविता में एक ऐसा मुजरिम है जो निरपराध होकर भी मुजरिम करार दिया गया है और उसे न्याय की प्रतीक्षा लम्बे समय से है। उसे पूरा भरोसा है कि एक दिन उसकी जीत होकर रहेगी। इन दिनों यह मुजरिम पैरोल पर है और मीराजी के सिले हुए कपड़े पहनकर समाज में घूम रहा है। देखा जाए तो भूख, गरीबी, बेरोजगारी और सत्ता के जल्मों की वजह से देश के अधिकांश लोगों की हालत भी इन दिनों किसी मुजरिम से कम नहीं है। उसके चारों तरफ सत्ता के हजारों नियमों और कानूनों की ऊंची दीवार है। मीराजी ने अपने इस संकलन में देश के करोड़ों लोगों के दर्द को न सिर्फ़ पहचाना है, वरन उन्हें  उम्मीद के कपड़े पहनाकर तन भी ढं़का है, उनका मन भिंगोया है। हालांकि संकलन में वह खुद मुजरिम हैं, लेकिन कोई भी शब्द जब रचाव की दुनिया में प्रकट होता है, तब वह सार्वजनिक हो जाता है। इस मायने में मीराजी की तकलीफ, उनके व्दारा संकलन में बोली गई भाषा भारत ही नहीं विश्वभर के करोड़ों बेबस लोगों की जुबान का तर्जुमा है। वे तमाम न्याय की प्रतीक्षा में  हैं और उसका जजों की बैंच से यही कहना है कि ’उन्होने उसे पेट पर लात मारी, मैंने दर्द के मारे चीखने की जुर्रत की‘!
आप जो भी सजा सुनाएंगे
वो मैं भुगतने को तैयार हूं!
लाचार जरूर हूं साहब कायर नहीं हूं!

कविताएं झकझोरती है पाठक के मन को

इस संकलन की अनेक कविताएं पाठक के मन को झकझोर कर रख देती हैं और इन्हें पढ़ने के लिए साहस की आवश्यक्ता है। अपने बुरे वक्त का सामना कर रही इन कविताओं का यह बुरा वक्त केवल अकेले मीराजी का नहीं होकर उन अरबों खरबों लोगों का भी है, जो कि सत्ता के प्रपंचों के छलावे में यंत्रणाएं भुगत रहे हैं। पेट भरने के लिए रोटी चुराना पड़ जाए, इससे बड़ी तकलीफ भला और क्या हो सकती है? यह हालत आज सत्तातंत्र की वजह से देश दुनिया के अनेक लोगों की हो चुकी है, लेकिन-
गरीब का रोटी चुराना
तो यह चोरी नहीं कहलाएगी
बल्कि, अपने हक के लिए
लड़ी गई क्रांति कहलाएगी

असुरक्षा की गहरी खाई

इस संकलन की एक दो नहीं अनेक कविताएं कवि के आत्मबल और अदम्य साहस का परिचय देती हैं। निश्चय ही ऐसी किताब अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचना चाहिए और यह जिम्मेदार लोगों का नैतिक दायित्व बनता है। अपने समय से बात करती हुई इस संकलन की कविताएं असुरक्षा की गहरी खाई में धकेल दिए गए लोगों की हालत का सीधा बयान करती हैं। मीराजी की कविताएं कई जगह बहुत मार्मिक हैं। इनमें एक ऐसी मां भी है जो अपने बच्चों के पेट की आग बुझाने की खातिर पत्थर को इस उम्मीद में उबाल रही है कि काश! वह चावल में बदल जाए-
वो मन नही मन
भगवान से मन्नत मांगती थी
कि चूल्हे पर बर्तन में
उबालने रखा जो पत्थर है
वो चावल बन जाए!

उन औरतों का दर्द भी है किताब में

यह दारूण स्थिति आज भारत सहित तीसरी दुनिया के उन देशों की भी है, जहां की सरकारें लोगों के मुंह में निवला देने के बजाए, उन्हें जाति धर्म के नाम पर एक दूसरे के खून का प्यासा बना रही हैं। इस संकलन की अनेक कविताओं में पति और बच्चों की उपेक्षा की वजह से मानसिक यंत्रणा भोग रही एक औरत का चित्र बारबार आता है, लेकिन वह टूटने और हताश होने के बजाए उन्हें चुनौती देती है। इस किताब में उन औरतों का दर्द भी है जो घर परिवार को सुखी देखने की चाहत में रात- दिन खटती हैं, लेकिन अपने लिए सांत्वना के दो बोल सुनने को जीवन भर तरसती हैं।
खाना बनाती है
वह तंदुरूस्त हो या बीमार
आखिरी सांस तक
वह खाना बनाती है
’तुम भी वक्त पर खाया-पीया करो’
यह भूलकर भी कभी न पूछता हो
ऐसे शख्स के लिए
वह खाना बनाती है!

