मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया रामकृष्ण परमहंस की अलौकिक यात्रा ने

⚫ रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्यों की कहानी

⚫ उनकी श्रीमूर्ति ने नयनद्वारों से हृदय में प्रवेश करते हुए उस पर अधिकार कर लिया।…. मैं अपने आप में खो गया, मानो एक नवीन धारा बह निकली और उसी शरीर में मैं , नवीन हो गया।… ढूंढने पर भी पुराना कुछ नहीं मिल रहा था, मानो मैं किसी नये राज्य में.. स्वप्न राज्य में आ गया हूँ। “⚫

भारत माता के तेजस्वी और दिव्य अंश स्वामी विवेकानंद के महान गुरु देवपुरुष स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आज 18 फरवरी जयंती पर उन्हे प्रणाम। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का विवेकानंद के साथ जो अटूट आध्यात्मिक स्नेह का बंधन था उससे पूरा विश्व परिचित है। लेकिन रामकृष्ण परमहंस के और भी ऐसे शिष्य रहे जिन पर उनकी विशेष कृपा दृष्टि रही। और उन शिष्यों के साथ भी रामकृष्ण परमहंस की अलौकिक यात्रा रही है जिसमें उन्होंने मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया।

मथुरनाथ विश्वास, रामकृष्ण देव के अनन्य भक्त थे, रामकृष्ण देव से उनका मिलना देवी कृपा का परिणाम ही था क्योंकि मथुरनाथ विश्वास रानी रासमणी के दामाद थे जिन्होंने माँ काली के प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण करवाया था और जो रामकृष्ण देव की साधना स्थली भी रहा था। मथुरा नाथ रामकृष्ण देव के प्रति गहन श्रद्धा का भाव रखते थे लेकिन वे अपनी तर्क दृष्टि को भी सदैव जाग्रत रखते थे। रामकृष्ण देव कई बार  ईश्वर के भाव में ऐसे तल्लीन हो जाते थे कि उन्हें स्वयं का भान नहीं रह जाता था एक दिन कुछ ऐसा ही हुआ जिसे देखकर मथुर बाबू ने रामकृष्ण देव से कहा कि “ईश्वर को भी नियम मानकर चलना पड़ता है। उन्होंने एक बार जो नियम बना दिया है, उसे रद्द करने की उनमें भी क्षमता नहीं है। ” इस पर रामकृष्ण देव ने उनसे कहा “यह तुम कैसी बात कर रहे हो  ? जिसका नियम है वह उसे रद्द कर सकता है या उसकी जगह पर एक दूसरा नियम लगा सकता है। ” मथुर बाबू ने इस बात को अमान्य करते हुए कहा ” लाल फूल के पौधे में लाल फूल ही लगते हैं सफेद फूल तो नही लग सकते क्योंकि यह नियम है, लाल फूल के पेड़ पर सफेद फूल पैदा करके दिखाएं तब समझूँ। ” अगले दिन रामकृष्ण देव ने देखा कि एक लाल गुडहल के पौधे की एक डाल की दो टहनियों पर दो फूल खिले हुए हैं, जिनमें एक लाल और दूसरा सफेद। वह डाल रामकृष्ण देव ने मथुर बाबू को लाकर दिखाई, तब मथुर बाबू ने कहा “हाँ बाबा मेरी हार हुई। ” इस प्रसंग के माध्यम से रामकृष्ण देव किसी चमत्कार को नहीं दिखा रहे थे बल्कि अपने प्रिय मथुर को यह बताना चाहा कि भक्ति में तर्क नही किया जा सकता, परम शक्ति में पूर्ण विश्वास का होना आवश्यक है।

