वेब पोर्टल हरमुद्दा डॉट कॉम में समाचार भेजने के लिए हमें harmudda@gmail.com पर ईमेल करे शख्सियत : विकलांगता के बावजूद रतनसिंह गुर्जर ने किया झोपड़ी से महल का सफऱ -

शख्सियत : विकलांगता के बावजूद रतनसिंह गुर्जर ने किया झोपड़ी से महल का सफऱ

1 min read

⚫ भीख देने वाले का शर्म से झुक गया सिर

पल्स पोलियो अभियान देर से शुरू होने का खामियाजा

लापरवाही का शिकार मैं ही नहीं अनेक हुए, लेकिन मैं निराश नहीं हुआ और न किसी के सामने हाथ फैलाया। वक्त का एक दौर ऐसा भी था, जब मेरे पास तो फूटी कौड़ी तक नहीं थी। एक आदमी ने मुझे भिखमंगा समझकर दुत्कारते हुए भीख में सिक्का हथेली पर रख दिया, लेकिन  मैंने उसे चुनौती माना और फूस की झोपड़ी में देखे सपनों की दुनिया आबाद कर, झूठे और फरेबी समाज को अंगूठा दिखाकर माना।’⚫

नरेंद्र गौड़

‘विकलांग होना कुदरत की देन नहीं होकर सरकार के की लापरवाही का भी नतीजा है, जिसने समय रहते पल्स पोलियो अभियान शुरू नहीं किया। गौरतलब है कि  वर्ष 1976 में मेरे जन्म के छह- सात साल पहले ही पोलियो के केस आना शुरू हो गए थे। देश में युध्द स्तर पर पोलियो टीकाकरण 2 अक्टूबर 1995 से शुरू हुआ, 27 मार्च 2014 में भारत को पोलियो मुक्त होने का प्रमाण-पत्र मिला। लापरवाही का शिकार मैं ही नहीं अनेक हुए, लेकिन मैं निराश नहीं हुआ और न किसी के सामने हाथ फैलाया। वक्त का एक दौर ऐसा भी था, जब मेरे पास तो फूटी कौड़ी तक नहीं थी। एक आदमी ने मुझे भिखमंगा समझकर दुत्कारते हुए भीख में सिक्का  हथेली पर रख दिया, लेकिन  मैंने उसे चुनौती माना और फूस की झोपड़ी में देखे सपनों की दुनिया आबाद कर, झूठे और फरेबी समाज को अंगूठा दिखाकर माना।’

रतनसिंह गुर्जर


यह बात शाजापुर नई सड़क पर राधाटाकीज के निकट शानदार ’श्रीराम इलेक्ट्रिक शोरूम’ के मालिक, लेकिन विकलांग होकर भी अदम्य साहसी रतनसिंह गुर्जर ने कही। इनका कहना था कि ‘देश में विकलांगों के साथ जो अन्याय अत्याचार हुआ है, उतना दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं में नहीं। विगत पांच साल पूर्व से ही विकलांगों की तरफ ध्यान दिया जाने लगा है, वरना हमारे साथ जो हुआ उस पर एक ग्रंथ लिखा जा सकता है। अकेले मध्यप्रदेश में वर्ष 2011 की गणना के अनुसार 15 लाख पांच हजार विकलांग आबादी में से अकेले राजधानी भोपाल में 84,502 हैं, जिन्हें काम की तलाश है।’

भीषण यातना भरी कहानी

रतनसिंह का कहना था ’भर्ती घोटालों के कारण सर्वाधिक परेशानी का सामना विकलांगों को करना पड़ता है। उनके स्वयं के बारे में पूछे सवाल के जवाब में रतनसिंह ने बताया कि ’मेरी कहानी जहां एक ओर भीषण यातना से लबरेज करूणगाथा है, वहीं खुशी के आंसुओं से सराबोर भी है। वक्त का एक दौर ऐसा भी था, जबकि मेरे पास फूटी कौड़ी तक नहीं थी। जिन लोगों ने मुझे लंगड़ा लूला कहकर मजाक उड़ाया और हेय दृष्टि से देखता, वक्त आने पर मैंन उन्हीं के गाल पर तमाचा जड़कर दिखा दिया।’

मांगकर खाने के अलावा यह लड़का करेगा क्या!

