एसिड बिक रहा और दिलो-दिमाग में बन भी रहा है, गिरने से कैसे रोकें
‘हां, हां… मैं तेजाब हूं, मैं तेजाब हूं। मैं कबूल करता हूं, मैं तेजाब हूं। मैं यहां पूछना चाहूंगा कि कहां से आया ये तेजाब ? यह डायलॉग है 1988 में बनी ‘अनिल_कपूर’ अभिनीत फिल्म ‘तेजाब’ का। यह इन दिनों कुछ ज्यादा ही मौजू हो चला है। तेजाब यानी आंग्ल भाषा में एसिड।
अविष्कार 17वीं शताब्दी में जर्मन-डच केमिस्ट ‘जोहन्न ग्लाउबर’ ने किया था। रासायनिक सूत्र ‘H2SO4’ है। यही ‘सल्फ्यूरिक एसिड’ है और मध्ययुग का ‘विट्रियल का तेल’ भी। यह ‘शुक्र’ ग्रह के ऊपरी वायुमंडल में स्वाभाविक रूप में मिलता है। सूर्य से प्रकाश परावर्तन कर ‘कार्बन डाइऑक्साइड’, ‘जलवाष्प’ और ‘सल्फर डाइऑक्साइड’ से प्रतिक्रिया करता है। ऊंचाई वाले हिस्से में मोटे बादलों के ऊपर तरल रूप में भी पाया जाता है जिससे ‘अम्लीय वर्षा’ होती है। यह जहां भी गिरता वह जगह जल जाती है, जिस्म ही नहीं पत्थर भी। तभी ‘संयुक्त राष्ट्र’ ने इसे अवैध घोषित कर रखा है। बावजूद 231 मिलियन टन से ज्यादा ‘सल्फ्यूरिक एसिड’ का उत्पादन हर साल विश्व में होता है।
‘बदसूरत’ बना दिया खूबसूरत’ चेहरा
वैसे तो यह बैटरी और उद्योगों के लिए उपयोगी है लेकिन ‘विध्वंसक’ इसका इस्तेमाल ‘संवेदनाएं’ जलाने के लिए कर रहे हैं। 2005 में 35 वर्ष के एक कुंठित व्यक्ति ‘नदीम खान’ ने इसी को उछाल कर एक ‘खूबसूरत’ चेहरा ‘बदसूरत’ बना दिया था। इसके चंद छींटों ने ‘छपाक’ की आवाज के साथ सपनों की दुनिया में उम्मीदों के पंख फैलाने की कोशिश कर रही 15 वर्षीय किशोरी ‘लक्ष्मी अग्रवाल’ को जिंदगी भर का दर्द दे दिया। इसने ईश्वर के बनाए कई अन्य चेहरे भी मिटा दिए, कइयों की पहचान छीन लीं। यह कहीं ‘मनुष्यता’ को ‘स्याह’ करने के काम आया तो कहीं ‘गंगाजल’ बनकर ऐसा करने वाले आतताइयों के ‘उद्धार’ का जरिया बना जो ‘शोषितों’ की नजर में तो सही था किंतु ‘विधि-सम्मत’ नहीं।
बिक रहा और गिर रहा
कहने को एसिड ‘गंधहीन’ और ‘रंगहीन’ ‘हाइड्रोजन सल्फेट’ है लेकिन मौजूदा दौर में इसकी ‘प्रकृति’ बदल गई है। यह अब शीशी में भरे तरल पदार्थ तक सीमित नहीं रहा, हमारे ‘दिलो-दिमाग’ में भी घर कर गया है। नतीजतन कुछ बोलने के लिए हमारा मुंह खुलता है तो जुबान ‘एसिड’ ही उगलती है। कोई ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के नाम पर यही ‘जहर’ उगल रहा है तो कोई ‘जाति’, ‘धर्म’ और ‘संप्रदाय’ के नाम पर। इसके असर से ‘रिश्ते’, ‘नाते’, ‘भाईचारा’, ‘एकता’ और ‘सौहार्द’ जैसी ‘संवेदनाएं खाक’ हो चुकी हैं और ‘इंसानियत बंजर’। एसिड अब ‘रंगहीन’ नहीं रहा। किसी की बोतल में यह ‘हरे’ रंग का है तो किसी में ‘केसरिया’ और ‘लाल’। इससे ‘गंध’ भी आने लगी है ‘विचारों के सड़ने’ की, ‘संस्कारों के जलने’ की। अपने साथ हुए हादसे के बाद ‘लक्ष्मी अग्रवाल’ ने कहा था ‘अगर एसिड बिकेगा ही नहीं तो किसी पर गिरेगा भी नहीं।’ अफसोस ! अब यह न सिर्फ ‘बिक’ रहा है वरन हमारे दिलो-दिमाग में ‘बन’ रहा और ‘रगों में दौड़’ भी रहा है। इसलिए न चाहते हुए भी जहां-तहां ‘गिर’ रहा है।