इसलिए मथुर बाबू ने भले ही कितने तर्क किए हों लेकिन बाद में वे रामकृष्ण देव के त्याग और वैराग्य भाव के आगे ऐसे नत मस्तक हुए कि उन्होंने कहा था, कि “बाबा (रामकृष्ण देव) मनुष्य नहीं हैं, उनसे कोई बात छिपाकर क्या होगा? वे सब कुछ जान सकते हैं। “
वर्तमान समय में अधिकांश लोग गुरु उन्हें ही मानते और स्वीकारते हैं जो उनके सांसारिक कष्टों और दुखों से उन्हें मुक्त कर दे यानी “चमत्कार को नमस्कार” । लेकिन वास्तव में सच्चा गुरु ‘ वह  होता है जो हमें जीवन में सद्ज्ञान का मार्ग दिखाता है ताकि हम जीवन में दुख या कष्टों  का सामना विवेकपूर्ण  ढंग से कर सके। इसे इस प्रसंग से अच्छे से समझा जा सकता है कि जब मथुर बाबू किसी रोग से पीड़ित हो गए थे तब वे रामकृष्ण देव के दर्शन करना चाहते थे, उनके आशीर्वाद लेना चाहते थे जब ये संदेश रामकृष्ण देव को मिला तो वे बोले कि “मैं जाकर क्या करूँगा, क्या मैं उसके रोग को ठीक कर सकता हूँ ” लेकिन मथुर बाबू के द्वारा बहुत प्रार्थना किए जाने पर रामकृष्ण देव उनसे मिलने पहुँचे , उन्हें देखकर मथुर बाबू बोले कि “बाबा, थोड़ी चरण धूलि दे दो ” रामकृष्ण देव ने उनसे कहा “मेरे पैरों की चरण धूलि लेकर क्या करोगे, क्या उससे तुम्हारा रोग दूर हो जाएगा। ” इस पर मथुर बाबू ने कहा “बाबा क्या मैं ऐसा हूँ, जो तुम्हारी चरणधूलि रोग ठीक करने के लिए चाहूंगा? उसके लिए तो डॉक्टर है। मैं तो भवसागर पार होने के लिए तुम्हारी चरण धूलि चाहता हूँ। ” मथुर बाबू के इस उत्तर में उनके अपने गुरु रामकृष्ण देव के प्रति अटूट श्रद्धा और निष्काम भक्ति का भाव था।
देवेंद्रनाथ मजुमदार भी रामकृष्ण देव के प्रति अनन्य श्रद्धा भाव रखते थे। वे रामकृष्ण देव से तब मिले जब उनके जीवन में विपरीत परिस्थितियों का तूफ़ान तेज गति से सब कुछ तहस-नहस किए जा रहा था, और वे उससे पार पाने के लिए कोई मजबूत किनारा ढूंढ रहे थे। और इसी खोज में एक दिन वे अपने एक मित्र के यहाँ गये और वहाँ सामने रखी एक पुस्तक ‘भक्तिचैतन्यचंद्रिका’ पढ़ने लगे तब उसमें  एक स्थान पर परमहंस श्री रामकृष्ण देव का उल्लेख था। ‘परमहंस रामकृष्ण  ! ‘ इन दो शब्दों ने जैसे उन्हें सम्मोहित कर लिया और वे सोचने लगे कि परमहंस तो बहुत ही ऊँची अवस्था है  ! और उन्हें संयोग से रामकृष्ण देव का पता भी मिल गया और वे रामकृष्ण देव के दर्शन के लिए निकल पड़े। देवेंद्रनाथ के मन के किसी कोने में द्वंद भी चल रहा था कि पता नहीं रामकृष्ण देव से मिलना उचित रहेगा या नहीं। इस द्वंद के साथ वे रामकृष्ण देव के यहाँ पहुँच गये। रामकृष्ण देव को देखकर देवेंद्रनाथ ने उन्हें साक्षात दंडवत् प्रणाम किया । तब रामकृष्ण देव ने उनसे पूछा “क्या देखने आये हो ” तब देवेंद्रनाथ ने उत्तर दिया “आपको देखने ।”तब रामकृष्ण देव इस उत्तर को सुनकर बड़े ही सरलता भाव से बोले कि ” मुझे क्या देखोगे अब? मेरा तो गिरकर हाथ टूट गया है। देखो (देवेंद्रनाथ की ओर दिखाते हुए) हाथ टूटा है या नही, बड़ी पीड़ा हो रही है। क्या करूँ? ठीक तो हो जाएगा ना ।”देवेंद्र ने कहा “जी हाँ अच्छा हो जाएगा ” देवेंद्र का यह उत्तर सुनकर रामकृष्ण देव  किसी बालक की तरह उत्साहपूर्वक सब को कहने लगे कि देखो , ये कह रहे हैं कि मेरा हाथ ठीक हो जाएगा । रामकृष्ण देव की यह सरलता देखकर देवेंद्रनाथ के मन में यह विचार आया कि’ कहीं ये ढोंग तो नहीं है ? ‘क्या इतना सरल विश्वास किसी मनुष्य में हो सकता है?  शायद देवेंद्र नाथ  का यह संदेह सही ही था कि इतना सरल कोई मनुष्य नहीं हो सकता है वह देवता ही हो सकता है और वह देव पुरुष थे रामकृष्ण देव। वास्तव में रामकृष्ण देव की सरलता ही उन्हें विलक्षण बनाती है । सदा के लिए रामकृष्ण देव के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देवेंद्रनाथ मजुमदार अब देव आराधना में लीन हो गए।