एक सवाल के जवाब में रतन ने बताया ’मेरा जन्म सन 1976 में जिला शाजापुर से दस किमी दूर एक छोटे से गांव लोहरवास, पोस्ट गोपीपुर के एक गरीब किसान परिवार रूघनाथसिंह और अजुबाई के घर हुआ, लेकिन पाँच वर्ष की उम्र पोलियो की वजह से विकलांग हो गया। आज मेरे दोनों पैर हरकत नहीं करते जिसके कारण लगभग मैढ़क की तरह दो हाथों के सहारे घिसटाते हुए चलना पड़ता है। परिवार और गांव के लोगों ने सोचा कि इसका भविष्य भीख मांगने से अधिक होगा भी क्या? लेकिन मैंने हार नहीं मानी और स्कूल जाने की जिद पकड़ ली, आखिर हार थकर पिताजी ने लोहरवास के प्राइमरी स्कूल में भर्ती करा दिया। वे रोज अपनी गोद में उठाकर स्कूल छोड़ आते। गांव के  स्कूल में अच्छे नम्बरों से कक्षा पाँच पास करने के बाद मिडील की पढ़ाई के लिए ग्राम भरड़ जाना पड़ा, जहां एक गरीब आदिवासी ने रात को सोने इतनी व्यवस्था कर दी। यह 1988 की बात है, इस आदिवासी के पास कुछ बकरियां थी। जगह की तंगी के कारण मुझे बकरियां बांधने की फूस की झोपड़ी में सोना पड़ता था जिसके चलते रात भर बकरियों के मिमियाने की आवाज के कारण नींद आना किसी प्राणायाम से कम नहीं थी। वहीं बदबू के कारण दम घुटता सो अलग। एक प्रकार के उस यातना शिविर में दो साल काटे, लेकिन यहां भरड़ में रहने के दौरान अच्छी बात यह हुई कि 1987 में जिला पंचायत के माध्यम से मुझे विकलांग कोटे में ट्रॉइसिकल मिल गई। वहीं ग्राम के समाजसेवियों स्व. रामप्रसाद पाटीदार और हरिनारायण पाटीदार ने भी बहुत मदद की।

सुंदरकांड के जरिए लोगों को किया मुग्ध

गोपीपुर से कक्षा आठ पास करने बाद शाजापुर के शासकीय हायरसेकंडरी स्कूल मुझे दाखिला मिल गया, लेकिन ठहरने खाने की चिंता पीछा नहीं छोड़ रही थी। एक दिन इसी जुगाड़ में भटकते हुए वजीरपुरा के बालवीर हनुमान मंदिर जा पहुंचा, जहां रामचरित मानस का पाठ चल रहा था और भक्तों का मजमा लगा था। मैं घसीटते हुए किसी तरह मुख्य भजनगायक के पास जा पहुंचा और उनसे बोला कि मैं भी गाऊँगा। उन्होंने सोचा यह भिखारी जैसी शक्ल का लड़का क्या गाएगा! लेकिन किसी उत्सुकता वश मुझे माइक थमा दिया। बस! फिर क्या था ? मैंने न सिर्फ सुंदरकांड वरन एक से बढकर एक कई भजन सुनाए। मेरी आवाज के जादू और तबला हॉर्मोनियम की संगत ने समा बांध दिया। स्कूल से लौटकर शाम के समय भजन गाने मंदिर पहुंच जाता, लोग भी मेरा इंतजार करते। भजन गायकी से प्रभावित होकर वजीरपुरा के हनुमान भक्त ललित आँवले, अवध नारायण पाराशर सहित आसपास के लोगों ने मेरे रहने का इंतजाम कर दिया। वहीं रोज किसी न किसी घर से खाना आ जाता था।

