भारतीय जनतंत्र और सामाजिक सरोकार
गिरीश्वर मिश्र
गणतंत्र दिवस का दिन अनुशासन और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता का आह्वान करता है क्योंकि जनतंत्र की व्यवस्था अपनी ही जबावदेही की होती है। आज जब देश के बाहर और भीतर की चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं तो इस तरह के सरोकार और भी महत्व के हो जाते हैं। जब हमने अपना संविधान स्वीकार किया था तब का भारत और आज का भारत भूगोल और इतिहास की दृष्टि से बदल चुका है।
हम भारतीय प्रायद्वीप के एक नए संस्करण में जी रहे हैं जहाँ देश के अंदर और बाहर का नक्शा और सीमा रेखा कई बार बदली और अभी भी उलझाऊ मसला बनी हुई है। हमें नए जैव-राजनीतिक समीकरण बनाने पड़ रहे हैं। प्रतियोगिता और संघर्ष के नित नए-नए मोर्चे खुल रहे हैं जिनसे जूझना खतरों और जोखिम भरा काम है। इस तरह की परिस्थितियाँ तमाम तरह की गैर जरूरी जिम्मेदारियाँ और भार बढ़ा देती हैं जिनसे आतंरिक संतुलन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है।
आज हमारी मुख्य चुनौतियाँ आर्थिक, भौतिक, सामाजिक और बौद्धिक संसाधनों की हैं। देश के भीतर जो मानव संपदा है उसे देखें तो लगेगा कि हम भाषा, धर्म जाति और समुदाय की नई श्रेणियों, उनकी पहचान और उनकी महत्वाकांक्षाओं को लेकर लगातार राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरों पर जूझते रहे हैं। इन सबके बावजूद अब तक की हमारे राष्ट्र की यात्रा महान रही है। हमने आम चुनाव कराए और सत्ताएं बदलीं, शिक्षा और स्वास्थ्य के संस्थान बनाए, तकनीकी और प्रबंधकीय शिक्षा के अच्छे केंद्र बनाए और उनमें कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियाँ भी हुईं। पर इन सबका दायरा और रुझान आभिजात्य या ‘एलीट’ की ओर होता गया और सामान्य जन इनसे दूर होता गया। चूँकि लाभ पाने वाले वे सशक्त और संपन्न थे इसलिए वे ऐसी व्यवस्था को बनाने का काम करते रहे जिसमें एक व्यापक तबका, जिसमें गरीब और निम्न मध्य वर्ग के लोग आते हैं, वंचित बना रहे। इसका ज्वलंत उदाहरण है अंग्रेजी का वर्चस्व जो पूरे भारत में लगभग ग्यारह प्रतिशत जनता की भाषा है पर समाज में आगे बढ़ने के लिए सीढ़ी सरीखी है। ज्ञान, नौकरी और आर्थिक विकास के लिए अंग्रेजी को बेहद जरूरी माना जाता है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल अच्छी धन उगाही करते हैं।
आज शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं की कीमत आम आदमी की हैसियत से बहुत ज्यादा हो चली है और वह हैरान-परेशान हो रहा है। उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की जो हवा देश में पिछले एक दो दशकों में बही है, उसने समाज के ताने-बाने में गहरी उथल-पुथल मचा दी है। जीने के संसाधन जुटाना दिनोंदिन बढ़ती महँगाई के चलते कठिन होता जा रहा है।
