जिंदगी का सपना

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इस वक्त
उनकी आंखों में है
केवल अपने गांव का सपना

शहर के अपने सपने को
खुद ही रौंदकर
बढ़ते जा रहे हैं कामगार
हजारों हजार मील पैदल

भूख प्यास, धूप -मार
दया-दान-अपमान को जीतकर
आशा से भरे, थके शरीर
पहुंच गए हैं
गांव की हरियाली सीमा तक

पर
”छुतहा रोग हो सकता है ,
कैसे आने दें गांव में उन्हें ?”
क्वॉरेंटाइन सेंटर में फैली
इस खबर ने
रौंद दिया है उनका
अपने गांव का भी सपना

शहर और गांव सब
गड्डमड्ड हो रहे हैं
उनकी आंखों में

नहीं देखना चाहते
वे अब
किसी भी शहर
या गांव का सपना

देखना चाहते हैं
जिंदगी भर
केवल ‘ इंसानों की तरह ‘
जी सकने का सपना

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🔲 संध्या टिकेकर

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