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अशांति देने वाला शांति प्राप्त नहीं करता : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

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हरमुद्दा
रतलाम,30 अप्रैल। जीवन में शांति है तो सबकुछ है। सबकुछ होकर भी जीवन में शांति नहीं, तो कुछ नहीं है। शांति जीवन की पहली और आखरी आवश्यकता है। व्यक्ति शांति को साधनों में ढूंढता है। लेकिन साधन संपन्नता ही शांति का आधार नहीं है,शांति तो त्याग, सेवा, सहयोग और दूसरों के साथ सहानुभुति भरा व्यवहार रखने से प्राप्त होती है। यह समझ ही सच्ची शांति को प्राप्त करवाने में सक्षम है।
यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने कहा कि सही समझ और सही आचरण शांति के दो पैगाम है। कोरोना के इस संकट काल में हर मानव को समझ पूर्वक अपने आचरण को सही रखना चाहिए। मानवों को लक्ष्मी और विवेक का वरदान एक साथ प्राप्त नहीं होता। लक्ष्मी जिसके पास होती है, उनके पास विवेक का अभाव होता है और जिनके पास विवेक होता है, वे लक्ष्मी से अभाव ग्रस्त रहते है। इन दोनो का जहां भी एक साथ संयोग है, वे पुण्योदय से प्राप्त लक्ष्मी का विवेक भरे कार्यों में उपयोग कर जीवन को कृतार्थ कर रहे है। आज के समय की भी यही मांग हैं अगर आपके पास लक्ष्मी का वरदान है, तो उसका अहंकार, प्रदर्शन, आडम्बर, व्यसन, फैशन में उपयोग ना करे।उसे सेवा में समर्पित करे, क्योंकि सेवा ही दुख मुक्ति का उपाय है। शांति इसी से प्राप्त होती हैं।

कर्मों से याद होते हैं कर्मयोगी

आचार्यश्री ने कहा कि मनुष्य को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम सब मिटटी के पुतले है, एक दिन मिटटी में मिल जाएंग। कर्म योगी अपने कर्मों से याद किए जाते है, इसलिए आपके सत्कर्म ही आपके सौभाग्य है। इनसे ही व्यक्ति सौभाग्यशाली बनता है। प्राप्त संपत्ति का सुपयोग करने वाला नए सौभाग्य के द्वार खोलता है, जबकि जो अहंकार, अधिकार और आग्रह रखता है, उसके दुर्भाग्य के द्वार अपनेआप खुल जाते है। लक्ष्मी का रूप ही अलग है, उसे कमाने में दुख, संभालने में दुख, खर्च करने में दुख दिखता है। लक्ष्मी का सुख उन्हें ही प्राप्त होता है, जो उदारता के साथ उसे बांटते है। बांटने वाला ही लक्ष्मी का सुख प्राप्त करता हैं।

शांति का है सन्मार्ग यह

आचार्यश्री ने बताया कि सेवा, सहयोग और साता पहुंचाने वाले को सत्य का साक्षात्कार होता है। प्राणी मात्र का अस्तित्व सत्य है। हर प्राणी में जो अपने जैसा स्वरूप देखता है, वह सत्य का साक्षात्कार करता है। आत्म-साम्यता ही व्यक्ति को सत्य के सन्निकट ले जाती हैं। प्राणी वर्ग से जिसमें दुरी, दुराव और दीवार होती है, वह सत्य से बहुत दूर होता हैं। प्राणी मात्र के साथ आत्मीयता का भाव रखों और हर प्राणी को अपनी आत्मा के तुल्य मानकर सदव्यवहार करो। ये ही शांति का संमार्ग है। किसी से घृणा करना, उसका तिरस्कार करना और नफरत के भाव रखना अशांति की सृष्टि का निर्माण करते है। दूसरों को शांति देकर ही शांति प्राप्त की जा सकती हैं। अशांति देकर शांति की चाह करना फालतू है, क्योंकि दूसरे प्राणियों की अवमानना करना वस्तुत अपनी अवमानना करना है।

दुख और अशांति देते हैं दोष

आचार्यश्री ने कहा कि कोरोना से उपजी अशांति दुखी करने नहीं आई है। यह सावधान करने के लिए आई है। सावधान और सतर्क रहने वाला दुख से ही नहीं, दोषों से भी अपने को बचाता हैं। दोष ही अशांति और दुख देते हैं। यदि शांति और सुख चाहते है,तो अपने को दोषों से बचाएं। दोषमुक्त होने वाला दुख मुक्त हो जाता है।

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