ऐसा कहते हैं ईश्वर जिसे अपने पुनीत कार्य का सहभागी बनाना चाहता है तब स्वयं ही किसी दिव्य माध्यम को उसके पास भेज देता है ऐसा ही कुछ अक्षय कुमार सेन के साथ हुआ जो रामकृष्ण परमहंस के प्रति श्रद्धा भाव रखते थे उनके लिए दिव्य माध्यम बनें देवेंद्रनाथ मजुमदार। देवेंद्रनाथ ने ही इन्हें रामकृष्ण देव के दर्शन लाभ करवाया। बाद में अक्षयकुमार सेन ने ही  प्रसिद्ध ग्रंथ “श्री रामकृष्णपुंथी ” की रचना कर अक्षय कीर्ति अर्जित की। स्वयं स्वामी विवेकानंद ने इस ग्रंथ की प्रशंसा की थी। रामकृष्ण देव के प्रति अक्षय कुमार सेन ने अपनी आस्था को  कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है “उन करुण कटाक्षों में पता नहीं क्या था, जिसका वर्णन करना संभव नहीं। उनकी श्रीमूर्ति ने नयनद्वारों से हृदय में प्रवेश करते हुए उस पर अधिकार कर लिया।…. मैं अपने आप में खो गया, मानो एक नवीन धारा बह निकली और उसी शरीर में मैं , नवीन हो गया।… ढूंढने पर भी पुराना कुछ नहीं मिल रहा था, मानो मैं किसी नये राज्य में.. स्वप्न राज्य में आ गया हूँ। ” अक्षयकुमार सेन की रामकृष्ण देव के प्रति अगाध श्रद्धा भाव के साथ उनके प्रति पवित्र प्रेम का भाव  भी समाहित था इसका कारण यह है कि रामकृष्ण देव जब भी अपने किसी भक्त या शिष्य से मिलते थे तब उनके प्रति वे स्नेह का सागर उडेल देते थे।

