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ग़ज़ल/ कविता : दो जून रोटी का

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प्रश्न है कब से खड़ा दो जून रोटी का,
आज भी है मसअला दो जून रोटी का ।

आशीष दशोत्तर/ डॉ. नीलम कौर

प्रश्न है कब से खड़ा दो जून रोटी का,
आज भी है मसअला दो जून रोटी का ।

मुफ़्तखोरी बढ़ रही है मुल्क में कितनी ,
है मगर क्यों फ़ासला दो जून रोटी का ।

आप सुनते आ रहे हैं सात दशकों से ,
ख़त्म होगा मुद्दआ दो जून रोटी का ।

ऐ महल वालों कभी फुर्सत मिले तुमको ,
हाल क्या है सोचना दो जून रोटी का ।

आपकी हालत सुधरती ही गई लेकिन ,
दायरा कुछ घट गया दो जून रोटी का ।

दूरियां बढ़ती गई लब से निवालों की ,
खूब नारा तो लगा दो जून रोटी का ।

हम ग़रीबों को मिले ‘आशीष’ थोड़ा सा ,
अब यहां पर आसरा दो जून रोटी का।

आशीष दशोत्तर
     9827084966

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दो जून की रोटी

डॉ. नीलम कौर

है कहावत के मिलता नहीं
सबको मुकम्मल जहां
पेट का सवाल भी आकर
खड़ा है यहाँ
किसी के सामने हो
छप्पन भोग
मगर खाने से बेजार
वो होता है,
किसी को खून-पसीना
बहा दो जून रोटी भी
नहीं मिलती।

जुमलों में मुफ्त राशन
की बात होती है
घुन लगे आटे और
कीड़े पड़े चावल के
साथ कहाँ तेल-मसाले हैं
उसकी बात नहीं होती,
हाड़,माँस गला-गला
किसान नाज उगाता है,
भरते सरकारी गोदाम
उसको कहाँ दो जून रोटी
का अनाज मिलता है?

गिरवी जमीर यहाँ
सत्ताधारियों का हैं,
एक वोट की चाहत में
हजारों झूठ बोलता है,
शीतोष्ण कक्ष में बैठ
योजनाएं बनाता है,
मेहनतकश मजदूर बेचारा
छत को तरसता है,
भूखा-नंगा भविष्य
किताबें छोड़ हाथ फैलाता
है,मजबूर दो जून की
रोटी को तरसता है।

डॉ. नीलम कौर

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