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त्रिभुवनेश भारद्वाज
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स्त्री के हाथ पूजा की थाल
और समूचे परिवार के लिए
शुभ का आह्वान
घर में बुरे को भला करने की प्रार्थना
अच्छे को अच्छा बनाए रखने की प्रार्थना
बच्चो की खुशहाली और सफलता की कामना
पति के आयु और स्वास्थ्य की कामना भी
स्त्री ही रखती है परमात्मा के सामने
और भूल जाती है अपने ही लिए
कुछ ख़ास मांगना
उसे लगता ही नहीं कि
उसका भी कोई वजूद है
उसे भी अपने लिए मांगना चाहिए
स्वास्थ्य आयु और बल
उसे अपने लिए भी माँगना चाहिए
परमात्मा की कृपा
वो नहीं मांगती ये सबकुछ
उसे लगता है
सबके भले में ही उसका भला है
उसके सुख सबके सुख में
उसका दिल कितना बड़ा है
वो थाल पूजा का उठाती है तो
किसी और को जरूरत ही नहीं महसूस होती
पूजा की
स्त्री बसा लेना चाहती है
अपनी आँख में परिवार के सपने
और जलाती है दीप तो
शत्रु नाश के लिए नहीं
अपितु निरंतर शुभ के लिए
जलाती है दीप आस्था के
ताकि घर में स्वस्ति और सौभाग्य स्थिर रहे
जब नदी में हाथ से बहाती है एक दीप
तो बहते दीये के साथ दूर तक
देखती रहती है अपनी कामनाओं की पाती को बहते हुए
ॐ स्वस्ति स्वस्ति
केवल स्त्री के ही भाव का प्रवाह है
वो स्वयं मंगलाचरण है संसार का

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