भारतीय संस्कृति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए महान योद्धाओं और ऋषि मुनियों  ने अपने प्राणों का उत्सर्ग तक कर दिया। ऋषि दधीचि ने तो मानव मात्र की रक्षा के लिए अपनी हड्डियों तक का दान कर दिया था । वहीं महाभारत का युद्ध भी धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले पांडवों की त्याग और गौरव गाथा का वर्णन करता है ।उसी तरह रामकृष्ण देव ने अपने सदकर्मों की आहुति दे कर जगत कल्याण के इस यज्ञ को संपन्न किया इसमें उनके सहयोगी बनें उनके भक्त और उनके शिष्य। ऐसे ही उनके एक शिष्य और भक्त थे सुरेंद्रनाथ मित्र। सुरेंद्रनाथ मित्र को रामकृष्ण परमहंस का सान्निध्य प्राप्त होना यानी पारस पत्थर का लोहे को छूना और उसे सोना बना देना। रामकृष्ण देव का स्पर्श पारस पत्थर की तरह था जिसने सुरेंद्रनाथ के व्यक्तित्व को सोने की तरह शुद्ध बना दिया। गलत मार्ग पर चलते हुए सुरेंद्र नाथ ने अपना सर्वनाश कर लिया था, कई गलत आदतों का शिकार हुए सुरेंद्र नाथ आत्महत्या तक का विचार कर बैठे थे उन्हें रामकृष्ण देव ने ही  सही मार्ग दिखलाया। सुरेंद्रनाथ  के घर पर रामकृष्ण देव और उनके भक्तों और शिष्यों का मिलन होता था और वे वहाँ कीर्तन किया करते थे चूँकि रामकृष्ण देव के सामने किसी का कोई भी भाव छिपा नहीं रह सकता था और वे अपने शिष्यों के उत्थान के लिए सदैव सजग और तत्पर रहा करते थे ऐसे ही वे सुरेंद्रनाथ के मन की समस्त कामनाओं से भी अनभिज्ञ नहीं थे। इसके संबंध में एक ऐसा ही प्रसंग है जब रामकृष्ण देव सुरेंद्रनाथ के घर पर धर्म चर्चा कर रहे थे तब सुरेंद्रनाथ माला लिए रामकृष्ण देव को पहनाने आये। पर रामकृष्ण देव ने माला लेकर दूर फेंक दी। इससे सुरेंद्रनाथ मानपूर्वक और गुस्से में कहने लगे कि बहुत पैसे खर्च करके मालाएं लेकर आया था.. सब मालाएं दूसरों के गले में डाल दो। लेकिन उन्हें स्वयं अपनी गलती का अहसास हो गया कि भगवान पैसों से नही खरीदे जा सकते। और उन्हें इसका बहुत दुःख हुआ और वे रोने लगे, रामकृष्ण देव अपने शिष्य के इसी अहंकार भाव को खत्म करना चाहते थे और उनका उद्देश्य पूरा हो गया और उन्होंने उसी फेंकी हुई माला को हाथ में लेकर कीर्तन- नृत्यादि आरंभ किया।


नाग महाशय नाम के रामकृष्ण देव के एक भक्त थे उनका रामकृष्ण देव पर अगाध श्रद्धा भाव था। नाग महाशय का गृहस्थ जीवन को लेकर उदासीन भाव रहता था उनका एक बार विवाह जबरदस्ती उनकी बुआ ने कराया लेकिन वे उस गृहस्थ  जीवन में रम न सके। और कुछ समय पश्चात ही उनकी पत्नी इस संसार से विदा हो गयी। इसके बाद उनके पिता ने उन्हें पुन: हटपूर्वक विवाह के लिए मनाया वे इसके लिए  बिल्कुल तैयार नहीं थे लेकिन पिता की जिद के आगे उन्हें  नतमस्तक होना पड़ा। वहीं उनका रामकृष्ण देव से मिलने के बाद उनके मन में गृहस्थ जीवन को त्यागने का विचार आया लेकिन रामकृष्ण देव उनके मन के भाव को समझ गये और उन्होंने नाग महाशय से कहा कि “तुम जनक के समान गृहस्थाश्रम में रहना, तुम्हें देखकर लोग यथार्थ गृहस्थ -धर्म सीखेंगे  । ” रामकृष्ण देव की इस इच्छा का भला वे कैसे विरोध कर सकते थे। इससे सिद्ध होता है कि रामकृष्ण देव ने कभी गृहस्थ जीवन को बाधक नहीं माना।


