आसमान छूती हुई सेना और हम

डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला

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जब कभी हमारे सैनिक शहीद होते हैं , तब देशभक्ति के तराने  गूँजने लगते हैं। हम एक राष्ट्रीय  चरित्र ओढ़  लेते हैं ,और एक साथ खड़े भी दिखाई देते हैं। किन्तु यह भी कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के बच्चे मुगलकाल के युद्धों का इतिहास तो जानते हैं,कोई ढाई हजार साल पहले  सम्राट् अशोक की कलिंग – विजय के  किस्से भी जान चुके होते हैं,किन्तु स्वतंत्र भारत में सेना का स्वरूप क्या है , सेना किस तरह युद्ध की तैयारी करती है , कब-कब  भारत और पाकिस्तान , भारत और चीन  के  युद्ध हुए ,क्यों हुए ,क्या परिणाम हुआ , कितने जवान शहीद हुए ,कितने लोग बेघर हुए ,यह जानकारी पाठ्यपुस्तकों में नहीं मिलती ।

देश की राजनीति तो  विज्ञान की तरह पढ़ाई  जाती है,किन्तु सैन्यविज्ञान को छिपा कर ही रखा जाता है कि कहीं भारतीय सेना का जज्बा नयी पीढ़ी में उतर आया,तो समाज का प्रचलित ढाँचा उखड़ जायेगा , युवाओं  में राष्ट्रीय  चरित्र कुछ ज्यादा ही  पनप गया तो पार्टी के नेताओं को झंडे उठाने वाले कहीं नहीं मिलेंगे । अन्यथा क्या कारण है कि 1971के भारत-पाक युद्ध में सैनिकों को  मिली विजय  राजनैतिक  विजय  में बदल जाती है , कारगिल  युद्ध में भारत  की जीत  का  मुकुट राजनीति के मस्तक पर चढ जाता है। शिक्षा की संरचना ऐसी हो , कि जिस तरीके से किसान अनाज पैदा करता है , शिक्षक सैनिक-चरित्र पैदा करे । युवाओं में  सैनिक-चरित्र की मांग हो।

एक  प्रार्थना  रोज दोहरायी जाती

पांडिचेरी के श्री अरविन्द  आश्रम  में विद्यार्थियों  को एक  प्रार्थना  रोज दोहरायी जाती है -” हे प्रभो ! हमें वीर योद्धा बना। यही हमारी  अभीप्सा है । अतीत  ज्यों  का त्यों  बना  रहना चाहता है , किन्तु उसके  विरुद्ध जो भविष्य उत्पन्न होने को है , उसके महान् युद्ध को  हम सफलतापूर्वक  लड़ें, ताकि नवीन चीजें  अभिव्यक्त हो सकें , और हम ग्रहण करने के लिये तैयार हो जाएँ।”स्वतंत्र भारत के छात्रों में ऐसी ही युयुत्सा का भाव भरने की आवश्यकता है। यह भाव राष्ट्रीय पवित्रता वाला हो , राष्ट्र के लिये  चेतना  में चिनगारी  पैदा करने  वाला हो , इसके  लिये  स्कूलों में अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण का प्रबंध होना चाहिए। केवल युद्ध की तैयारी के लिये नहीं ,केवल आत्मरक्षा के लिये नहीं,अपितु राष्ट्रवाद की सच्ची नींव खड़ी करने के लिये भी यह जरूरी है ।  बच्चों को यह समझाना बेहद जरूरी है  कि सेना से  ही राष्ट्र  मजबूत  बनता है। क्रिकेट के खिलाड़ी, सिनेमा के अभिनेता या किसी बड़े राजनेता की अपेक्षा एक सैनिक युवाओं का आदर्श होना चाहिए।सेना हमेशा लड़ने का ही काम नहीं करती।उसका काम केवल युद्ध लड़ना ही नहीं है,जैसा समझा जाता है।सेना की बड़ी  भूमिका राष्ट्र को  एकजुट बनाये  रखने की है, शान्ति  को सदाबहार  बनाये रखने की है। सामाजिक, आर्थिक और  भौगोलिक विकास के लिये  चिन्तारहित परिस्थितियों का निर्माण करने का काम सेना ही करती है । सेना हमारी भाग्यविधाता है , यह समझना ही होगा और सबको समझाना भी होगा। हमारी सेना रक्षाकवच बन कर खड़ी है , तो ही हम  अपना काम बेहतर तरीके से कर सकते हैं।नये उद्योग शुरू करने हों , बाँध बनाना हो , नई संचारप्रणालियाँ  लागू करनी हो , स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में समुचित प्रबंध करना हो , कला-संगीत- साहित्य और विज्ञान के  क्षेत्र में अभिनव  प्रयोग करना हो , तो हमें एक निरापद और अनुकूल परिवेश चाहिए। प्राचीनकाल में अश्वमेध यज्ञ के बहाने राजा पूरे एक वर्ष के लिये राज्य की दसों दिशाओं में सेना तैनात करता था, और राज्य में रचनात्मक आयोजनों के साथ विकासपर्व मनाया जाता था ।स्वतंत्रता के बाद हमारे देश का जो हाल है,उसका मुख्य कारण यही है कि हमने सेना को महत्व नहीं दिया। वीर-चक्र, परमवीरचक्र जैसे अलंकरण तो ठीक हैं , सैनिकों को हौंसला आफजाई की ज्यादा जरूरत होती है। हमने सेना को इस्तेमाल करने के  लिये  रख छोड़ा  है , जो उचित नहीं है।

