गीत : दीप जलाना, सबके बस की बात नहीं
⚫ आशीष दशोत्तर
अंधियारे को आंख दिखाना
सबके बस की बात नहीं।
उम्मीदों का दीप जलाना
सबके बस की बात नहीं।
तुम क्या जानो एक निवाला
घर में कैसे आता है,
उसकी ख़ातिर घर का मालिक
बार-बार बिक जाता है ।
भूखे रहकर भी मुस्काना
सबके बस की बात नहीं।
तीली, नफ़रत, तेल, हवाएं
लोग लिए ही फिरते हैं,
बात-बात पर वे लोगों का
घर भी फूंका करते हैं ।
जलते घर की आग बुझाना
सबके बस की बात नहीं।
नेक राह पर चलने वाले
लोग अजब ही होते हैं ,
सबको खुशियां देकर भी वे
दिल ही दिल में रोते हैं ।
चोट दिलों पर पग-पग खाना
सबके बस की बात नहीं।
12/2, कोमल नगर
रतलाम। मो.9827084966