बलराम बोस का नाम भी रामकृष्ण देव के कृपा पात्रों में था। इन्हें सर्वप्रथम केशव चंद्र सेन के समाचार पत्र से यह ज्ञात हुआ कि रामकृष्ण देव को भाव समाधि लगती है और जिनकी वाणी पर कलकत्ते का शिक्षित वर्ग मुग्ध है। बलराम बोस जब रामकृष्ण देव  के पास मिलने पहुँचे तब रामकृष्ण देव ने बड़े ही स्नेह पूर्ण स्वर में पूछा “तुम्हें क्या कहना है, बताओ । ” बलराम ने पूछा ” महाराज, भगवान हैं क्या? उत्तर में रामकृष्ण देव ने कहा “वे (भगवान) हैं, केवल इतना ही नहीं, अपना मानकर पुकारने पर वे दर्शन भी दिया करते हैं। अपने बाल- बच्चों के साथ जैसी ममत्वबुद्धि होती है , वैसी ही भावना के साथ उन्हें भी पुकारना चाहिए। ” बलराम बोस को रामकृष्ण देव के ये शब्द अंधकार में प्रकाश की तरह दिखाई दिए। क्योंकि आजीवन जप- तप करने पर भी उन्होंने कभी भगवान को ऐसे नहीं पुकारा था।

ऐसी ही एक और घटना है जब रामकृष्ण देव ने बलराम बोस के धर्म और अहिंसा को लेकर संदेह को दूर किया दर- असल बलराम बोस इतने अहिंसक थे कि वे कभी कीट पतंगों, मच्छरों आदि को मारने में भी हिंसा समझते थे। इसके संबंध में वे रामकृष्ण देव के पास अपने संदेह समाधान के लिए पहुँचे । रामकृष्ण देव के कमरे के द्वार पर पहुँचने पर उन्होंने देखा कि रामकृष्ण देव अपने तकिये के नीचे के खटमल को ढूंढ ढूंढ कर मार रहे हैं। पास जाकर उन्होंने रामकृष्ण देव को प्रणाम किया, रामकृष्ण देव ने उन्हें देखकर कहा कि “तकिये में बड़े खटमल हो गए हैं, जो दिन- रात काटकर चित्त विक्षेप और निद्रा में बाधा डालते हैं। इसलिए मार रहा हूँ। ” अब बलराम बोस के पास पूछने को कुछ रह नहीं गया था।

गिरीशचंद्र घोष बंगाल के प्रमुख नाट्यकार और अभिनेता के रूप में प्रसिद्ध थे। वे भी रामकृष्ण परमहंस के परम भक्त थे। देव पुरुष रामकृष्ण देव के दैवीय प्रभा मंडल ने सभी वर्ग, समाज और पंथ को अपनी और आकर्षित किया था और उसी आकर्षण के दिव्य पाश से बंधे थे गिरीशचंद्र घोष। भक्त के पास भगवान स्वयं चलकर आते हैं, ऐसा ही कुछ हुआ गिरीशचंद्र घोष के साथ। श्री रामकृष्ण देव उनके नाटक “चैतन्यलीला” की ख्याति सुनकर एक दिन स्वयं यह नाटक देखने के लिए थियेटर पहुँचे। उनके स्वागत के लिए गिरीशचंद्र घोष आगे बढे तो रामकृष्ण देव ने उन्हें पहले प्रणाम किया। बदले में उनके नमस्कार के रामकृष्ण देव ने उन्हें पुनः प्रणाम किया। ऐसा कई बार हुआ…।

