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शख्सियत : मैथिली भाषा इतिहास की प्राचीनतम भाषाओं में से एक

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हिंदी तथा मैथिली लेखिका नीति झा का कहना

राजा जनक की राजभाषा थी मैथिली। विद्यापति की रचनाएं आज भी प्रासंगिक। बिहार के स्कूलों में शामिल होगी मैथिली

नरेंद्र गौड़

’मैथिली भाषा इतिहास की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। इसका प्रथम प्रमाण रामायण में मिलता है, त्रैता युग में मिथिला नरेश राजा जनक की यह राजभाषा थी। प्राचीन मैथिली के विकास का शुरूआती दौर प्राकृत और अपभ्रंश के विकास से जोड़ा जाता है। बताया जाता है कि 700 ईस्वी के आसपास इस भाषा में रचनाएं की जाने लगी थी।’
यह बात मैथिली तथा हिंदी भाषा की सशक्त हस्ताक्षर नीति झा ’नित्यम’ ने कही। इनका कहना था कि मैथिली के आदिकवि विद्यापति हुए हैं जिनकी भक्ति प्रधान रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। उन्हें श्रृंगार  रस का कवि भी माना जाता है। दरबारी कवि होने के कारण उनकी श्रृंगार रचनाएं अपने समय को पारिभाषित करती हैं।

स्कूलों में भी पढ़ाई जाएगी मैथिली

एक सवाल के जवाब में नीति झा ने बताया कि बिहार में मैथिली भाषा का स्वर्णयुग आने वाला है। एक बार फिर स्कूलों में मैथिली की पढ़ाई शुरू करने की बात चल रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शिक्षामंत्री से कहा है कि है कि अगर स्कूलों में मैथिली भाषा को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तो अच्छा रहेगा। खुद नीतीश बाबू मैथिली में फर्राटेदार बोलना जानते हैं। उनका कहना है कि मैथिली का विकास बिहार का विकास है। ज्ञात रहे कि बिहार, झारखंड और नेपाल में मैथिली का खासा दबदबा है। जाहिर है बिहार में मैथिली की ’बयार’ एक बार फिर बहने वाली है। नीतीश बाबू का मानना है कि मैथिली ही नहीं भोजपुरी भाषा का विकास भी बिहार के लिए आवश्यक हैं। फिलहाल बिहार के बेगुसराय में एक स्कूल ऐसा है जहां हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत के साथ मैथिली भी पढ़ाई जाती है। बिहार में 15 जिलों में मैथिली भाषा बोली जाती है। वहीं झारखंड में इसे व्दितीय राजभाषा को दर्जा हासिल है।  नेपाल के आठ जिलों में मैथिली बोली जाती है।

सात करोड़ लोगों की मातृभाषा

एक सवाल के जवाब में नीति झा ने बताया  कि विद्यापति के अलावा मैथिली भाषा के प्राचीन कवियों में तुलसीदास,  जायसी, बिहारीलाल का नाम आदर से लिया जाता है। आधुनिक समय की बात की जाए तो बाबा नागार्जुन ने भी मैथिली में साहित्य रचकर इस भाषा को समृध्द किया है। उनका नाम वैद्यनाथ मिश्र था, लेकिन वह हिंदी में नागार्जुन और मैथिली में ’यात्री’ उपनाम से लिखा करते थे। मैथिली बोलने और सुनने में मोहक लगती है। आज लगभग सात करोड़ लोगों की यह मातृभाषा है। कुछ अंशों में यह बांग्ला और हिंदी से मिलती-जुलती है। इसकी उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है। एक सवाल के जवाब में नीति झा ने बताया कि वर्ष 2003 में मैथिली भाषा को भारतीय संविधान की 8 वीं अनुसूचि में शामिल किया गया। इसकी घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने की थी।

सुमधुर स्वरों में गीतों की प्रस्तुति

इन दिनों पटना में शिक्षणिक तथा लेखन कार्य कर रही नीति झा का जन्म भागलपुर (बिहार) जिले के ग्राम तिलडीहा में यतींद्र नाथ झा और श्रीमती शकुंतला के घर हुआ। स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण कर चुकी नीति जी प्राथमिक कक्षाओं के समय से ही लेखन करने लगी थी। इनकी बालसुलभ कविताओं और सुमधुर स्वरों में प्रस्तुत गीतों को शिक्षकों तथा सहपाठियों ने बहुत सराहा। लिखने की प्रेरणा इन्हें अपने पिता यतींद्र नाथ जी से मिली। आरंभिक दिनों से ही इनके प्रिय लेखकों में प्रेमचंद, महादेवी वर्मा तथा रामधारीसिंह दिनकर रहे हैं।

प्रकाशित रचनाएं

’मेरी कलम से’, ’रसमयी काव्य’, ’रसधारा’ इनके प्रकाशित तथा चर्चित कविता संकलन हैं। इन्होंने बताया कि हिंदी के साथ मैथिली में भी लिखती रही हैं। ’प्रतिबिम्ब’ तथा ’मोनक भाव’ मैथिली कविता संकलन भी शीघ्र छपने जा रहे हैं। आप पारंपरिक मैथिली लोकगीतों की रचना के साथ उनकी सुमधुर स्वरों में प्रस्तुति भी करती हैं। भागलपुर के आसपार इनकी रचनाओं को पसंद करने वालों का एक बड़ा समूह भी है। लेखन के साथ ही आप ’मिथिला दर्पण’ के संपादन कार्य से भी संबंध हैं। ’मां तथा मजदूर’ इनकी लोकप्रिय रचना है जिसकी मंचीय प्रस्तुति कर इन्होंने श्रोताओं की बहुत सराहना बटोरी है तथा प्रशस्ति पत्र भी प्राप्त किए हैं। इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।

