युवा भारत के दैदीप्यमान नक्षत्र स्वामी विवेकानंद

डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला
अबसे 125 बरस पहले एक युवक पश्चिम से पूरब की ओर लौट रहा था , और एक दूसरा युवक पूरब से जा रहा था
पश्चिम की ओर । वह पहला युवक था अरविन्द घोष , जो
बाद में महायोगी श्री अरविन्द के रूप में विश्वविख्यात हुए , और दूसरे युवक थे स्वामी विवेकानंद जिन्होंने पश्चिम में भारतीय मेधा का उद्घोष किया।
इन दोनों युवकों के जहाज आमने-सामने हुए थे , दोनों आपस में मिले तो नहीं , किन्तु इन दोनों ने भारत के भविष्य का जो प्रारूप हमें सौंपा है , उसे अनदेखा करते हुए हम जितनी दूर निकल जाएंगे, हमारा दुर्भाग्य उतना ही पसरता चला जाएगा ।
स्वामी विवेकानंद की कहानी युवा – संघर्ष की कहानी है।
यह संघर्ष धर्म की चौखट पर जरूर है ,लेकिन वह मनुष्य जाति की सम्पूर्ण विजय के लिये है । भूख , दरिद्रता , डर , जड़ता,मोह, दुर्बलता और काम-वासना के कीचड़ में धँसे
हुए मनुष्य को बाहर निकालने का एक जोरदार प्रयत्न
किया था स्वामी विवेकानंद ने ।
यह उस भारतीय युवा का आह्वान था , जो उच्चतम गुरु- शिष्य परम्परा से आया था। इतने आत्म-विश्वास के साथ अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए विवेकानंद के अतिरिक्त
किसी और को हमने नहीं देखा। विवेकानंद कभी अतीत
में नहीं गये । वे सदैव वर्तमान से लड़ते हुए दिखाई दिये । उन्होंने परम्परागत अध्यात्म का राग अलापने की अपेक्षा जीवन की सुंदरता को अपना विषय बनाया , और बेहद
शक्तिशाली विचारों से युवाओं में प्राण फूँक दिये।हिन्दुत्व
के लिये चीख – पुकार मचाने की अपेक्षा विवेकानंद ने
हिन्दुत्व को चरितार्थ कर विश्व के सामने जो तस्वीर पेश
की , उसने हमारे भीतर स्वाभिमान को जगाया , हमें वह
अपूर्व आत्मविश्वास दिया,जिसकी सदियों से दरकार थी।
विवेकानंद ने उपनिषदों से केवल एक छोटा सा मंत्र उठा
कर दिखाया । वह मंत्र था- “अभी:”। यह निर्भय हो जाने
का वह मंत्र था ,जिसके दम पर स्वामी विवेकानंद ने सब कठिनाइयों को लाँघ कर विश्व – विजेता होने का गौरव
प्राप्त किया।
स्वामी विवेकानंद सब सीमाएँ पार कर जाने वाले अदम्य साहसी और विलक्षण पराक्रमी थे।पश्चिम में यहाँ से वहाँ
तक शौहरत हासिल करने के पश्चात् अपने ही देश में
ईर्ष्यालुओं और कूपमंडूकों की भारी भर्त्सना उन्हें झेलनी
पड़ी । यह युद्ध भी उन्होंने उसी तरह लड़ा , जिस तरह राजनीति के अपराजेय योद्धा को आज भी लड़ना होता
है । स्वामी जी ने अपनी समरनीति में समझौते नहीं किये , अपितु सिंहगर्जना से नकारात्मक शक्तियों को सावधान किया।
स्वामी विवेकानंद किसी चक्रवर्ती सम्राट् से भी ऊपर के सोपान पर खड़े थे।उन्होंने हिमालय की कन्दराओं में छुप
कर तपस्या में लीन होने की अपेक्षा भारत के अगणित दरिद्रनारायणों के हृदय में उतरना ज्यादा उचित समझा । इसके लिये अपने गिरते हुए स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने
भारत भ्रमण किया । वे जितने अंदर थे , उतने ही बाहर । उन्होंने कोई राजनैतिक भाषण नहीं दिये , लेकिन राष्ट्रीय चेतना के लिये कर्मयोग की दीक्षा देकर युवकों में आग
पैदा की । नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहीं लिखा है कि
” स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजित करने
वाला धर्म था ।नई पीढी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगाई ,उसके अतीत के प्रति गौरव और भविष्य के
प्रति आस्था उत्पन्न की। ”
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को हर हाल में शान से जीने
की प्रेरणा दी ,धर्म के नाम पर छल और आडम्बर से मुक्त
होकर मानवता के धर्म के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर
करने का भाव जगाया ।उन्होंने चरित्रवान् युवाओं के उस
बड़े संगठन की आवश्यकता बताई , जिसके कन्धों पर
बैठ कर भारत में बसी हुई सब जातियाँ , सब धर्म एक
साथ ऊपर उठने का साहस बटोर सके ।
हमारा देश यदि सचमुच जगद्गुरु कहलाने के योग्य है,तो
वह केवल स्वामी विवेकानंद के कारण।दुर्लभ जीवन की सर्वांगीण प्रगति के लिये वेदान्त की शिक्षाओं का नुस्खा
बता कर स्वामी विवेकानंद ने पूरे विश्व के युवाओं को
को जो रास्ता दिखाया , वह कठिनाइयों से भरा हुआ हो
कर भी आश्वस्त करता है । संयमित चरित्र सफलता की
ग्यारंटी देता है । स्वामी विवेकानंद के अनुसार आधुनिक सभ्यता की मांग है कि युवा उत्सर्गपूर्ण जीवन के लिये
आत्म-निवेश करें ।
युवादिवस का अर्थ है – युवा चरित्र की संक्रान्ति का शुभ
मुहूर्त । युवाओं की सभ्यता के सूर्य को हमारा नमस्कार ।