इस प्रणाम अस्त्र के सामने गिरीशचंद्र घोष  ने हथियार डालते हुए उन्हें अंतिम प्रणाम किया। यह रामकृष्ण देव की विनम्रता और सहजता का दर्शन था ।  भक्त के हृदय के संदेह को भांप लेना रामकृष्ण देव के लिए कठिन कार्य नहीं था और गुरु वही है जो शिष्य के संदेह पर नाराज न होकर उसे दूर करने का प्रयास करे। ऐसा ही संदेह गिरीशचंद्र घोष को रामकृष्ण देव के संदर्भ में हुआ उनका ऐसा मानना था कि जो योगी और परमहंस होते हैं वे किसी से बात नहीं करते और न ही किसी से नमस्कार करते हैं परंतु रामकृष्ण देव इसके विपरीत थे अतः रामकृष्ण देव को वे परमहंस मानने के लिए तैयार नहीं थे। एक बार पुनः उनकी रामकृष्ण देव से भेंट हो गयी लेकिन इस बार रामकृष्ण देव ने गिरीश चंद्र को बारंबर प्रणाम नहीं किया, इससे वे समझ गए कि उनके मन के संदेह को रामकृष्ण देव ने पढ़ लिया है फिर कुछ देर बाद स्वयं रामकृष्ण देव ने गिरीश चंद्र को अपने पास बुलाया और कहा, “नहीं, नहीं यह ढोंग नहीं है (स्वयं की ओर इशारा करते हुए)। ” यह गिरीश चंद्र के मन में चल रहे संदेह का उत्तर था । इसके भी आगे रामकृष्ण देव जब किसी को एक बार अपना शिष्य स्वीकार कर लेते थे तब उसके अवगुणों, दोषों और अज्ञान को जानते हुए भी उसका साथ नहीं छोड़ते थे ऐसा ही कुछ गिरीश चंद्र के साथ भी हुआ। गिरीश चंद्र एक दिन नशे में रामकृष्ण देव के यहाँ पहुँचकर उन्हें भला -बुरा कहने लगे परंतु रामकृष्ण देव उनके इस व्यवहार से प्रभावित  हुए  बिना उन्हें प्रेमपूर्वक हाथ पकड़कर लेकर आये और उनका हाथ पकड़कर हरिनाम कीर्तन करने लगे। इस स्नेह भाव ने गिरीशचंद्र का हृदय परिवर्तन कर दिया। स्वयं गिरीश चंद्र ने रामकृष्ण देव की करुणा का इन शब्दों में में वर्णन किया है “मालूम नहीं वे पुरुष हैं या प्रकृति..। वे माता के समान स्नेहपूर्वक खिलाते थे, फिर पिता के समान ज्ञानी तथा भक्त के आदर्श भी थे..। मैं नहीं जानता कि शास्त्रों में किसे ईश्वर कहा गया है, परंतु मेरी धारणा थी कि जैसा मैं स्वयं से प्रेम करता हूँ, वैसा ही प्रेम यदि वे (रामकृष्ण देव) मुझसे करें तो वे ईश्वर हैं। वे मुझे अपने ही समान स्नेह करते थे। मुझे कभी कोई मित्र नहीं मिला, पर वे मेरे परम सुहृद थे, क्योंकि मेरे दोषों को गुणों में  बदल देते थे। मेरे स्वयं से भी अधिक वे मुझसे स्नेह करते थे। “

केशव चंद्र सेन का रामकृष्ण देव के प्रति अटूट श्रद्धा का भाव था इसलिए जो भी केशव चंद्र सेन से मिले उन्होंने निश्चित रूप से रामकृष्ण देव की दिव्य लीला का वर्णन केशव चंद्र सेन से सुना और वे सभी रामकृष्ण देव के दर्शन को व्याकुल हो उठे। ऐसे ही केशव चंद्र सेन से प्रभावित मन मोहन मित्र भी रामकृष्ण देव की शिष्य मंडली में शामिल हो गए। और ऐसे समर्पित भक्त बन गए रामकृष्ण देव के कि कोई अगर रामकृष्ण देव की निंदा या दुर्वचन कहता वे उसे वहीं फटकार देते या उग्र हो उठते थे। ऐसी ही एक घटना घटी जो रामकृष्ण देव से छिप न सकी।

