श्रद्धा
डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला
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“श्रद्धा” हमारे मानस का प्रिय विषय है। यह एक भाव
है , और इसी रूप में इसकी व्याप्ति है। ऋग्वेद में एक
छोटा सा सूक्त “श्रद्धा” के लिये मिलता है प्रथम मंडल
में ,जहाँ केवल पाँच ऋचाएँ हैं। किन्तु इससे श्रद्धा की
महिमा कम नहीं होती।बाद के ब्राह्मण ग्रंथों में “श्रद्धा”
को लेकर व्यापक चर्चा हुई ।
प्रसिद्ध कवि जयशंकर
प्रसाद ने श्रद्धा को केन्द्र में रख कर ही कामायनी की
रचना की ,जो आधुनिक हिन्दी साहित्य का सर्वोत्कृष्ट
महाकाव्य है।
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श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यन्दिनं परि।
श्रद्धां सूर्यस्यनिम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न:।।
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ऋग्वेद .1.151.5.
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श्रद्धा से ही देवप्रतिष्ठा , श्रद्धा ही है मणि-काञ्चन।
श्रद्धा के मन्दिर में गूञ्जित सदा स्वस्ति का ही वाचन।।1।।
सदा सुखी वे , जिनके घर में सञ्चित है श्रद्धा का धन।
सदा सुखी वे , शुभकर्मों से भरा हुआ जिनका जीवन।।2।।
देवासुर -संग्राम-विजय है , केवल श्रद्धा का आनंद।
श्रद्धा से ही पूरे होते , देवयज्ञ या वैदिक छन्द।।3।।
सुर – नर सब ही सदा चाहते श्रद्धा की अनुकम्पाएँ ।
मन के संकल्पों में श्रद्धा , श्रद्धामयी सफलताएँ।।4।।
नित प्रभात श्रद्धा का वंदन , मध्यन्दिन श्रद्धा का ध्यान।
सायं श्रद्धा को अर्पित हो , श्रद्धा ही देती सम्मान।।5।।