संस्कृति का सम्मान कर अभिप्साओं को करें पूरा
त्रिभुवनेश भारद्वाज
आजकल हमारे देश में युवा वर्ग वेलेंटाइन डे के दिन पाश्चात्य संस्कृति का जश्न तो बेसुध हो कर मनाते दिखाई देते हैं लेकिन वसंत ऋतु को मदनोत्सव के रूप में मनाना भूलते जा रहे हैं जिसका संबंध मनुष्य की उत्पत्ति के ऋतु-काल धर्म से जुड़ा हुआ है। जाड़े की ठिठुरन कम होने के बाद सूर्य के उत्तरायण होते ही वसंत ऋतु के दो महीने प्रकृति नई अँगड़ाई के संकेत देने लगती है।
पतझड़ के बाद जहाँ पेड़-पौधों में बहार आने लगती है, वहीं मानव के प्रेमी हृदय में खुमार की मस्ती छाने लगती है। आम के पेड़ों में बौर फूटने लगती है, कलियाँ धीरे-धीरे खिलती हुई मधुर मधु के प्यासे भौरों को आकृष्ट करने लगती हैं।ऋतु शक्ति और राज दोनों का निर्माण करती है जिसका उर्ध्व और अधोगामी दोनों उपयोग हो सकते है उचित क्या है ये युवाओं को सोचना होगा। ऐसे में कामदेव अपने पुष्प रूपी पलाश आदि पाँचों बाणों को तरकश से निकाल मानव के दिलो-दिमाग में बेधने लगता है। अवस्थाओं का व्यवहार का सम्मान करना हमारी संस्कृति है ।अध्ययन काल में पूरी निष्ठां से केवल अध्ययन ही होना चाहिए ।वेलेंटाइन की आत्मा की शांति के लिए महानगरो में माता पित़ा की आज्ञा के बिना 14 फरवरी को लगभग 5000 विवाह रजिस्टर्ड हुए हैं जो अपने प्रिय की प्राप्ति की एक साल भी नहीं होता और अलग होने की अर्जी लगा देते है और इस तरह जिंदगी से खिलवाड़ कर लेते है बाद में केवल पछतावा रह जाता है वेलेंटाइन अंकल के नाम। वेलेंटाइन का सत्कार करने के लिए यूनान और यूरोप में पिपासुओं की कमी नहीं है हम अपनी संस्कृति का सम्मान करके भी अभिप्साओं को पूरा कर सकते है ।