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शख्सियत : आर्थिक गैर बराबरी के दौर में लेखकीय चुनौतियां अनेक

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डॉ. प्रज्ञा रावत का मानना

नरेंद्र गौड़

‘हम एक अप्रत्याशित और गंभीर संकट के दौर में हैं। देश आज जिस आर्थिक और गैर बराबरी के दौर से गुजर रहा है, वह आजादी के पूर्व ब्रिटिश राज के समय की याद दिलाता है। ऐसे में लेखकों के समक्ष चुनौतियां भी अनेक हैं। सत्तर प्रतिशत राष्ट्रीय संपत्ति केवल दस प्रतिशत लोगों के कब्जे में हैं। इस स्थिति को और विकराल बनाया कोविड-19 की महामारी ने जो शायद सदी में एक बार घटित होने वाली घटना है। भारत में गरीब और भूखे लोग दिन-ब-दिन अनिश्चत परिस्थितियों में जी रहे हैं।’

यह बात जनकवि केदारनाथ अग्रवाल स्मृति सम्मान प्राप्त वरिष्ठ कवयित्री डॉ. प्रज्ञा रावत ने कहीं। इनका मानना है कि इन दिनों कविता अनेकानेक चुनौतियों का सामना करते हुए लिखी जा रही है। तमाम संवेदनशील लेखकों, कलाकारों और बुध्दिजीवियों के लिए यह समय बहुत कठिनाइयों से भरा है। एक तरफ जहां सत्ता लगातार सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा दे रही है, वहीं भूख, गरीबी, बेरोजगारी बढ़ रही है हिंसा, बलात्कार की घटनाओं पर सरकार लगाम लगाने में नकारा साबित हो रही है। डॉ. प्रज्ञा का कहना है कि इस घटाटोप अंधकार में एक उजास और उम्मीद भरा एक शब्द भी लिखना दूभर है। जाहिर है परिस्थिति और परिवेश का सामना तो करना ही होगा। यही रचनात्मकता और रचाव की दुनिया की पहली और प्राथमिक शर्त है।

लम्बी तैयारी के बिना कविता संभव

डॉ. प्रज्ञा का मानना है कि कविता सर्वप्रथम कलाकृति है और उसमें निहित सौंदर्य उसे यह उत्कृष्टता प्रदान करते हैं। लेकिन कविता में ऐसा क्या है जो उसे सुंदर बनाता है? यह पूछे जाने पर इनका कहना था कि यह बहुत गंभीर सवाल है। लेकिन फिर भी यही कहा जा सकता है कि कविता का कथ्य अथवा उसकी वर्ण्य वस्तु उसे सुंदरता प्रदान करती है। कविता एक शाब्दिक कला है और इसलिए वह दूसरी दृश्य कलाओं से भिन्न भी है। इनका कहना है कि  कविता की कोई परिभाषा ऐसी नहीं जो उसकी प्रकृति और चरित्र का सर्वांगीण परिचय दे सके। गद्य से भिन्न शब्द संहति और वाक्य विन्यास जब प्रचलित अर्थ का अतिक्रमण कर एक नया अर्थ आलोक ग्रहण कर लेते हैं तभी काव्यत्व का जन्म होता है। इनका यह भी मानना है कि किसी भी कला माध्यम पर पूरी पकड़ कायम करने के लिए कलाकार को लम्बी तैयारी और कठिन साधना करनी होती है। कविता कला के माध्यम भाषा को अर्जित करने के लिए भी यही प्रक्रिया अपेक्षित है। हम अपने बड़े कवियों के जीवन में इस प्रक्रिया को घटित होते देखते हैं।

डॉ. प्रज्ञा को मिला केदारनाथ स्मृति सम्मान

झांसी उत्तरप्रदेश में जन्मी डॉ. प्रज्ञा के पिता डॉ. भगवत रावत आधुनिक हिंदी कविता के सुपरिचित और जाने-माने कवि थे। कहना न होगा कि कविता इसी वजह से प्रज्ञा जी को विरासत मिली है। इनके सुपुत्र मल्हार सलिल बेहतरीन फिल्म मेकर हैं, हाल ही में उनकी एक लघुफिल्म ’आउट ऑफ कॉन्टेक्ट्स’ रिलीज हुई है, जो इन दिनों बहुत चर्चित हो रही है। इसके अलावा यह भी यह भी उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष 22 जून 2024 को बांदा में आयोजित समारोह में वर्ष 2024 का ’मुक्तिचक्र जनकवि केदारनाथ अग्रवाल स्मृति सम्मान’ भी डॉ. प्रज्ञा को प्रदान किया जा चुका है।

अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित

इन्होंने शासकीय सरोजिनी नाइडू कन्या महाविद्यालय (बरकतुल्ला विश्वविद्यालय) भोपाल से बीए अंग्रेजी में, एमएबीएड (री एनसीइआरटी) तथा पीएचडी किया है। प्रज्ञा जी मध्यप्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग, शासकीय बेनजीर महाविद्यालय में अंग्रेजी की प्रवक्ता रही हैं। इनका कविता संकलन ’जो नदी होती वर्ष 2012 में प्रकाशित तथा चर्चित रहा है। इसमें वह एक सजग लोकधर्मी स्त्रीवादी स्वर को नया आयाम देती दिखाई देती हैं। इन्होंने ’यह महज कोरा कागज़ नहीं’ नाम से भगवत रावत जी के कविता संकलन का संपादन भी किया है जो वर्ष 2016 में बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुआ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपती रही हैं। इनमें कुछ प्रमुख हैं-साक्षात्कार, प्रगतिशील वसुधा, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, परिकथा, शब्दयोग, देशज, अन्यथा, कथादेश, प्रेरणा, लमही, संगिनी, युध्दरत आदमी, राग भोपाली, समावर्तन, इतिहास बोध, रविवारीय जनसत्ता, रसरंग, दैनिक भास्कर, पुलपुल्स समाचार, नवभारत, नई दुनिया शामिल हैं।

पुरस्कार तथा अलंकरण

यदि सम्मान की बात की जाए तो प्रज्ञा जी को वर्ष 2010 में साहित्य सुरभि अलंकरण, वर्ष 2012 में कविता संकलन ’जो नदी होती’ के लिए मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान, दिसम्बर 2018 में दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल  का डॉ. सुषमा तिवारी सम्मान प्रदान किया जा चुका है। इन्होंने ब व कारंत के बच्चों के नाटक में गायन कर खासी ख्याति प्राप्त की है। इसके अलावा प्रज्ञा जी ने देश की पहली संस्कृत फिल्म ’आदि शंकराचार्य’ में भी सह गायन किया है।

डॉ. प्रज्ञा की चुनिंदा कविताएं

रंग

जब-जब कविता में
एक हिस्सा विचार
एक हिस्सा धर्म का
पूरा गुणा भाग
ल्गाकर रचता है कवि
तब भी कविता क्यों
नहीं कह पाती कुछ
क्योंकि मनुष्य होना तब भी
क्विता होने से
बड़ा होता है जहां
बाजी मनुष्यता मार
ले जाती है।
लड़कियां

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एक रात घर वापस

नहीं लौटेंगी सिर्फ लड़कियां
शाम की रंगीनियों में
खोई हुई
रात के नशे में झूमती
सड़कों पर होंगी सिर्फ लड़कियां

एक रात सूरज उगता देखेंगी
सिर्फ लड़कियां
एक रात पूरा मन धो लेंगी
सिर्फ लड़कियां
एक रात सचमुच सब कुछ
भूल जाएंगी सिर्फ लड़कियां
एक रात सचमुच बेखौफ़
हो जाएंगी सिर्फ लड़कियां

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अविवाहित रह गई लड़कियों के नाम

लड़की क्यों रहती हो उदास तुम
बेरौनक तुम्हारा चेहरा
मन कोई आहट सुनने को बेचैन
अनमनी-सी क्यों भागती
फिरती हो अपने आप से

सब जानते हैं कि
लिखने वालों के लिए
किसी उपन्यास का जरूरी
हिस्सा हो सकती हो तुम
उम्र का अब तक का
पड़ाव तय किया है तुमने
बिना किसी शोर-शराबे के

तुम कहां कर पाईं कभी
प्रेम किसी से
प्रेम में पड़ने की अपनी उम्र में
बेलती रहीं अपना मन
गोल-गोल रोटियों में और
सेंक दी अपनी चटख
कहने को तो बहुत कुछ है
लड़की पर राज की
बात तो यह है कि तुम्हारा
मन बहलाने नहीं आएगा कभी कोई

ये किस्सों और कहानियों के
नायक कब उतरे हैं
ऐसी किसी आधी बीत
चुकी कहानी में

मेरी बात मानो
अबकी बारिश फैला अपने
सतरंगी पंख थिरक लेना जी भर
बेसाख्ता बेसुध
डरो मत मैं हूं ना

अबके मौसम जब दूर दराज से
आई चिड़िया बैठ तुम्हारे कंधे
लौटा रही हो तुम्हारी
आंखों में चमक तो
टोकना मत उसे

क्या पता चिड़िया फिर
आए न आए
मैं भी रहूं ना रहूं।

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अभिशप्त स्त्रियां

मत खोजो रोज नए अर्थ
उनके हंसने के, हंसाने के
विराम दो अपने रोज नए अर्थ
उनके हंसने के, हंसाने के
विराम दो अपने शब्दों को
जो अविरल अकारण
बनते हैं अविराम

मत हर कड़ी कुरेदो उनका अंतर्मन
अभी गणित ने कहां बताया है
कोई ऐसा पैमाना
जो बता पाए उनकी
अथाह पीड़ा

शुक्र मनाओ कि पृथ्वी के जिस
भाग पर है सब उसका पानी
समेटे हैं वो अपने भीतर
उनका दुःख तो सिर्फ उनका है
वो तो अपना सुख बांटती हैं सबसे।

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बीजमंत्र

जितना सताओगे
उतना उठूंगी
जितना दबाओगे
उतना उगूंगी
जितना बंद करोगे
उतना गाऊंगी
जितना जलाओगे
फैलूंगी
जितना बांधोगे
उतना बहूंगी
जितना अपमान करोगे
उतनी निड़र हो जाऊंगी
जितना प्रेम करोगे
उतनी निखर जाऊंगी।

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