आइए, एक साधक की कुटिया में कुछ पल जी लें

आशीष दशोत्तर

नन्हे बच्चे अपने हाथों में कलम और स्लेट लिए बैठे पढ़ाई कर रहे हैं। आसपास कुछ बकरियां घूम रही हैं। मुर्गे-मुर्गियों को भी देखा जा सकता है । वातावरण बिल्कुल शांत है। चिड़िया की चहचहाहट कानों में मधुरता घोल रही है।

इस नीरव  वातावरण में आकर ऐसा लगा जैसे किसी तीर्थ में आ गए हैं। यह भी कोई तीर्थ से कम है क्या?  एक ऐसे व्यक्तित्व की साक्षी रही इस स्थली को किसी तपोभूमि से कम नहीं माना जा सकता। बार-बार यह सोच कर आश्चर्य भी होता है कि एक ऐसा व्यक्ति जो यहां जन्मा नहीं , मगर यहीं का होकर रह गया।  जिसने यहां की आबोहवा , संस्कृति और स्वरूप को कभी देखा नहीं वह यहां आकर उनमें इस तरह रम गया जैसे वह यहीं का हो।  यहां के लोगों के दिल में उस व्यक्ति के प्रति इतनी श्रद्धा कैसे आई कि यहां के लोग उस व्यक्ति को भगवान की तरह पूजने लगे । कई सारे सवाल भीतर घुमड़ रहे थे और कदम उस वातावरण में आगे बढ़ रहे थे।

समाजवादी आंदोलन के आधार और आदिवासियों के मसीहा के रूप में पहचाने जाने वाले मामा बालेश्वर दयाल (10 मार्च 1905 – 26 दिसंबर 1998) के भील आश्रम में बढ़ता हर कदम  एक नया रोमांच भर रहा था। सामने से आ रहे मूर्ति भाई ने आत्मीयता से स्वागत कर इस रोमांच को और अधिक कर दिया। वे बहुत सत्कार के साथ आश्रम के भीतर ले गए और मामा जी से जुड़ी हर बात और हर स्थान का विशद वर्णन करते रहे।

देश की राजनीति में समाजवादी आंदोलन

देश के समाजवादी आंदोलन के अग्रणी जिनके नाम के साथ अपना नाम लगाने को सौभाग्य समझते रहे हों, भारतीय राजनीति में जिसका कद बहुत ऊंचा रहा हो, क्षेत्रीय लोगों के बीच जिसकी कही हुई हर बात को आप्तवाक्य की तरह ग्रहण किया जाता रहा हो, ऐसा व्यक्ति एक छोटे से कमरे में अपना जीवन बिताता रहा । आज भी वो कक्ष मौजूद है जहां मामा बालेश्वर दयाल रहा करते थे, उसी स्वरूप में और उसी रंग में।  देश की राजनीति में समाजवादी आंदोलन ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । मामा बालेश्वर दयाल समाजवादी आंदोलन के अग्रणी नेताओं में शामिल रहे ।  उप्र के इटावा में जन्मे बालेश्वर दयाल वहां से बामनिया आकर ‘मामा’ बालेश्वर दयाल हो गए उन्होंने आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ी। 1937 में बामनिया में डूंगर विद्यापीठ भील आश्रम की स्थापना की थी। उन्होंने सक्रिय राजनीति में कभी हिस्सा नहीं लिया मगर वे राज्यसभा के सांसद रहे। बामनिया में उनके भीम भील आश्रम पर कितने ही समाजवादी नेताओं का आना-जाना रहा, मगर वे इस सबसे बेख़बर रहकर क्षेत्र के लोगों के जीवन स्तर को उठाने में लगे रहे।  उन्होंने आदिवासियों को कुप्रथाओं से मुक्त किया। शराब छुड़वाने के लिए उन्हें जनेऊ धारण करवाई।  मामा बालेश्वर दयाल स्वयं एक ब्राह्मण परिवार से थे मगर उन्होंने आदिवासियों के बीच एक भगवान का दर्जा पाया। न सिर्फ दर्जा पाया बल्कि आज भी इस पूरे अंचल में मामा जी के नाम को मानने वाले हज़ारों लोग मौजूद हैं । ये लोग अपने हर काम की शुरुआत मामा जी के आश्रम में आशीर्वाद प्राप्त कर करते हैं। जब इनकी यहां फसल उत्पादन होता है तो सर्वप्रथम फसल यही चढ़ाते हैं। अपने किसी भी कार्य की शुरुआत यहीं से करते हैं । और तो और चुनाव के दौरान मामा जी के नाम पर आज भी हजारों वोट पड़ते हैं । यह एक व्यक्ति की विशालता, उसकी लोगों के प्रति समर्पित भावना और उसके वैचारिक प्रतिबद्धता को प्रमाणित करता है।

