आना चाहता हूँ तुम्हारे द्वार

आना चाहता हूँ तुम्हारे द्वार
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मैं आना चाहता हूँ तुम्हारे द्वार
किसी चतुष्पदी की तरह नहीं ,
नहीं महाकाव्य के किसी सर्ग की तरह ,
मैं सम्पूर्ण महाकाव्य की तरह
तुम्हारे आंगन में उतरना चाहता हूँ
जिसे पढ़ते हुए
तुम्हारी आँखों से आँसू बह निकले ,
जिसके पद गाते हुए तुम्हारे अधरों पर
मधुर मुस्कान बिखर जाए ,
मैं सुबह बन कर आऊँ इस तरह
कि कब सूरज ढल जाए ,
सूरज को भी पता न चले।

मैं आना चाहता हूँ तुम्हारे द्वार
हरिकथा के किसी मोहक प्रसंग में
सावन की झड़ियाँ लेकर ,
कि हमारे मन भींग जाएँ
और प्राण पुलकित होकर
गाने लगे जयदेव के मधुर गीत ,
खूब सारा वसंत और शरद की चाँदनी
भर कर ले आना चाहता हूँ ,
रंग-गुलाल उड़ाते हुए आना चाहता हूँ
कि कुछ खालीपन न लगे
आते हुए मुझे
और मिलते हुए हम दोनों को।

मैं आना चाहता हूँ तुम्हारे द्वार
सिर पर मोर-मुकुट पहने हुए ,
फलों से लदे हुए तरुवर की तरह ,
या उस उपवन की तरह
जहाँ निसर्ग-कन्याएँ
मधुर वार्तालाप में खो जाएँ
और आकाश से झरने लगे
पंछियों की रसीली ऋचाएँ।

मैं सचमुच आ रहा हूँ तुम्हारे द्वार
बाँसुरी बजाते हुए।
कपाट बंद मत रखना ,
पानी से भरा कलश थामे रखना ,
और कुंकुम से सजा देना स्वस्तिक ,
गाते हुए मिलना मंगलगीत ,
हिण्डोला सजा देना पुरवाई में
साथ में माखन-मिश्री , दूध-मलाई।
मैं ऋतुसंहार लेकर आऊंगा
और साथ में प्यार का वह सागर
जिसमें डूबने के लिये
मचल रहे हो तुम भी, मैं भी।

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✍ डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला
साहित्यकार

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