लैम्पपोस्ट की रोशनी में पढ़ाई

रतनसिंह ने बताया कि मंदिर के पास रहने के कारण वहां ऊंची आवाज में इको सिस्टम के साथ अखंड पाठ हुआ करता, जिस वजह से  पढ़ना दूभर था। इसलिए मैं दूर लाइन चला जाता। जहां मच्छर काटने के बावजूद बिजली के खम्बे की रोशनी में पढ़ाई करता। एक दिन शहर में सड़क के किनारे देखा कुछ लोग सड़क के किनारे बैठे प्लास्टिक वायर से कुर्सियों की बुनाई कर रहे हैं। मैं वहीं उनकी कला को गौर से देखने लगा। कुछ दिनों में ही खुद को इस लायक बना लिया कि मैं भी इसके जरिए कमाई कर सकता हूं।

कुर्सियां बुनकर कमाना शुरू

पहली बार सतीश छबलानी मुझे कुर्सियां बनवाने के लिए अपने घर ले गए। मैंने कुर्सियों की डिजाइन परखी और कुशलता से बुन दिया। उन्होंने सौ रूपए मजदूरी दी तब मेरी आँखें आँसुओं से तरबतर थी। सन 1995 के जमाने में सौ रूपए आज के हजार रूपए से कम नहीं थे। यह मेरे जीवन पहली कमाई थी, मेरे हाथों ने इतने रूपए पहले कभी नहीं देखे थे। शायद छबलानी ने मेरे काम की तारीफ विनोद पाठक से की होगी! पाठकजी जिला रोजगार दफ्तर में बाबू थे। उनकी पहल पर मुझे ऑफिस की 20 कुर्सियां बुनने का काम मिला जिसके बदले में 400 रूपए मिले।

पूर्व विधायक मनोहर सिंह ने दिलाया काम

रतनसिंह ने अपनी व्यथाकथा जारी रखते हुए बताया ’कांग्रेस के पूर्व विधायक मनोहरसिंह मुझे शाजापुर के टंकी चौराहा स्थित को ऑपरेटिव सोसायटी कार्यालय ले गए वहां कुर्सिया बुनी। इसके अलावा और भी ऑफिसों में काम मिलने लगा। इस तरह मेरी कमाई 1000 रूपए प्रतिमाह होने लगी। इस तरह काम चल निकला। शासकीय कार्यालयों में कुर्सी बुनने के ठेकों ने मेरे लाचार पैरों में पंख लगा दिए।

लेकिन संकट ने नहीं छोड़ा साथ

रतन सिंह का कहना था कि ’जीवन में फिर संकट के बादल तब उमड़े जबकि बेंत की कुर्सियों का चलन बंद हो गया और उनकी जगह सोफे ने लेली। मैं फिर बेराजगार! ऐसे में कुर्सी बुनाई से बचाकर रखी पूंजी काम आई। रोजगार का और कोई जरिया खोजना जरूरी हो  गया था। तब रेडियो और इलेक्ट्रिक के सामानों की रिपेयर करना सीखा।

घर की दाल पतली न होती तो होते अफसर

’यहां बताता चलूं कि पैर भले ही काम नहीं करते हैं, लेकिन मेरा दीमाग किसी आइएएस अफसर से कम नहीं हैं। यदि घर की माली हालत पतली नहीं होती तो मैं दावे से कहता हूं आज कलेक्टर तो क्या कमिश्नर भी से कम नहीं होता! खैर रिपेयर का भी काम चल निकला। घरों में जाकर रेडियो सहित अन्य उपकरण ठीक करने लगा। बाद में ऐसे सामान घर-घर जाकर बेचना भी शुरू कर दिया। टीवी, रेडियो, वाशिंग मशीन आदि बेचने का धंधा भी चल निकला। सात सालों तक बिना शो रूम, घर-घर जाकर आर्डर लेता और सामान बेचता रहा।