बामनिया में अपनी कुटिया में ही ली आखिरी सांस

मामा जी ताउम्र समाजवादी ही बने रहे । सुविधाओं ने उन्हें विचलित नहीं किया। राज्यसभा के पूर्व सांसद होने के बावजूद कभी बड़े अस्पतालों में इलाज नहीं कराया।अंतिम समय में सरकार ने जबरन उन्हें रतलाम इलाज के लिए भेजा, लेकिन वे ज्यादा दिन यहां नहीं रुके और आखिरी सांस बामनिया में अपनी कुटिया में ही ली। मूर्ति भाई यह बताते हुए काफी भावुक हो जाते हैं।  वे यह भी बताने से नहीं चूकते कि मामाजी ही उन्हें यहां एक बच्चे के रूप में लाए और इस काबिल बनाया कि वह आज उनकी स्मृतियों को संभाल रहा है । वे बताते हैं कि कार्तिक शुक्ल बैकुण्ठ चतुर्दशी पर भक्तगण इस आश्रम पर बहुत अधिक संख्या में आते हैं। यह त्योहार मामाजी द्वारा चालू किया गया , जो अभी भी जारी है।  प्रतिवर्ष श्रद्धालु मिलते हैं और मामाजी के कार्यों को एवं सिद्धांतों पर गहनता से चर्चा होती है एव उनके कार्यकर्ताओं द्वारा समाज में क्रियान्वित रूप देने के लिए शपथ ली जाती है। आश्रम में ही स्थित मामा जी की आदमकद प्रतिमा के क़रीब हम पहुंचते हैं। वहां पहुंचकर महसूस होता है कि मामा जी आज भी यहां मौजूद हैं। हर वर्ष उनकी पुण्यतिथि पर यहां हज़ारों की संख्या में मामा जी के अनुयायी एकत्रित होते हैं।  मूर्ति भाई उस दृश्य को अपनी आंखों में क़ैद पलों के ज़रिए बताने की कोशिश करते हैं और हम अपने भीतर उन स्मृति चित्रों को जीवंत होते महसूस करते हैं।

मानसिक उड़ान का विजय नृत्य

मामा जी का वैचारिक पक्ष बहुत प्रबल था। वे समय की तराज़ू पर अपने प्रत्येक शब्द को रखते थे और फिर कुछ बोलते थे । उनके सानिध्य में रहे लोग इस बात को बेहतर समझते हैं । उन्होंने कवि नटवरलाल ‘स्नेही’ की पुस्तक ‘गांधी मानस’ जब पढ़ी तो 23 सितंबर 1951 को इस पुस्तक के बारे में लिखा-  गांधी जैसे अगाध मानस की शोध का दुस्साहस दोष सफलता के सरोवर में डूब गया और मनस्वी मछुआ उस मानसरोवर से गांधी मानस सा रत्न लेकर प्रकट हुआ है। उसकी कसौटी तो कलाकारों का ही कर्म है । एक देहाती के नाते मैं तो इतना कह सकता हूं कि इस रचना का प्रत्येक पाना एक युवक की मानसिक उड़ान का विजय नृत्य है और दरिद्र नारायण का यह पुराण पर्णकुटी के नट्टू ने अर्धनग्न और अर्धाशन पोषित शरीर से तैयार किया है । यह दरिद्रता भी इस रचना के लिए अनुभूतियों की एक अचूक पृष्ठभूमि बन गई है। यह दूसरी मौलिक विषय है । मानसरोवर के मोतियों को चुनते खाते सुने गए हैं पर यहां तो भूखी आंतड़ियों ने मानस के मोती चुन कर समाज के सम्मुख बिखेरे हैं । जो समाज अपने ही कलेजे की करुण और कर्कश स्वर लहरी पर अपनी मदमाती वीणा के निष्ठुर तार बिखेरता और किलकारता रहा है।’

मिलती है प्रेरणा

मामा जी के आश्रम में उनके विचार आज भी महसूस किए जा सकते हैं। ऐसे व्यक्तित्व यकीनन हमें हौसला देते हैं। भीतर की उर्जा को बढ़ाते हैं और मुश्किल से मुश्किल कार्य को आसानी से करने की प्रेरणा भी देते हैं।

⚫ अशीष दशोत्तर, 12/2, कोमल नगर, बरवड़ रोड
रतलाम-457001
मो.9827084966

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