सुख बांटिए और दुखों को घटाइए : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज
हरमुद्दा
रतलाम,18 अप्रैल। सभी सुख चाहते है, दुख कोई नहीं चाहता। लेकिन सुख-दुख तो अपने-अपने कर्मों का प्रतिफल है। जीवन में यदि अशुभ कर्म किए, तो उसका प्रतिफल मिलना तय है। कर्म करने के लिए सभी स्वतंत्र है, लेकिन कर्माें का फल भोगने में परतंत्र हो जाते है। दुख ऐसी कसौटी है, जिससे मनुष्य परखा जाता है कि वह सोना है या पीतल है। अच्छा है या बुरा है। कोरोना के इस तांडव में आने वाले दुखों के क्षणों में जो प्रसन्नता बनाए रखते है, वे ही सच्चे और अच्छे साधक है।
यह संदेश शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने दिया। सिलावटो का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों से धर्म संदेश में कहा है कि दुख से घबराने और विचलित होने वाले नए दुख को उत्पन्न करने वाले बीज बो देते है। इसके विपरीत समभाव-सदभाव रखकर अपने दुखों को भोगने वाला दुख से मुक्त हो जाता है। समभाव ही सारे दुखों की दवाई है। इसलिए दुख से विचलित नहीं हो और कोरोना के तांडव सहित सभी परिस्थितियों को समभाव से जिए।
तो कभी वह दुख से नहीं घबराता
आचार्यश्री ने कहा कि दुख से ही सुख की प्राप्ति होती है। भूख का दुख नहीं होता, तो भोजन का सुख कैसे मिलता। प्यास का दुख नहीं होता, तो पेय पदार्थों के पीने का सुख कैसे मिलता। रोग का दुख नहीं होता, तो आरोग्य का सुख कैसे मिलता। संसार के जितने भी सुख है, वे दुख की नींव पर खडे है। सुख का आदि रूप दुख ही होता है। इस सच्चाई को जो जान लेता है, वह कभी दुख से घबराता नहीं, वरन दुख को ज्ञान की खान मानकर हर दुख का स्वागत करता है। दुख को सुख का कारण मान लेने पर दुख कभी दुखी नहीं करता। दुख वही ंदुखी करता है, जिसे मनुष्य दुख के रूप में स्वीकार करता है। अस्वीकार भाव से बडे से बडा दुख भी हमे दुखी नहीं कर सकता।
दुख को अपना गुरु मानते हैं असाधारण लोग
उन्होंने बताया कि दुख अपने आप में एक प्रेरणा होता है। जीवन निर्माण में जितनी बडी भूमिका दुख की होती है, उतनी सुख की नहीं होती। दुख अपने साथ साहस, शोर्य, समझदारी लाता है। इस कारण वह उन्नत और श्रेष्ठ जीवन का निर्माता बनता है। साधारण लोग दुख से डरते और घबराते है, उससे पीछा छुडवाते है, जबकि असाधारण लोग दुख को अपना गुरू मानते है। अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए भी वे दुख को अपना मार्गदर्शक मानते है। दुख की गली से ही सुख का मार्ग मिलता है। सुख की आकांक्षा जिसे नहीं होगी, उसे दुख का भय नहीं सताता है। दुख की प्रयोगशाला में ही सुख के अनुभव प्राप्त होते है। दुख से प्राप्त अनुभव ही व्यक्ति को प्रखर, प्रबल और प्रशस्त बनाते है।
साधक दुख में भी होते हैं संयमित
आचार्यश्री ने कहा कि दुख सबके जीवन में आता है। फर्क सिर्फ इतना है कि सामान्य व्यक्ति दुख से घबराकर अपना संतुलन खो देता है, जबकि साधक लोग संतुलित और संयमित रहकर दुख की वैतरणी पार कर जाते है। सुख बांटने पर दुख कम होता है। लेकिन मनुष्य दुख बांटता है और सुख बटोरता है। इससे दुख घटते नहीं और सुख भी नहीं मिलता है। यदि सुख बांटा जाए और दुख बटोरा जाएं, तो दुख घटता है और सुख बढता है। इस सच्चाई को आत्मसात करने वाले सुख पर गर्व नहीं करते, वे अपना सुख सब के बीच बांटकर प्रसन्नता का अनुभव करते है। इससे उनका सुख बढता जाता है। भोगी व्यक्ति दूसरों का सुख चाहता है, इसलिए वह दुखी रहता है, जबकि त्यागी अपना भी सुख दूसरों में बांटता है, इसलिए सुखी रहता है।
साधनों से नहीं साधना से मिलती है शांति
आचार्यश्री ने बताया कि दुख की जड़ अशांति है। अशांत मन जितना दुखी रहता है, उतना कोई और नहीं रहता। अशांत मन सुख संवर्धन के हजारों साधनों के सुलभ होने के बाद भी सुखी नहीं होता,क्योंकि शांति साधनों से नहीं साधना से प्राप्त होती है। साधन-सुविधावाद के इस युग में शांति का पिपासु मानव जितना सुख-सुविधाओं का त्याग करेगा, उतना उसका दुख घटेगा और सुख बढेगा। मनुष्य को कभी कोई दूसरा सुखी-दुखी नहीं करता। उसे तो उसके कर्मों का योग ही भोगना पडता है। इस सत्य को समझकर ही सभी अपने दुख का अंधकार नष्ट कर सकते है।