श्रमिकों के दिनों दिन बढ़ते शोषण की लाली

मीरा मेघमाला की कविताएं कई जगह सर्वहारा के जीवन की कठोर सच्चाई बयां करती है, हालांकि यह अपने बहाने किया गया सामान्य तरीका है, लेकिन कवि के सच को सार्वजनिक अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। सत्ता समर्थित बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों व्दारा श्रमिकों के दिनों दिन बढ़ते शोषण की काली छाया भी कविताओं में अप्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है। किसी विचारधारा का घोषणा पत्र अपनी कविताओं को बनाने के बजाए मीराजी प्रकृति से मिले उपादानों का ऋण बेशकीमती रचनाओं के माध्यम से चुकाती नजर आती हैं।
तू रूक थोड़ी देर
चिड़ियों की आवाज़
मैं सुन तो लूं
चहक क्या और चीख क्या
फर्क जरा समझ तो लूं!

सुख- दुख के रंग भरे

संकलन में घर परिवार यहां तक की पति बच्चों की उपेक्षा का दंश झेलती और बारबार उभरती है, वह लड़ती झगड़ती है, लेकिन वह कहीं भी टूटती नहीे हैं। वह आत्म निर्भर है और यहां तक इतनी कि आसमान को विशाल कपड़ा समझ नए जमाने के चलन के हिसाब उस पर से चांद, सितारे, ग्रह, नक्षत्र और आकाशगंगा टांकते हुए उनका स्थान नियत करने की क्षमता भी रखती है। यह संकलन एक फैशन डिजाइनर का है और उसने जमाने के चलन के हिसाब से उसमें सुख- दुख के रंग भरे हैं। सातों रंगों से सजी धजी इस संकलन की दुनिया रंगारंग भी है और वक्त की मार के कारण बदरंग भी है। यह कविताएं आक्रामक भी हैं और अपने खिलाफ बह रही हवा का भरपूर क्षमता के साथ सामना भी करती हैं। एकदम आसान लेकिन मारक भाषा में लिखी गई यह कविताएं आसानी से भूलती नहीें हैं। इन्हें उद्धरण नहीं बनाया जा सकता है। संकलन की अनेक कविताएं उल्लेखनीय हैं, मसलन-निशान बचा नहीं, एक सवाल है तुमसे सिपाही, बेटी को, समुंदर का वजूद, मेरे गांव से खबरें आ रही हैं, प्रेम नाम है उस दरवाजे का, घोर अपराध प्रेम ही था, चुम्बन के सुराग, घर से भागी औरत, कहानी सुनाते हो तुम आदि। वैसे सच तो यह है कि संकलन की 81 कविताओं में से अधिकांश महत्वपूर्ण हैं। हर एक कविता का तेवर अलग है। भाषा उत्तेजना रहित होकर भी शांत लेकिन बहुत सवालिया और मारक है। वह एक वकील की तरह जिरह करती है और सामने वाले को अपने तर्कों के दम पर निरूत्तर कर देती है।

दक्षिण की यह लेखिका हिंदी में भी

दक्षिण की यह लेखिका हिंदी में भी इतनी बढ़िया कविताएं लिख लेती है, यह आश्चर्य संकलन पढ़ते वक्त शुरू से अंत तक बना रहता है। कर्नाटक के शिवमोगा जिले की तीर्थहल्ली तहसील में जन्मी मीरा मेघमाला कन्नड़ एवं कोंकणी भाषा के रचनाकारों में कादम्बिनी रावी के नाम से भी जानी पहचानी जाती हैं। देश विदेश में घटित हो रही घटनाओं को लेकर मीराजी फेसबुक पर जो टिप्पणियां लिखती हैं, उन्हें खूब सराहा जा रहा है। यह संकलन अमेजन पर भी उपलब्ध है।

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संकलन  : एक मुजरिम का बयान
कवयित्री : मीरा मेघमाला (कादम्बिनी रावी)
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन,
नई दिल्ली-110012

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