पुस्तक समीक्षा : ‘शोधादर्श’ का विशेषांक : प्रेम बना रहे
⚫ डॉ. चंदन कुमारी
गन्ने के गाँव खतौली से मोतियों के शहर हैदराबाद तक की संघर्ष और कामयाबी भरी अपनी यात्रा के विविध पड़ावों में जन-जन से संपर्क सूत्र साधते; सहज गति से अविराम मनःस्थिति के साथ निरंतर साहित्य सृजन में लीन और संगोष्ठियों में सदैव तत्पर रहनेवाले प्रो. ऋषभदेव शर्मा (1957) के व्यक्तित्व में अपनत्व की मिठास और वैदुष्य की कांति बड़ी ही सहज भाव से भासती है। अपनी इस सहजता के कारण ही आज यह व्यक्तित्व न सिर्फ भारतवर्ष की भूमि पर ही, वरन हिंदी के वैश्विक पटल पर भी अपनी सशक्त पहचान रखता है। मित्र के रूप में वे अपनी मित्र मंडली की आभा हैं, गुरु के रूप में अपने छात्रों के पथ-प्रदर्शक हैं, एक साहित्यकार के रूप में वे निरंतर साहित्य सेवा में रत हैं और अपने अग्रजों के प्रति परम विनीत हैं।
जहाँ ‘प्रेम बना रहे’ का सूत्रवत प्रयोग इनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है, वहीं एक प्रखर आलोचक की दृष्टि रखने वाले ऋषभदेव शर्मा समाज पर अपनी तीक्ष्ण दृष्टि रखते हुए तेवरी काव्य विधा के एक प्रवर्तक के रूप में भी सुविख्यात हैं। इस व्यक्तित्व के अंतरंग और बहिरंग को समग्रता में आँकने के प्रयास के फलस्वरूप ही नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश) से निकलने वाली त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘शोधादर्श’ ने अपना दिसंबर2022 – फरवरी2023 का अंक ‘प्रेम बना रहे’ विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया है। इसके लिए संपादक अमन कुमार बधाई के पात्र हैं। पत्रिका के पक्ष में अतिथि संपादक डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह ने यह आशा व्यक्त की है कि “यह अंक उत्तरप्रदेश के खतौली गाँव से हैदराबाद एवं संपूर्ण दक्षिण भारत तक प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा की व्यक्तिगत एवं साहित्यिक यात्रा का दिग्दर्शन कराने में पूर्णतः सफल होगा।”
यह अंक इस व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द विद्यमान एक आभामंडल को भली प्रकार उजागर करता है। इस आभामंडल में उनकी साहित्यिकता और आंतरिकता दोनों ही स्वर्णरश्मियों की भांति विकीर्ण प्रतीत होती हैं। उनकी आंतरिकता के एक पक्ष को उद्घाटित करते हुए संपादकीय में लिखा गया है कि आपको ऐसे पर्यावरण को बचाने की चिंता है जो झूठ और मक्कारी से दूषित किया जा रहा है। कहना ही होगा कि यह आभामंडल आभासी नहीं है और आकाशी भी नहीं है। यह यथार्थ के ठोस भूतल पर, इस व्यक्तित्व के नैकट्य में रहे अथवा सान्निध्य प्राप्त साहित्यिक रुचि संपन्न व्यक्तियों की स्वानुभूत की गई अनुभूति एवं ऋषभ-साहित्य के स्वाध्याय से गृहीत निष्कर्षों के संयोजन के फलस्वरूप सामने आया हुआ आभामंडल है। इसकी निर्मिति आकृष्ट करती है। इस आकर्षण में स्वाभाविकता तो है पर उससे कहीं अधिक अपनत्व की प्रगाढ़ता है जो इस विशेषांक के शीर्षक की तथता का द्योतक भी है।
पत्रिका में समस्त आलेखों को विषयानुसार पाँच खंडों में वर्गीकृत किया गया है। वे खंड हैं- 1. आँखिन की देखी, 2. कागद की लेखी, 3. गहरे पानी पैठ, 4. चकमक में आग और 5. कबहूँ न जाइ खुमार। इन खंडों में ऋषभदेव शर्मा के जीवन एवं साहित्य के अंतरंग पहलुओं को छूने की चेष्टा की गई है। हाल ही में डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा दो भागों में संपादित लगभग 700 पृष्ठ का बृहत अभिनंदन ग्रंथ “धूप के अक्षर” (2022) लोकार्पित हुआ; और उसके बाद यह विशेषांक ‘प्रेम बना रहे’ आपके समक्ष प्रस्तुत है। अगर इसे उसका परिपूरक भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
