आसक्ति और आकांक्षा के झूले में असंयमी झूलता : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

हरमुद्दा
रतलाम,16 अप्रैल। असंयम ताला है, संयम उसकी चाबी है। असंयम जितना बढता है, समस्याएं उतनी बढती है। असंयम जब में स्वयं में एक खतरा है, तो उससे उत्पन्न होने वाले खतरे कितने खतरनाक होते है, यह कोरोना के इस संकट काल में देखा जा सकता है। असंयमी मनुष्य की मनोवृत्ति होती है-अपनी थाली को चाटना और दूसरों की थाली में झांकना। अपने पास जितना है, उसकी आसक्ति और दूसरों के पास जो है, उसे पाने की आकांक्षा। आसक्ति और आकांक्षा के इस झूले में असंयमी झूलता रहता है।

यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। सिलावटो का वास स्थित नवकार भवन से धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में आचार्यश्री ने कहा कि असंयमी व्यक्ति दूसरों के हक या अधिकार को दबाकर उस धन से भले ही बडा बंगला बना ले, बहुमुल्य वस्त्र खरीद ले और स्वादिष्ट पदार्थों का संग्रह कर ले, लेकिन वह स्वस्थ शरीर, प्रसन्न मन और आत्मीय परिवार की प्राप्ति नहीं कर सकता। उसके शरीर में दो रोग ठीक नहीं होते और चार नए रोग उभर आते है। परिवार में नित नया संघर्ष चलता रहता है। क्लेश रहित परिवार का सुख वह नहीं भोग सकता। ऐसे व्यक्ति का मन खिन्न रहता है। असंयम भी कोरोना की तरह संक्रमणशील बिमारी है, यह जिसकों लग जाती है, वह जहां जाता है अपने वायरस फैलाता है। इसलिए याद रखे कि स्वस्थ तन प्रभु का मंदिर है और स्वच्छ मन प्रभु की प्रार्थना है। असंयम न तन को स्वस्थ रहने देता है और ना मन को स्वच्छ रहने देता है। वह दोनो पर आघात करता है।
श्रम और विश्राम में बनाए संतुलन
आचार्यश्री ने कहा कि आरोग्य के लिए प्रतिदिन गरिष्ठ भोजन नहीं करना, उत्तेजक पदार्थों का सेवन नहीं करना और अतिश्रम और अति विश्राम के बीच संतुलन रखना चाहिए। इसके अलावा अपना स्वभाव हंसमुख, मिलनसार और समन्वयशील रखना होगा। सकारात्मक सोच एवं नजरिया भी आरोग्य प्रदान करता है। व्यसनमुक्त जीवनशैली तथा चिंता-आवेग व आवेश से मुक्त मन, आरोग्य के संवाहक है। रोगों की अनावश्यक चर्चा, चिंता व व्यथा भी रोगों को बढाने वाली होती है। रोग मुक्त शरीर के लिए आलस्य और प्रमाद से बचना चाहिए। आलस्य वैसे ही सारे अपराधों का जन्मदाता माना गया है। अनावश्यक आलस्य में जब समय बीतता है, तो शरीर पंगु-जड व अकर्मण्य बन जाता है।
कमजोर बना देती है भोग और लिप्सा

उन्होंने बताया कि गहरे सांस, नियमित योग, आत्म चिंतन, संत दर्शन और स्वाध्याय ना केवल शरीर को स्वस्थ रखता है, अपितु अच्छे संस्कारों का निर्माण और उच्च चरित्र का निर्धारण भी करता है। इन्द्रिय लोलुप रहने वाला कभी संयम की महत्ता को नहीं समझ सकता। हमारी आत्मा इंद्रियों के कारण ही असंयम की और जाती है। इन्द्रियजीवी , इच्छाजीवी होता है और इच्छाजीवी के असंयमी बनते देर नहीं लगती। मन को उत्तेजित इंद्रिया करती है और इंद्रियां फिर असंयम की और उन्मुक्त हो जाती है। इस तरह इंद्रियों को जितना भोगों को भोगने के लिए खुला छोडा जाता है, उनकी भोग लिप्सा व लालसा उतनी ही अधिक बढ जाती है। वे तन, मन, जीवन सबको रूग्ण, अपाहिज और कमजोर बना देती है।

संयम की महत्ता सनातन

आचार्यश्री ने कहा कि संयम की मर्यादाएं जब लुप्त हो जाती है, तब शरीर रोग ग्रस्त, मन संक्लेश ग्रस्त और आत्मा कर्म ग्रस्त हो जाती है। संयम रखने से इंद्रियां काबू में रहती है। मन सचेत और आत्मा समाधिमय बन जाती है। संयम की महत्ता कल भी थी,आज भी है और कल भी रहेगी। ये सनातन सत्य है। इस सत्य को उपेक्षित करने वाले ही रोगों से पीडित-व्यथित और व्याकुल होते है।

 

 

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