आसपास बिखरे जीवन के दृश्य

नीति झा की कविताओं में आसपास बिखरे जीवन के दृश्यों और अपने समाज की गहरी पड़ताल देखी जा सकती है। कहीं- कहीं गहरी करूणा और हताशा है तो कहीं कभी न लौटकर आने वाले बचपन की गहरी स्मृतियां हैं। इनमें गुम हो रही चीजें और चिट्ठिियां हैं जिनका शिद्दत से करता इंतजार भी है। इनमें गुलाब की महक भी है तो वहीं तितलियों की मोहक दुनिया और समाज में व्याप्त अन्याय का प्रतिकार करने का अदम्य साहस भी है। इनकी कुछ कविताएं उन दृश्यों को सामने रखती हैं जो अपरिचित हैं तो कुछ अपरिचित भी हैं, अनेक दृश्य हमारे आसपास के देखे भाले हैं, लेकिन उनके आकलन का तरीका इन्होंने कठिन अभ्यास और संघर्ष के बाद पाया है। आंचलिकता इनकी रचनाओं का मूल स्वर है। सच के ताप और उसके महत्व को समझने समझाने का भाषाई विन्यास भी इनके पास है जो इनकी कविताओं को अन्य रचनाकारों से अलग करता है।


नीति झा की कविताएं

मैं हूँ गुलाब …

मैं हूँ गुलाब!मैं हूँ गुलाब!
माधूर्य की पूरी किताब
हँसता हूँ मैं , ज्यों हूँ  नबाब।
महके पवन छू ले जो तन
फूलों में हूँ  मैं लाजबाब
मन मोह लूँ जो सिर चढूँ
आ संग तू,  तू मन सँवार

धरा का मैं गंधर्व हूँ
मनमोहक सौन्दर्य हूँ
काँटों से मैं डरता नहीं
आपा कभी खोता नहीं
तोड़ो मुझे छेड़ो मुझे
महका करूँ मैं बेहिसाब
मैं हूँ गुलाब!मैं हूँ गुलाब!

⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫

सखी ! मैं हार जाती हूँ !

क्यों?
मौन रह तू ,पर लेखनी
उठाया कर
क्यों गई री डर  ,

तू चाहती है  प्रतिउत्तर !

तो सुन..
मैं आज भी शानदार और
धुआँधार लिखती हूँ 
झूठ की धज्जियां
बार -बार उड़ाती हूँ
भेदभाव पर करारा प्रहार
करती हूँ
पैर को जमी पर रखकर
उडते चहकते पक्षियों के
साथ उड़ती हूँ 
भागती तितलियों पर
मोहित होती हूँ 
खिलते फूलों से
मोहित  होती हूँ
बचपन से हरपल खेलती हूँ
युवाओं के पौरुष
को नमन करती हूँ
वात्सल्य भाव को
सर्वोपरि मानती हूँ
बुढापा को ह्रदय से
सुनती हूँ
अक्सर अन्याय का
प्रतिकार करती हूं
आत्मीयता के आडंबर
से बहुत डरती हूँ
हाँ सरल सदभाव पर
, स्नेहिल जनों
से हार जाती हूँ …

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झूठ

जरा झूठ को जल जाने दो
सच की ताप अभी रहने दो
संताप झूठ की हम देखेंगे
विलाप तनिक उनको करने दो

हाँ झूठ को पिट जाने दो
सच की छड़ी अभी चलने दो
चोट की पीड़ा तब जानेंगे
सच की राह तभी आऐंगे

हाँ झूठ को लूट जाने दो
सच से इन्हें निपट लेने दो
आँख चुराना हम देखेंगे
खुद को खोना हम देखेंगे

झूठको जरा उखड़ जाने दो
मुँह कुम्हलाना हम देखेंगे
खुद मुरझाना हम देखेंगे
जड़ की वो कीमत जानेंगे

भीड़ झूठ की छट जाने दो
एक दूजे को भिड़ जाने दो
मधुर तराना फिर  गाएँगे
हाँ जी हाँ ,जी बहलाएंगे!

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हँसने दे...


सदभाव सरस बरसने दे
हाँ मित्र मुझे तू हँसने दे
ना नमी नाप इन आँखो की
आँसू को आज चमकने दे
सुन मित्र मुझे तू हँसने दे

ले  गम को परे ठेल आई
आँसू में उसे बहा भागी
हो चुका स्वच्छ ये अंतर्मन
कुछ खुशी यहाँ बिखरने दे
सुन मित्र मुझे अब हँसने दे

छल छद्म ने मुझको घेरा था
मनमें तम का ही बसेरा था
विश्वास भी डगमग मेरा था
मिथ्याभिमान से तोड़ चली
ये शीश ईश तक झुकने दे
सुन मित्र मुझे अब हँसने दे

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आशा

दिनमणि प्रचंड हैं ताप लिए
सूखी है  धरा  संताप तले
शीतल सी छाया लाएगा
बादल जब घिर -घिर आएगा
फिर ठंडी हवा बह जाएगी
गर्मी दूर भगाएगी
पेडों की डालियाँ झूमेगी
नीड़ो में खग कुल बोलेंगे
बादल फिर रिमझिम बरसेगा
आनंदित जग का मन होगा
ये सुखद भाव भरी बातें
संत्रासों को  हर लेती है
आशा ही मानव जीवन को
बढने का  हौसला देती है ।

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