विशेषांक में सम्मिलित लेखकों ने ऋषभदेव शर्मा के व्यक्तित्व के जिन अंतरंग पहलुओं का साक्षात किया और उसे यहाँ शब्दरूप दिया, उसकी बानगी देखते चलें-
“नए लेखकों को प्रोत्साहित किया ही जाना चाहिए।…अपनी आलोचना को भी इस तरह अपनाने की कला और छोटी-छोटी बातों में भी दूसरों के नाम को आगे बढाने की प्रवृत्ति- दोनों ही विशेषताएँ आज के ज़माने में विरल हैं। निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।।” (प्रवीण प्रणव)
“उत्तर से आकर सुगंधित हवा का एक झोंका/ दक्खिनी भाषा में घुलमिल गया। आपकी वाणी से/ महीन तराश वाले शब्द निकलते हैं। आपका गंभीर स्वर/ चित्ताकर्षक लगता है|/ आपको सुनना धारोष्ण दूध पीने जैसा है|” (कविता: धन्य पुरुष, प्रो. एन.गोपि)
“विद्वान होते हुए भी विद्वत्ता के आभामंडल से गर्वित न होकर सहजता और अल्हड़पन से सभी के साथ सामंजस्य बना लेना उनकी विशिष्टता है। वे देश के एक बड़े साहित्यकार हैं, यह सभी जानते हैं लेकिन वे एक अच्छे और व्यापक दृष्टिबोध वाले पत्रकार और मीडिया लेखक भी हैं, इसे कम लोग ही जानते हैं।” (अरविंद सिंह)
“ऋषभदेव जी मँजे हुए पत्रकार और समसामयिक विषयों को लेकर लिखने वाले फीचर लेखक भी हैं।” (प्रो. अश्विनीकुमार शुक्ल)
प्रो. संजीव चिलूकमारि ने अपने आलेख में उन्हें ‘ज्ञान तापस’ की संज्ञा से विभूषित किया है।
डॉ. मंजु शर्मा ने इनके व्यक्तित्व के लिए लिखा है ‘कबीर जैसा मन और तुलसी जैसा भाव’।
इन अभिव्यक्तियों में अपनत्व विशेष प्रभावी हुआ है। यथार्थ की ये अभिव्यक्तियाँ उन्हें अतिशयोक्ति लग सकती हैं जो इनके व्यक्तित्व एवं साहित्य से सर्वथा अनजान हैं। इसलिए भी यह विशेषांक पठनीय और शोधोपयोगी है। प्रो. देवराज का ‘खतौली का औचक दौरा’ आलेख विशेष रूप से मर्मस्पर्शी है। इस यांत्रिक, भावहीन और मतलबी दुनिया में आत्मीय स्नेह का स्पर्श पाकर मन अभिभूत हो, कुछ पल को ठिठक जाता है। विद्वत्ता अंतःप्रकाश भले हो पर इसे प्रकाशित करने वाले दीये की घी-बाती तो स्नेह ही है। स्नेह की अभिव्यंजना का प्रतिफल ही ‘प्रेम बना रहे’ है। यानी ये आलेख रस्मी-रिवायती नहीं हैं, बल्कि उस प्रेम का प्रमाण हैं जो दक्षिण में हिंदी-सेवा करते हुए डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने कमाया है।
‘कविता के पक्ष में’ पुस्तक का संदर्भ लेते हुए डॉ. जी नीरजा ने लेखकद्वय (ऋषभदेव शर्मा और पूर्णिमा शर्मा) द्वारा चिह्नित कविता के लोकतांत्रिक दायित्व का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है – “युग जीवन को अपने में समेटना, समय के साथ सत्य को पकड़ना, मनुष्य को बिना किसी लागलपेट के संबोधित करना, प्रकाश और उष्णता की संघर्षशील संस्कृति की स्थापना करना और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दायित्व बोध का विकास करके क्रांति की भूमिका तैयार करना।” युगों-युगों से मनुष्यता और लोकतंत्र को जीवित रखने का दायित्व कविता ने सँभाला है। कविता के जिन लोकतांत्रिक दायित्वों को कवि ऋषभदेव शर्मा ने गिनाया है स्वयं को भी उन्होंने इन दायित्वों से बाँधे रखा है। युग की विषमता और भेदभरी दृष्टि जो हर संवेदनशील हृदय में शूल चुभाती है, वह इनके लिए भी शूल है और स्वतंत्रता के अमर बलिदानियों के बलिदान की व्यर्थता को महसूस कर यह कवि कहता है- ‘मेरे भारत में सर्वोदय खंडित स्वर्णिम स्वप्न हो गया।’
पत्रिका के आरंभिक 3 खंड जहाँ डॉ. ऋषभदेव शर्मा के व्यक्तित्व के निरूपण और कृतित्व के मूल्यांकन को समर्पित हैं, वहीं चौथे खंड में “विचार कोश” के रूप में उनके 108 विचारों की माला तथा पाँचवें खंड में 51 चयनित कविताओं की प्रस्तुति ने इस 140 पृष्ठीय विशेषांक को और भी संग्रहणीय बना दिया है।
समीक्षक : डॉ. चंदन कुमारी, संकाय सदस्य, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय सामाजिक विज्ञान, अम्बेडकर नगर (महू)।