मीडिया के कारण हमारी आकांक्षाओं के क्षितिज का निरंतर विस्तार होता जा रहा है। लिप्सा और लोभ ने अपराध, धन और राजनीतिके बीच भयानक पर मजबूत रिश्ता बना डाला है। इसके चलते आज चुनाव में धन बल और बाहुबल सफलता के लिए अनिवार्य सा हो गया है। लोगों के बीच दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं और उन्हें प्रलोभन से पाटा जा रहा है। बहुलता और भिन्नता का आदर न कर लोग कृत्रिम ढंग से निकटता बढ़ा रहे हैं और सी स्थिति के विस्फोटक परिणाम आए दिन सामने आ रहे हैं।
यदि इतिहास देखें तो देश की अनेक क्षेत्रों में बहुलता स्वाभाविक थी क्योंकि व्यक्ति की सत्ता से कहीं ज्यादा प्रभावी सत्ता उस विश्वमानव की थी जो हर एक के हृदय में समाया हुआ था। एक उदारता जिसमें भिन्नता के साथ उस भिन्नता का आदर करते हुए जीने की गुंजाइश थी। हिंदू और मुसलमान एक दूसरे की भिन्नता को जायज मानते हुए अलग मानते हुए भी एक साथ रह सकते थे क्योंकि हर किसी में दूसरा भी मौजूद रहता था। धर्मनिरपेक्षता नहीं बल्कि धर्मपरायणता यानी यह मानना कि हमारा धर्म है कि हम दूसरे के धर्म की रक्षा करें, सिर्फ इस आधार पर कि मनुष्यता का यह तकाजा है कि हम सबमें एक तत्व को देख सकें – ‘सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते’। पर आज भिन्नता और अद्वितीयता का अनोखेपन का बोलबाला हुआ जा रहा है और उसका फल है द्वेष और घृणा। भारतीय जनतंत्र की स्थापना के सात दशक बीतने पर भी यह प्रश्न कठिन मुँह बाए खड़ा है कि हम सब साथ-साथ रहना कब सीख सकेंगे?
आजादी की लड़ाई में सब साथ थे। तब स्वतंत्रता का बिंब कर्म और बलिदान से बना था। उसमें शामिल और उससे जुड़े लोगों का उसके साथ सहज भावनात्मक लगाव था।
उनके व्यक्तिगत जीवन के प्रयोजनों में देश और समाज के साथ बिना किसी शर्त के जुड़ाव भी शुमार था। धीरे-धीरे बदलते समय के साथ हमारे जीवन में इस तरह के जुड़ाव की जगह सिकुड़ती गई। देश और समाज को भावनाओं की दुनिया से बाहर खींच लिया गया। उसकी जगह व्यापार और उपभोक्ता के तर्क ने जगह ली और बाजार का व्याकरण हमारे ऊपर हावी होने लगा।
स्वतंत्रता के बाद जन्मी पीढ़ी के लिए स्वतंत्रता की पहचान और मूल्य बदलता गया। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में ऐसों की पैठ बढ़ती गई जिसके लिए स्वतंत्रता सहज प्राप्त थी, ‘गिवेन’ थी और उसका सुख भोगना, उपयोग करना ही प्रमुख काम हो गया। स्वतंत्रता संग्राम की स्मृति भार सी होती गई और सब कुछ रस्म अदायगी बनता गया। देश की, मातृभूमि की और भारत माता की बात करना दकियानूसी मनोवृत्ति और पिछड़ेपन को दर्शाने वाली मानी जाने लगी। इसके बदले तात्कालिक सरोकार को हम तरजीह देते गए और एक तेज रफ्तार जिंदगी में समाज और देश के साथ पवित्र नाते रिश्ते की जड़ों को उखाड़ते चले गए। इस नई शब्दावली में जड़ों से जुड़ना जड़ता का प्रतीक बनता गया। आत्म विस्मरण और पराई दृष्टि की ओर नजर जमाए हम अपनी हर बात के प्रति शंकालु होते चले गए। यहाँ तक कि आज कई बड़े बुद्धिजीवी ‘भारत’ और ‘भारतीयता’ जैंसे विचार को भी विवादास्पद (कंटेस्टेड) विषय बना चुके हैं। इस तरह का संशय आत्मघाती है। देश के विकास के लिए उसके जीवन स्रोतों से जुड़ना होगा ओर उसकी अपनी शक्ति को पहचानना होगा। तभी समावेशी लोक कल्याण की ओर हम आगे बढ़ सकेंगे।