ताजा इतिहास गवाह

ताजा इतिहास गवाह है कि राजनीति ने जब सेना को  इस्तेमाल किया  , तो मुँह की खानी पड़ी है । चाहे श्रीलंका  में शान्ति स्थापना के  लिये भारतीय सेना को भेजने का प्रसंग हो , या स्वर्णमंदिर परिसर में आतंकियों  को खदेड़ने  के लिये सेना  को धकेलने की चाल हो , परिणाम घातक ही सिद्ध हुए हैं । आतंकवाद के चक्रव्यूह में फँस कर हमारे सैनिक शहीद हो जाते हैं और दूसरे – तीसरे  दिन  राजनीति सब  भूल  कर  फिर अपने हिसाब से चलने लग जाती है।हमें यह समझना  होगा कि सेना हमारी रक्षा के लिये है , इस्तेमाल के लिये नहीं । मुंबई बम विस्फोट के बाद जब काला साया  मंडराने लगा , तब सेना ने ही देश को भय और दहशत की गिरफ्त से बाहर निकाला।तेरह दिसंबर 2001 को जब  संसद पर हमला हुआ , तब सेना ने ही जान जोखिम में डाली ।  केदारनाथ में भयानक आपद आई , तो मोर्चा सेना ने ही सम्हाला। राष्ट्र के जीवन में युद्ध  तो हमेशा ही एक सम्भावना है।

सत्ता में ऐसी होनी चाहिए हुंकार

शिखर पर बैठी  हुई सत्ता में ऐसी  हुंकार होनी  चाहिए कि शक्तियाँ  परस्पर जुड़ने लगे , वज्र – संकल्प उभरने लगे । जब भी  आँधियाँ आयें तो  आँखों में राष्ट्रनिर्माण के स्वप्न ले कर आये । तूफान उठे , तो  तमस का व्यूह तोड़ कर ही दम ले।सृजन की दिशा तय हो।घोर संकट के समय जो राष्ट्रवाद उभरता है,वह हमारा संचारीभाव नहीं , स्थायीभाव होना चाहिए। अब  नये सिरे से सोचना  शुरू करना  होगा । लोकतंत्र की यात्रा शुरू से शुरू करनी होगी । पुराने किले ध्वस्त कर अब जगह – जगह  राष्ट्रीय विचारों  की नई  सैनिक छावनियाँ बनानी होंगी , जो स्वतंत्र भारत के  पल्लवित और पुष्पित होते उपवन में पंछियों के मधुर कलरव की रक्षा कर सकें , मासूम कलियों के  फूल होते सपनों की रक्षा कर सके । सुंदर  भविष्य के  निर्माण में हमारा  सैनिक जब ईंट के ऊपर ईंट रख कर आसमान को छूने के लिये चढने लगे , तब नीचे उसकी  टाँग खींचने वालों  की जगह  हौंसला बढ़ाने वालों  की जमात हो, तो समझ लेना चाहिए कि सोने की चिड़िया को बसेरा मिल ही गया।

 

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