इस संबंध में रामकृष्ण देव ने मनमोहन को सावधान करते हुए कहा, “कोई  मेरी निंदा करे या बड़ाई, इसमें मेरा क्या  !” आगे रामकृष्ण देव कहते हैं कि “किसी को नाराज देखने पर मैं उसे  छू भी नहीं सकता  । ” इसके बाद कभी मनमोहन ने किसी को भी बलपूर्वक  अपने मत या समर्थन में लाने का प्रयास  नहीं किया। इस प्रसंग से प्रेरणा मिलती है कि धर्म, आस्था  और विश्वास अंतर्मन की विषयवस्तु है हम किसी को भी कुछ भी मानने के लिए या ना मानने के लिए बाध्य नहीं  कर सकते। जब तक अंतःप्रेरणा का आविर्भाव न हो तब तक कुछ भी संभव नहीं। रामकृष्ण देव इस एक प्रसंग में नहीं बल्कि कई प्रसंगों में यह कह चुके हैं कि किसी विशेष मत या विचार का प्रसार करना उनका उद्देश्य नहीं है जो ईश्वर तक पहुँचता है बस वे उसी पंथ, विचार के समर्थक है बाकी सब निरर्थक है।


1894 ई. में  शिकागो से लिखित अपने एक पत्र में स्वामी विवेकानंद पूछते हैं -“गौरी माँ कहाँ है? हज़ारों गौर -माताओं की आवश्यकता हैं, जिनमें उन्हीं के समान महान एवं तेजोमय भाव हो। “गौरी माँ का यह अति उत्तम परिचय है  । गौरी माँ वैसे तो चैतन्य महाप्रभु की भक्त थी लेकिन रामकृष्ण देव के प्रति उनकी भक्ति भी अतुलनीय थी उन्होंने एक बार कहा था, ” श्री राम कृष्ण देव और चैतन्य, ये दोनों अभेद है । ” रामकृष्ण देव भी गौरी माँ का बहुत सम्मान करते थे। एक दिन रामकृष्ण देव गौरी माँ से बोले , “मैं पानी डालता हूँ, तू मिट्टी सान। ” विस्मित होकर गौरी माँ बोली, “यहाँ पर मिट्टी है कहाँ, जो सानूं? सभी और कंकड़ ही तो हैं! ” रामकृष्ण देव हँसते हुए बोले, “मैंने कहा कुछ, और तूने समझा कुछ! इस प्रदेश की माताओं को बड़ा कष्ट है, तुझे उनके बीच कार्य करना होगा। ” तब गौरी माँ कह उठी, “संसारी लोगों के साथ मेरा नहीं बनेगा, यह मेरे स्वभाव में नहीं। मुझे कुछ लड़कियाँ दे दो, मैं उन्हें हिमालय में ले जाकर उनका जीवन गढ़ दूँगी। ” परंतु रामकृष्ण देव ने हाथ हिलाते हुए कहा, “नहीं ,जी नहीं , इसी शहर में बैठकर काम करना होगा। साधना -भजन बहुत हुआ, अब इस जीवन को माताओं की सेवा में लगा दे, बड़ा कष्ट है उन्हें। ” बाद में गौरी माँ को ऐसा ही करना पड़ा। और इसी पीड़ित मानवता की सेवा को ही ईश्वर की सेवा का लक्ष्य माना स्वामी विवेकानंद ने। रामकृष्ण देव ने स्वयं को ईश्वर की भक्ति में लीन कर दिया, लेकिन उनकी इस भक्ति की शक्ति को उन्होंने अपने भक्तों और शिष्यों को सौंप दिया ताकि वे मानवता की सेवा कर सके।(संदर्भ :श्री रामकृष्ण भक्तमालिका, भाग द्वितीय)

⚫ प्रस्तुति : श्वेता नागर

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