कोमलमलयसमीरे
श्रीजयदेवरचित “गीतगोविन्दम्” से
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डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला
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ललितलवंगलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे।
मधुकरनिकरकरम्बितकोकिलकूजितकुञ्जकुटीरे।।
विहरति हरिरिह सरसवसन्ते।
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरन्ते।।१।।
उन्मदमदनमनोरथपथिकवधूजनजनितविलापे।
अलिकुलसंकुलकुसुमसमूहनिराकुलबकुलकलापे।।२।।
मृगमदसौरभरभसवशंवदनवदलमालतमाले।
युवजनहृदयविदारणमनसिजनखरुचिकिंशुकजाले।।३।।
मदनमहीपतिकनकदण्डरुचिकेसरकुसुमविकासे।
मिलितशिलीमुखपाटलिपटलकृतस्मरतूणविलासे।।४।।
विगलितलज्जितजगदवलोकनतरुणकरुणकृतहासे।
विरहिनिकृन्तनकुन्तमुखाकृतिकेतकदन्तुरिताशे।।५।।
माधविकापरिमलललिते नवमालिकयाऽतिसुगन्धौ।
मुनिमनसामपि मोहनकारिणि तरुणाकारणबन्धौ।।६।।
स्फुरदतिमुक्तलतापरिरम्भणमुकुलितपुलकितचूते।
वृन्दावनविपिने परिसरपरिगतयमुनाजलपूते।।७।।
श्रीजयदेवभणितमिदमुदयति हरिचरणस्मृतिसारम्।
सरसवसन्तसमयवनवर्णनमनुगतमदनविकारम्।।८।।
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ललित लवंग लताएँ झूल रही हैं,
और उन्हें छूकर बहता हुआ
यह कोमल मलय समीर ।
गुनगुना रहे भँवरे,
चित्त हर लेता है कुटीर में
कोकिल का रव,
इस रसीले वसंत में
विहार करते हुए हरि
नाच रहे तरुणियों के संग।
हे सखि!
विरही को सताता है ऋतु वसंत।१।।
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उन्मत्त मदन के मनोरथ में
विलाप करती हैं
परदेस गये प्रिय की वल्लभाएँ,
खिले हुए फूलों पर भ्रमर मँडरा रहे,
ऐकान्तिक बकुल के कलाप पर
छाई है नीरवता।।२।।
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कस्तूरी की सुगंध से भरी हुई
नवकिसलयों की मालाएँ झूम रही
तमाल पर,
किंशुक के जाल ये
जैसे मनसिज के नख
तरुणों के हृदय-विदारण के ही लिये।।३।।
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कामाधीश्वर के सुवर्णदंड की तरह
सुंदर केसरपुष्प खिल उठे हैं,
पाटलिपटल से मिलकर भँवरे
बना रहे मानो
स्मर के तीक्ष्ण बाण।।४।।
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विगलित हो लज्जित
संसार को देखते तरुण जब
करुण हास करते हैं,
भाले की नोक की तरह
केतकी फूल उठती
विरहियों के हृदय को भेदते हुए।।५।।
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माधविका के परिमल से सुललित,
अतिसुरभित वनमालिका से,
मुनियों के मानस को मोह लेने वाले,
तरुणों के अकारणबंधु ।।६।।
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ये आम्रतरु
मुकुलित होते,
पुलकित होते
मुक्तालता के परिरम्भण से।
वृंदावन के विपिन में
यमुनाजल से पवित्र हुए परिसर में
छाया वसंत है।।७।।
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सरस वसंत में
वन का यह परिदृश्य है।
मदनभाव से भरे
श्रीजयदेव के कहे ये पद
हरि के चरणों की
स्मृतियों का ही सार हैं।।८।।
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यह मनोरम चित्र : श्री केशव व्यंकट राघवन की कूर्चिका से।