नदी ! तुम घर पर नदी नहीं होती
डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला
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नदी !
तुम घर से निकलती हुई
कितनी अकेली होती हो ।
संकल्प होता होगा तुम्हारे भीतर
अनंत यात्रा का ,
किन्तु तुम्हारे साथ में तब
मछलियाँ नहीं होतीं ,
कछुए नहीं होते ,
जीवन का कोई चिह्न नहीं होता
सिवा इसके कि तुम हो
और तुम्हारी देह-यष्टि पानी है ।
नदी !
मैंने देखा है तुम्हारा जन्मस्थान ,
जहाँ बना दिया गया है विशाल मंदिर
तुम्हारी पूजा के निमित्त ,
फिर भी सूनापन पसरा है वहाँ ।
दुनिया में जहाँ-जहाँ से भी
यात्राएँ आरम्भ होती हैं ,
शायद सभी जगह
जीवन की चमक नहीं होती ,
क्योंकि जीवन तो यात्रा में है ,
प्रवाह में है ।
नदी !
मैंने तुम्हें सदा
यात्रा में ही देखा है ।
बहती हुई तुम तीर्थ होती हो
जब जीवन नहाता है तुममें डूबकर
या आचमन के लिये
उछल आती हो अंजुलि में ,
ओषधि- वनस्पतियाँ खड़ी होती हैं
तुम्हारे प्रवाह के आगे झुकी हुई ,
तब जीवन के गान सुनाई पड़ते हैं
शाखा -प्रशाखाओं पर ,
मंदिरों में शंख बजने के साथ
तुम उत्साह से भर जाती हो ।
नदी !
तुम घर पर नदी नहीं होती ,
अश्रु विगलित तापसी की तरह
करुणा से भरी हुई
नीरव एकान्त में बुनती हो वे सपने
जिनमें दौड़ रही तुम
समुद्र का आलिंगन करने के लिये
सफेद घोड़ियों की तरह लगने वाली
अपनी भगिनियों के साथ-साथ ।
नदी !
तुम घर से अकेली निकलती हो ,
किन्तु जीवन की घोषणाओं से
भर देती हो धरती का मन
और वह हृदय भी
जहाँ तुम माँ होकर बैठी हुई
घोटती रहती ऊखल में मधुर रसायन
अपने शिशुओं के लिए।