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संस्कारी परिवार ही होता है सफल और सुखी : आचार्यश्री विजयराजजी महाराज

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हरमुद्दा
रतलाम, 2 मई। स्वास्थ्य के बिना जैसे शरीर और प्राण अधूरे होते है। वैसे ही परिवार के बिना इन्सान का जीवन अधूरा होता है। परिवार दो-चार व्यक्तियों का समूह भर नहीं होता। परिवार तो उस व्यवस्था का नाम है, जहां रहने वाले एक-दूसरे के विश्वास होते है। एक अच्छे परिवार का निर्माण फर्नीचर या इमारत की सजावट से नहीं, प्रेम, त्याग, सहिष्णुता, उदारता और संतुष्टि से होता हैं। व्यक्ति-व्यक्ति जब भावनात्मक रूप से जुडते है, तब परिवार निर्मित होता हैं। सफल परिवार सुख का आधार हैं।

यह बात शांत क्रांति संघ के नायक, जिनशासन गौरव, प्रज्ञानिधि, परम श्रद्वेय आचार्यप्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। सिलावटों का वास स्थित नवकार भवन में विराजित आचार्यश्री ने धर्मानुरागियों को प्रसारित धर्म संदेश में कहा कि परिवार वह इकाई है, जहां रिश्तों के मूल्य होते है। आदर, सम्मान, प्रेम, आनंद, नाराजगी, रूठना और मनाने का महत्व होता है। पहले समाज और गांव को परिवार का रूप माना जाता था। उस समय शिक्षा कम थी, मगर लोगों के संस्कार अच्छे थे। आज शैक्षणिक स्तर का विकास हुआ है, लेकिन एक घर में जन्म लेने वाले भी परिवार का हिस्सा नहीं बन पा रहे है। स्वार्थ, महत्वकांक्षा और स्वतंत्र रहने की मानसिकता ने संयुक्त परिवार पर करारी चोट मारी है। इसके चलते संस्कारों का अवमूल्यन हुआ है।

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सुखी परिवार का संबंध संस्कारवान होने से

आचार्यश्री ने कहा कि सुखी परिवार का संबंध छोटे या बडे होने से नहीं अपितु संस्कारवान होने से हैं। संस्कारी परिवार सफल और सुखी होता है। परिवार में रिश्ते की इमारत प्रेम त्याग, सामंजस्य विश्वास, सौहार्द, सम्मान, मर्यादा, समझदारी और मधुरतापूर्ण व्यवहार के स्तम्भों पर खडी रहती है। परिवार में रहना ही परमात्मा से मिलने की ट्रेनिंग का स्कूल है, जो अपने परिवार में अच्छी तरह नहीं रह सकता, वो परमात्मा से कभी भेंट नहीं कर सकता। इसलिए जीवन की पहली पाठशाला परिवार होती है, जहां संस्कारों के बीज रोपित होते है, जो आगे चलकर विराट वृक्ष का रूप धारण करते है। परिवार की मुख्य धुरी पति-पत्नी का रिश्ता है, जो परस्पर विश्वास और निर्मल भावना पर आधारित होता है। इसमें खोट आने पर जीवन में खटास आ जाती हैं। खटास भरा जीवन खटपट से भरा रहता हैं। मनुष्य की यह बहुत बडी कमी है कि वह पडोसियों से तो मधुर रिश्ते कायम कर लेता है। उनसे हंस हंस कर बाते भी कर लेता है, लेकिन जिनके साथ दिन-रात रहता है, उनसे एक घर में रहने पर भी दूरियां बना लेता हैं।

चारित्रिक शक्ति का विकास परिवार के साथ

आचार्यश्री ने कहा कि दूसरों के साथ मुस्कान से बोलना और घर में सबके साथ मुस्कान से पेश आना चाहिए। घर में जब सब प्रसन्न होते है, तो वहां स्वर्ग जैसा सुकुन मिलता है। मरने के बाद कोई स्वर्ग में जाए ना जाए, मगर जिस घर-परिवार में वह रहता है, उसे तो स्वर्ग बना ही सकता है। यहां बना स्वर्ग वहां का स्वर्ग भी बना सकता हैं। उन्होंने कहा कि हम जिस आर्य देश की संस्कृति में जी रहे है, उसका निर्माण संस्कारों और उदात चरित्र से हुआ है। इस चारित्रिक शक्ति का विकास परिवार के साथ रहकर ही किया जा सकता हैं।

कपट भरा व्यवहार परिवार को कर सकता है छिन्न-भिन्न

आचार्यश्री ने कहा कि व्यवहार में समता और स्वभाव में सरलता होगी, तो परिवार में खुशहाली आएगी। विषमता भरा व्यवहार और कपटभरा स्वभाव, परिवार की ईकाई को छिन्न-भिन्न करता हैं। संगठित परिवार से समरसता पूर्ण समाज का निर्माण होता हैं। कोरोना के इस संकटकाल में परिवार की समता, एकता और समन्वय शीलता को सहेजने से बहुत बड़ा रचनात्मक कार्य हो सकता है।

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