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समस्या की पीठ पर ही सवार होता है समाधान : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

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हरमुद्दा
रतलाम,21 अप्रैल। संतुलित दिमाग जैसी सादगी नहीं, संतोष जैसा सुख नहीं, लोभ जैसा रोग नहीं और दया जैसा पुण्य-धर्म नहीं। कोरोना के इस संकट काल में हर व्यक्ति को इन चार सूत्रों पर आचरण करे। यद्धपि इस संकट काल में दिमाग बहुत जल्दी अशांत, असंतुलित, उत्तप्त और उत्तेजित हो जाता है, मगर इससे कोई फायदा नहीं है। समस्या आई है, तो उसका समाधान भी मिलेगा। यह कभी नहीं भूले कि समस्या की पीठ पर ही समाधान सवार होता है।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। सिलावटो का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि मनुष्य की दृष्टि समस्या पर होती है, इसलिए उसे वह बहुत बड़ी नजर आती है। यदि हमारी दृष्टि समाधान पर टिक जाए, तो समाधान बडा और समस्या बौनी जाएगी। दिमाग का संतुलन सत्य का चिंतन करने से होता है। सत्य, सत्य होता है, जो कभी मिटता नहीं और असत्य कभी टिकता नहीं है। इस सत्य चिंतन से हम अपने दिमाग को शांत, सहज, संतुलित रख सकते है। संतुलित दिमाग ही सादगी का पर्याय होता है। असंतुलित दिमाग से दम्भ का दिखावा, आडम्बर और विलासिता की वृद्धि होती है।

तो उसे होती अनहद सुख की अनुभुति

आचार्यश्री ने कहा कि संतोष जैसा सुख नहीं होता। सुख का इच्छुक मानव सुख को वस्तुओं में खोजता है, लेकिन वस्तुपरक सुख अस्थायी होता है। उससे थोड़ी देर बाद ही असंतोष का लावा उगलने लगता है। इसके विपरीत संतोषी मनोभाव से व्यक्ति आंतरिक सुख की अनुभुति करता है,क्योंकि उसकी आवश्यकताएं सीमित, इच्छाएं शांत और वासनाएं समाप्त हो जाती है। इससे उसे अनहद सुख की अनुभुति होती है। संतोष जैसा सुख संतोष से ही प्राप्त हो सकता है, असंतोष से कभी नहीं मिलेगा।

पाप का बाप है लोभ

उन्होंने कहा कि लोभ जैसा रोग नहीं है। रोग पाप के उदय से आते है और पाप का बाप लोभ है। लोभ की तासीर-और चाहिए, अधिक चाहिए और सब कुछ चाहिए में निहित है। लोभ की पूर्ति के लिए व्यक्ति दौड-धूप करता है। कभी-कभी ना करने योग्य कार्य भी करता है। अनैतिक कर्म सारे कर गुजरता है,तो परिणाम स्वरूप तन रूग्ण, मन खिन्न और आत्मा रूदन करती है। लोभ और तृष्णा का सागर कभी भरने वाला नहीं है। इस पर स्वस्थ चिंतन से ही विजय प्राप्त की जा सकती है। इतिहास भी गवाह है संसार में जितने भी लोभी हुए, उनकी पहले दुर्मति हुई और बाद में दुर्गति हो गई। लोभी कभी भी शांत और संतुष्ट नहीं बैठता है।

दया धर्म का पालन करें हैसियत के अनुसार

आचार्यश्री ने बताया कि दया जैसा पुण्य धर्म नहीं होता। भारत में जितने भी ऋषि, मुनि और महात्मा हुए है, उन सबने दया में धर्म बताया। दयावान व्यक्ति ही दूसरों के दुख में दुखी होता है और अपना सर्वस्व अर्पित करके दुखियों के दुखों को दूर कर असीम पुण्य बटोरता है। धर्म का मूल दया है और दया का मूल विवेक होता है। विवेक सम्मत हर आचरण दया की परिधि में आते है। दया से करूणा, प्रेम,अहिंसा के भाव निखरते है। कोरोना के इस संकट काल में हर मानव को अपनी हैसियत के अनुसार दया धर्म का पालन करना चाहिए।

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