शोरूम मालिक ने समझा भिखारी फिर मांगी माफी

एक सवाल के जवाब में रतनसिंह ने बताया कि ’वर्ष 2007 में शाजापुर के ही राधा टॉकीज के पास मैंने अपना शो रूम खोला जिसके लिए टीवी का आर्डर देने इंदौर एमजी रोड़ स्थित ’ग्लोबस सेंटर’ पहंुचा। यहां मेरे साथ जो घटना हुई, वह ताउम्र याद रहेगी। जब रेंगते हुए उस शोरूम की एक ही सीढ़ी चढ़ पाया था कि बीपीएल टीवी के डिस्टिब्यूटर राजेश जी ने गंदी-सी नैकर और टीशर्ट देखकर मुझे भिखारी समझा और एक रूपए का सिक्का हाथ पर रख दिया। बोले ’जा भाग, आगे जा!’ मुझे काटो तो खून नहीं! ऐसे अपमान से मेरा सामना पहली बार नहीं हुआ था। अपमान और तिरस्कार से निजात पाने के लिए ही मैंने इतनी जद्दोजहद की है, वरना किसी मंदिर के पास बैठ जाता तो भी पेट भरने इतना कमा ही लेता। खून के घूंट पीते हुए और मारे गुस्से के मैं चीखा-’आप मुझे भिखारी समझ रहे हैं?’ लेकिन सेठजी, मैं वह नहीं  हूँ, जो आप समझ रहे हैं। इस पर राजेशजी बोले ’भिखारी नही ंतो क्या यहां धन्ना सेठ बनकर आया है? चले आते हैं साले’! इस पर मैं नोटों की गड्डी लहराते  बोला-’मुझे 10 टीवी खरीदना है, यह देखो नोट!’ दरअसल मेरा हुलिया तरस खाने जैसा था। अठारह साल का निहायत मरियल दुबला पतला लड़का, ऐसी शक्ल सूरत देखकर उन्हें गलत फहमी हुई होगी। आखिर उन्होंने माफी मांगी और हाथ पकड़कर शो रूम में ले गए। तब मैंने दस टीवी का एक लाख रूपया कैश भुगतान किया और ट्रांसपोर्ट के जरिए टीवी भेजने का आर्डर दिया। लौटते समय राजेशजी  सारा काम छोड,़ अपनी कार से मुझे सरवटे बस स्टेंड लेकर आए। सच पूछो तो राजेशजी को भी ऐसे ग्राहक से शायद पहली बार पाला पड़ा होगा और मुझे भी शानदार कार में सवारी करने का जीवन में पहली बार सुख मिला।  उन्होंने मुझे सहारा देकर कार से उतारा और बोले-’रतन भाई, माफ करना वो अपमान की निशानी एक रूपए का सिक्का मुझे वापस कर दो प्लीज!’

रतनसिंह ने खोला इलेक्ट्रॉनिक शोरूम

विकलांगता को चुनौती देने वाले रतनसिंह गुर्जर का शाजापुर के बीच बाजार में नई सड़क पर ’श्रीराम इलेक्ट्रॉनिक्स’ शो रूम आज भी देखा जा सकता है। रतन के ग्राहकों में कलेक्टर, एसपी, डीएसपी से लेकर आम शहरी और देहाती भी हैं। यहां गौर तलब है कि रतन ने शासन के समक्ष कभी किसी योजना या नौकरी के लिए आवेदन नहीं दिया। विकलांग होकर भी न केवल शाजापुर जिले वरन् दुनिया के समक्ष आत्मनिर्भता की मिसाल हैं रतनसिंह गुर्जर।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *