स्मृति शेष : उनका होना अदब के मेआर को करता था तय
⚫ रतलाम के साहित्य संसार को ही नहीं बल्कि एक ऐसे वैचारिक संसार को भी रिक्त कर गया है जो बहुत समृद्ध था ।उनकी पढ़ने की क्षमता, पढ़े हुए को याद रखने की क्षमता और याद रखे हुए को समय पर सभी के सामने बेख़ौफ़ रखने की अद्भुत कला के सभी दीवाने थे। वे ज्ञान की कसौटी पर अच्छे से अच्छे सूरमा को परख कर उसकी अपने तर्को के ज़रिए लू उतारना भी जानते थे तो छोटी से छोटी कोशिश करने वालों के कंधे पर हाथ रख उन्हें आगे बढ़ाने का हौंसला भी देते थे। ⚫
⚫ आशीष दशोत्तर
मज़बूत इच्छाशक्ति और दृढ़ वैचारिकता के साथ ज़िंदगी जीने का सलीका सिखाने वाले वरिष्ठ कवि और समीक्षक, जनवादी लेखक संघ रतलाम के अध्यक्ष श्री रमेश शर्मा नहीं रहे। रमेश दादा एक ऐसे रचनाकार रहे, जिन्होंने अपनी जागती आंखों से कई सपने देखे । वे समाज की चाल और चरित्र से वाकिफ़ थे। वे राजनीति के दांवपेच को भली-भांति जानते थे । वे आम इंसान के हक़ में अपनी आवाज़ गर्व से बुलंद करते रहे । अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रति दृढ़ रहते हुए उसे आग्रहपूर्वक अपनी रचनाओं में भी शुमार करते रहे।
छह दशक से भी अधिक समय तक निरंतर वैचारिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक मोर्चों पर अपनी बुलंद आवाज़ को पूरी ताक़त के साथ रखने वाले रमेश शर्मा उन विरले रचनाकारों में रहे जो खरे को खरा कहने से कतराते नहीं और ग़लत को ग़लत कहने में गुरेज भी नहीं करते। वे कहते थे –
कवि अपने अंतर्विरोधों से,
फिर वे चाहे मित्रवत हों या शत्रुतापूर्ण,
मुक्त कैसे रह सकता है?
रमेश शर्मा झूठे चेहरों से नक़ाब उतारना जानते थे। यही कारण था कि उनका होना ही किसी अदबी महफिल के मेआर को तय कर देता था। वे जहां होते थे वहां सलीके की बात होती थी और कोई विचार आगे की तरफ़ अग्रसर होता था। वे आंख मूंदकर किसी के पीछे चलने की सलाह देने की बजाए आंखें खुली रख कर सभी को अपनी राह बनाने की सलाह देते थे। वे जीवन भर यह प्रयत्न करते रहे कि आम इंसान उन नक़ाबधारी चरित्रों से वाकिफ़ हों, जो कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी रंग के नाम पर तो कभी नारों के नाम पर समाज को बरगला रहे हैं।अपनी एक कविता में उन्होंने कहा भी-
कभी वे खुद आते
कभी उनकी आवाज़ और कभी उनके होंठ और ज़ुबान
उनका आगमन हमारे लिए इंद्रधनुषी पर्व बन जाता
और हम आकंठ डूब जाते/रंगीन लहरों में
हम सोचते /उनके मार्फत ही धरती नाचेगी
और आकाश लाल हो जाएगा उनकी गुलाल से ही?
रमेश दादा का न होना रतलाम के साहित्य संसार को ही नहीं बल्कि एक ऐसे वैचारिक संसार को भी रिक्त कर गया है जो बहुत समृद्ध था ।उनकी पढ़ने की क्षमता, पढ़े हुए को याद रखने की क्षमता और याद रखे हुए को समय पर सभी के सामने बेख़ौफ़ रखने की अद्भुत कला के सभी दीवाने थे । वे ज्ञान की कसौटी पर अच्छे से अच्छे सूरमा को परख कर उसकी अपने तर्को के ज़रिए लू उतारना भी जानते थे तो छोटी से छोटी कोशिश करने वालों के कंधे पर हाथ रख उन्हें आगे बढ़ाने का हौंसला भी देते थे । राजनीतिक रूप से वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जिला सचिव भी रहे । इसके साथ ही वे जन आंदोलनों से भी निरंतर जुड़े रहे ।शहर में होने वाली जन गतिविधियों में प्रमुखता से अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे । रमेश दादा का न होना शहर की वैचारिक ताक़त के कम होने के समान है । उनकी वैचारिकता और उनकी इच्छाशक्ति सभी के साथ बनी रहे । यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
⚫ आशीष दशोत्तर, साहित्यकार