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गीत : राम तुम आ कर व्यवस्थित आचरण कर दो

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प्रेम और सद्भावना का संचरण कर दो,
सत्य पथ पर अग्रसर सबके चरण कर दो,
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

आशीष दशोत्तर

प्रेम और सद्भावना का संचरण कर दो,
सत्य पथ पर अग्रसर सबके चरण कर दो,
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

विनय तुम सा है कहां , वाणी कसैली है,
आंख के आगे घृणा की गर्द फैली है ।
प्रेम को भूले भगत शत्रु बने बैठे ,
मन के भीतर एक चादर ख़ूब मैली है ।
इन अभागों का व्यवस्थित आचरण कर दो ।
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

एक मरता है दशानन सौ खड़े होते ,
कुछ हठी, निर्लज्ज , ज़िद पर भी अड़े होते ।
सामने बौना सभी को वे यहां करके ,
पंक्ति में सबके बराबर आ खड़े होते ।
मंथराओं सी कुटिलता का क्षरण कर दो ।
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

सादगी,संयम कहाॅं है अब वो मर्यादा,
कम नहीं कोई किसी से,हर कोई ज़्यादा।
मित्रता कोई नहीं सीखा यहाॅं तुमसे ,
और जीवन भी नहीं तुम सा रहा सादा।
ऐसे भक्तों का व्यवस्थित आचरण कर दो।
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

ठीक से जो बात अपनी कह नहीं पाते,
फिर भी अपने आप पर वे ख़ूब इठलाते।
अवगुणों को ओढ़कर गुणवान बनते हैं,
गान के स्थान पर दिन-रात चिल्लाते।
शुद्ध ऐसे दौर का तुम व्याकरण कर दो।
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

सिर्फ़ होंठों तक रहे हो तुम यहाॅं सीमित,
दृष्टि भी तो हो गई है कितनी संकुचित!
तुम अधर तक ही रहे,मन में नहीं उतरे,
नाम ले कर हो गए हैं लोग कुछ चर्चित ।
भावना जैसी है वैसा आवरण कर दो।
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

है असत चहुॅंओर,सत का दायरा कम है,
छल,कपट, दुर्भावना में आजकल दम है।
इस विषम वातावरण में आस क्या रक्खें,
ऑंख भी उम्मीद की अब तो यहाॅं नम है।
कुछ यहाॅं ‘आशीष’ दे कर पूर्ण प्रण कर दो।
राम तुम आओ मुदित हर एक क्षण कर दो।

⚫ आशीष दशोत्तर

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