साहित्य सरोकार : संस्मरण, कबाड़ी की दुकान चलाने की तमीज़ नहीं जिनको !
⚫ आशीष दशोत्तर
सुकरात जब यह कहता है “यह प्रजातंत्र भी कितनी हास्यास्पद की चीज़ है। कबाड़ी की दुकान चलाने की तमीज़ नहीं जिनको, उनके हाथों में बागडोर है । सरकार ही जब अस्त-व्यस्त और विवेकहीन हो…..” तो वह उस दौर की व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाता है , जिसमें जुल्मोंसितम की इंतेहा रही। नाटक ‘ सुकरात के घाव’ इसी तरह के संवादों के ज़रिए आज भी लोगों के दिलों में बसा हुआ है।
वरिष्ठ कवि एवं नाटककार रहे चंद्रकांत देवताले द्वारा ब्रेख्त की कहानी के इस नाट्य रूपांतर की साहित्य जगत में काफी चर्चा रही । यह नाटक बहुत प्रभावी है और इसका हर संवाद एक नई परिभाषा गढ़ता है। नाटक का कथानक सार्वकालिक है यही इसकी सफलता का द्योतक है।” सत्य के ख़िलाफ़ झूठ गुस्ताखी करता है, ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ मौत । शांति के ख़िलाफ़ युद्ध गुस्ताखी है । मेरे खिलाफ़ मौन।” सुकरात का यह संवाद इस नाटक को और प्रभावी बनाता है।
इस नाटक का मंचन रतलाम के रंगकर्मियों ने 70 के दशक में किया था। न सिर्फ़ रतलाम और मालवा के विभिन्न शहरों में उसका सफल मंचन हुआ बल्कि भोपाल के रवींद्र भवन में भी नाटक को सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति के रूप में पुरस्कृत किया गया। वह रंगकर्म का एक विलक्षण दौर था जब मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद के माध्यम से विभिन्न शहरों के कलाकारों को उभारने के लिए और उनके प्रतिभाओं को जनमानस के सामने प्रस्तुत करने के लिए रचनात्मक प्रयास किए जाते थे। ऐसा ही प्रयास मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद द्वारा प्रदेश के रंगकर्मियों को निखारने के लिए उस दौर में करते हुए एनएसडी प्रशिक्षित नाट्य निर्देशकों को भेजा गया। निर्देशकों द्वारा युवाओं को प्रशिक्षित कर प्रशिक्षण के दौरान तैयार किए गए नाटक को भोपाल के रवींद्र भवन में प्रस्तुत करना था। उस वक़्त रतलाम में सुप्रसिद्ध निर्देशक धीरेंद्र कुमार प्रशिक्षण के लिए आए थे। रतलाम के रंगकर्मियों को प्रशिक्षण देने के साथ उन्होंने प्रशिक्षण अवधि में तैयार किए जाने वाले नाटकों की पड़ताल की। बादल सरकार के कुछ नाटक देखें मगर उनकी निगाह ब्रेख्त की कहानी ‘सुकरात के घाव’ पर पड़ी। उन्होंने श्री देवताले से आग्रह किया कि वे इस कहानी का नाट्य रूपांतर करें। देवताले जी ने जिस शिद्दत के साथ इसका नाटक रूपांतर किया उसने इस नाटक को कालजयी बना दिया।
यह नाटक वाणी प्रकाशन से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है । इसके मुख्य पृष्ठ पर रतलाम में ही मंचित नाटक का दृश्य है, जिसमें सुकरात की भूमिका निभाने वाले सुप्रसिद्ध रंगकर्मी कैलाश व्यास दिखाई दे रहे हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन की भी एक रोचक कथा है । सत्तर के दशक में नाट्य प्रस्तुति के उपरांत यह नाटक लगभग अछूता सा रहा। बहुत बाद जब देवताले जी एक कार्यक्रम में रतलाम आए तो उन्होंने श्री कैलाश व्यास से पूछा कि , सुकरात! तुम्हारे पास वह नाटक है क्या?’ कैलाश जी ने नाटक के कई संवाद वहीं खड़े-खड़े सुना दिए –
” सत्य जब गिरफ़्तार हो जाता है ,
सपनों में बेदखल हो जाती हैं तमाम चीज़ें ।
अपनी जगहों से फिर सपनों को जीतकर
जब हम खड़े होते हैं
सत्य के सामने फिर से ,
पहचान में नहीं आती है अपनी ही चीज़े।”
कैलाश जी ने कहा कि यह नाटक मुझे पूरा याद भी है और इसकी मूल स्क्रिप्ट भी मेरे पास रखी है। देवताले जी ने कहा कि मुझे वह नाटक की स्क्रिप्ट उपलब्ध करवाओ। इसे पुस्तक के रूप में छपवाएंगे । कैलाश जी ने उस नाटक की छाया प्रति उसी समय ला कर देवताले साहब को सौंपी। कुछ महीने बीते। फिर उज्जैन में कैलाश जी देवताले सर से उनके निवास पर मिलने गए। कैलाश जी को देखते ही देवताले सर कहने लगे, सुकरात ! वह स्क्रिप्ट तो फिर से खो गई है। वापस से भिजवाना । कैलाश जी ने रतलाम आ कर उस नाटक की एक और छाया प्रति देवताले साहब को भेजी। कुछ दिनों बाद देवताले साहब ने कहा कि यह छाया प्रति इतनी हल्की है कि अक्षर स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहे हैं। तुम्हें सारे डायलॉग याद हैं इसलिए इन्हें तुम व्यवस्थित रूप से लिख कर दो।
कैलाश जी ने स्क्रिप्ट को अपनी लेखनी से व्यवस्थित किया और इस तरह वह स्क्रिप्ट देवताले जी तक पहुंची। तब कहीं जाकर इस स्क्रिप्ट को पुस्तक के आकार में प्रकाशित किया जा सका।इस नाटक से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रसंग यह भी है कि रंग निर्देशक श्री धीरेंद्र कुमार ने एक महीने तक रतलाम में नाट्यकर्मियों को प्रशिक्षित किया। उस दौरान इस नाटक को तैयार करवाया गया। इस नाटक की प्रस्तुति रतलाम के ऑफिसर्स क्लब ,रेलवे ऑफीसर्स क्लब जावरा में तो हुई ही ,संस्कृति परिषद द्वारा भोपाल में आयोजित नाट्य समारोह में भी इसकी प्रस्तुति को सभी ने सराहा और इस नाटक को पुरस्कृत भी किया गया।
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